समाजकानून और नीति जाति के आधार पर हमारे देश की न्याय व्यवस्था कितनी समावेशी है

जाति के आधार पर हमारे देश की न्याय व्यवस्था कितनी समावेशी है

न्यायालय सामाजिक न्याय सुनिश्चित कर सके इसके लिए आवश्यक है कि सबसे पहले न्यायालाओं के अंदर सभी वर्गों को समान प्रतिनिधित्व मिले

भारत के संविधान में सुप्रीम कोर्ट को मौलिक अधिकारों का अभिभावक कहा गया है। यही कारण है कि संविधान के अनुच्छेद 32 के अनुसार अपने मौलिक अधिकारों का हनन होने पर कोई भी व्यक्ति न्यायालय का दरवाज़ा खटखटा सकता है। मगर दुर्भाग्यवश भारत की सामाजिक संरचना इस प्रकार है कि यहां जातिगत आधार पर शोषण करके लोगों के मौलिक अधिकार का हनन सबसे ज़्यादा किया जाता है। ऐसे में नियम के अनुरूप तो लोगों को कोर्ट का रुख करना चाहिए मगर भारतीय अदालतों के इतिहास, संरचना और व्यवहार को देखकर न्याय मिलने की आशा थोड़ी कम हो जाती है। ऐसे में समाज के सभी वर्गों के लिए न्याय सुनिश्चित हो सके उसके लिए ज़रूरी है कि समाज के सभी वर्गों का उनकी संख्या के अनुरूप न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो। मगर 2 अप्रैल 2018 को द प्रिंट में प्रकाशित लेख कि माने तो कानून मंत्रालय द्वारा विभिन्न मौकों पर देश के चीफ़ जस्टिस को सुप्रीम कोर्ट के लिए किसी दलित न्यायाधीश का नाम अनुमोदित करने के संबंध में लिखा जा चुका है मगर अब तक इस संबंध में कोई भी रूचि नहीं दिखाई गई। ऐसे में सवाल यह है कि जब देश की न्यायपालिका अपनी ही संरचना में शोषित तबके से आने वाले लोगों के प्रति संवेदनशील नहीं है तो शोषण होने पर यह तबका किस उम्मीद से न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाएगा? 

न्यायालय सामाजिक न्याय सुनिश्चित कर सके इसके लिए आवश्यक है कि सबसे पहले न्यायालाओं के अंदर सभी वर्गों को समान प्रतिनिधित्व मिले। ऐसे बहुत से वाकये हुए हैं जब न्यायालयों के अंदर सामाजिक विभेद की बात सामने आई है। गौरतलब यह है कि न्यायपालिका के अंदर यह भेदभाव एक व्यवस्थागत तरीके से होता है जिससे यह नियमों के जाल में उलझकर रह जाता है और बाहर नहीं आ पाता। इसे ऐसे समझिए कि जब भी किसी दलित को चीफ़ जस्टिस न बनाए जाने की बात करते हुए दलितों के शोषण कि बात की जाती है तो यह कहा जाता है कि चूंकि चीफ़ जस्टिस की नियुक्ति वरिष्ठता के आधार पर की जाती है इसलिए फलां व्यक्ति को चीफ़ जस्टिस बनाया गया है। मगर इस तंत्रगत विभेद को उजागर करते हुए द वायर में छपे एक लेख के मुताबिक ज्यूरिस्ट फली नरीमन अपनी किताब ‘इंडियाज़ लीगल सिस्टम’ में कहते हैं कि पूर्व कानून मंत्री पी.शिवशंकर ने उन्हें बताया था कि कुछ राज्यों में यदि दो लोगों को एक ही दिन शपथ लेनी है तो ‘प्रेफर्ड-कम्यूनिटी’ से आने वाले व्यक्ति को पहले शपथ दिलवाई जाती है।

न्यायालय सामाजिक न्याय सुनिश्चित कर सके इसके लिए आवश्यक है कि सबसे पहले न्यायालाओं के अंदर सभी वर्गों को समान प्रतिनिधित्व मिले।

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जाति के साथ-साथ वर्ग भी एक अहम पहलू

दरअसल न्यायपालिका में जातिवाद पर बात करते हुए हमें यह ध्यान में रखना होगा कि इस तंत्र का निर्माण केवल कोर्ट रूम में नहीं हो रहा है। इसका निर्माण सिलसिला उन संस्थानों से हो रहा है जहां कानून कि पढ़ाई होती है। साल 2015 में किए गए एक सर्वे के अनुसार नेशनल लॉ स्कूल ऑफ़ इंडिया में पढ़ने वाले छात्रों में से 65 प्रतिशत छात्र तथाकथित उच्च जाति से संबंध रखते थे। इसी प्रकार साल 2014 में जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल में पढ़ने वाले छात्रों के बीच किए सर्वे का परिणाम कहता है कि वहां पढ़ने वाले करीब 61 प्रतिशत छात्र उच्च जाति से आते हैं। हालांकि यह आंकड़े 2 संस्थानों के हैं मगर कानून की पढ़ाई की प्रवेश प्रक्रिया की ओर गौर करें तो समझ आएगा कि यह आंकड़ा राष्ट्रीय आंकड़े की ओर सही दिशा दिखाता है। 

लॉ की पढ़ाई लिए होने वाली प्रवेश परीक्षा क्लैट (CLAT) के आवेदन शुक्ल पर गौर करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि क्यों न्यायपालिका में विशेषाधिकार प्राप्त लोगों की मौजूदगी अधिक है। इस परीक्षा में बैठने के लिए जनरल और ओबीसी समुदाय के लोगों को चार हज़ार की शुल्क अदा करनी होती है जबकि एससी/एसटी समुदाय से आनेवाले छात्रों को इसमें शामिल होने के लिए करीब साढ़े तीन हज़ार (3500) रुपए अदा करने होते हैं। इस फीस के जातिगत दृष्टिकोण को समझने के लिए हमें साल 2012 में प्रकाशित वर्ल्ड इनइक्वॉलिटी डेटाबेस (World Inequality Database) के आंकड़ों की ओर नज़र डालनी होगी। डेटाबेस के अनुसार भारत की कुल राष्ट्रीय औसत वार्षिक घरेलू आय (national average annual household income) में 47 प्रतिशत हिस्सा उच्च जाति के लोगों की वार्षिक घरेलू आय का है। जबकि एससी और एसटी समुदाय के परिवारों राष्ट्रीय घरेलू आय (वार्षिक) में क्रमशः केवल 21 और 34 प्रतिशत योगदान ही दे पाते हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि कैसे उच्च जाति परिवार से आनेवाले छात्रों के लिए इन सेवाओं में आना अपेक्षाकृत अधिक आसान है। ऐसे में कोर्ट रूम में संख्या कम होने के कारण शोषण की संभावना बढ़ जाती है।

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हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने आते रहे हैं जो यह न्यायपालिका के आरक्षण विरोधी रवैये की ओर इशारा करते हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक बीते साल फरवरी के महीने में ही अपने एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट की 2 सदस्यीय बेंच ने यह कहा था कि नौकरी के प्रमोशन में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है। जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस हेमंत गुप्ता द्वारा दिए गए इस फैसले में कहा गया, “इसमें कोई शक नहीं कि राज्य सरकार आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है। पदोन्नति में आरक्षण का दावा करने के लिए किसी व्यक्ति को कोई भी मौलिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं। न्यायालय द्वारा भी सरकार को आरक्षण प्रदान करने के लिए कोई आदेश नहीं दिया जा सकता।” इसी फैसले में संविधान के अनुच्छेद 16 का हवाला देते हुए कहा गया है कि यह अनुच्छेद राज्य को यह शक्ति देता है कि वह नियुक्ति और पदोन्नति में एससी और एसटी श्रेणी के लिए आरक्षण का प्रावधान कर सकती है यदि उसे यह लगता है कि राज्य में संबंधित श्रेणी के लोगों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है।

हालांकि यह फैसला न्यायालय की सुचिता पर तब और भी अधिक शंका पैदा कर देता है, जब हम इस फैसले का इतिहास देखते हैं। साल 2012 में तत्कालीन उत्तराखंड सरकार द्वारा एक नौकरी की भर्तियों के लिए बिना एससी एसटी समुदाय के लोगों के लिए सीट आरक्षित किए ही नोटिफिकेशन जारी कर दिया था । इस पर संज्ञान लेते हुए उत्तराखंड हाईकोर्ट ने इस नोटिफिकेशन को खारिज कर, राज्य सरकार को एससी और एसटी के प्रतिनिधित्व को निर्धारित करने और फिर आरक्षण के अनुरूप भर्तियों पर निर्णय लेने का निर्देश दिया। तब वहां की सरकार द्वारा इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई जिस पर फैसला देते हुए कोर्ट ने उपर्युक्त निर्णय सुनाया था। यह फैसला न सिर्फ बेहद आपत्तिजनक था बल्कि इससे न्यायपालिका के रवैये पर भी सीधे सवाल उठते हैं। इस फैसले का एक आपत्तिजनक पहलू यह भी था कि इस फैसले के माध्यम से न्यायालय ने सरकार को उपरोक्त दोनों श्रेणी के लोगों की संबंधित सरकारी सेवा में प्रतिनिधित्व के आंकड़े जुटाने की ज़िम्मेदारी से भी मुक्त कर दिया। न्यायालय के अनुसार इन आंकड़ों को ऐसे मौको पर जुटाने की ज़रूरत नहीं है जब सरकार ने आरक्षण न देना तय किया हो।

निश्चित तौर पर न्यायालय के इस व्यवहार में अदालत में दलित और आदिवासी समुदाय के लोगों की पर्याप्त उपस्थिति का न होना प्रमुख कारण है। इसी कारण समय-समय पर न्यायपालिका में आरक्षण की मांग उठती रही है मगर दुर्भाग्यवश इस मसले पर प्रशांत भूषण जैसे सोशल एक्टिविस्ट भी आरक्षण के ख़िलाफ़ खड़े नज़र आते हैं। हालांकि इस साल फरवरी के महीने में ही केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद द्वारा यह बात कही गई थी कि वह देश के मुख्य न्यायाधीश के साथ इस संबंध में बातचीत कर रहे हैं कि देश में एक भारतीय न्यायिक सेवा का गठन किया जाए। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक उन्होंने कहा था कि प्रसाद ने कहा, “हम चाहते हैं कि न्यायिक व्यवस्था में भी दलित आदिवासी और ओबीसी समुदाय के लिए आरक्षण हो ताकि उसका चरित्र समावेशी हो सके।”         

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तस्वीर साभार : Telegraph India

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