इंटरसेक्शनलहिंसा शादी के फ़िल्टर से सेक्स, हिंसा के रंग और स्लीपिंग पार्टनर की चुनौती | नारीवादी चश्मा

शादी के फ़िल्टर से सेक्स, हिंसा के रंग और स्लीपिंग पार्टनर की चुनौती | नारीवादी चश्मा

जैसे ही बीना को रविश नाम का स्लीपिंग पार्टनर मिला वो काफ़ी बेहतर महसूस करने लगी। उसे ख़ुद में आत्मविश्वास महसूस होने लगा।

‘सेक्स’ या ‘संभोग’ हमारे तथाकथित समाज में हमेशा से शर्म का विषय रहा है। इसके विपरीत इसकी ज़रूरत का अंदाज़ा हम देश की बढ़ती आबादी के साथ-साथ दीवारों पर लिखे नामर्दी दूर करने के प्रचार से लगा सकते है। एक समय के बाद सेक्स इंसान की ज़रूरत है और सेक्स की परिभाषा या इसके मानक हर इंसान के लिए अलग होते है। इस ज़रूरत के साथ इसके भाव, अनुभव और विचार भी इसके स्वरूप को समाज में परिभाषित करने का काम करते है।

जहां एक तरफ़ जबरदस्ती सेक्स करने को ‘बलात्कार’ कहा जाता है, वहीं सहमति और एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हुए सेक्स करना ‘प्यार’ कहलाता है। लेकिन कई बार इस सेक्स का इस्तेमाल हिंसात्मक रूप से अपनी सत्ता को क़ायम रखने के लिए भी किया जाता है, जिसका वीभत्स परिणाम होता है बलात्कार। पर ये ज़रूरी नहीं कि बिना सहमति के ज़बरदस्ती सेक्स करना हमेशा क़ानून की परिभाषा में बलात्कार के दायरे में आता हो। अपने देश में ‘शादी’ एक ऐसी संस्था है जो किसी पुरुष यानी कि ‘पति’ को महिला यानी कि अपनी ‘पत्नी’ के साथ सेक्स करने का अधिकार देती है। उल्लेखनीय है कि इसमें कहीं भी सहमति या असहमति की कोई चर्चा नहीं की गयी है। यही वजह है कि हमारे समाज में वैवाहिक बलात्कार को अभी भी अपराध के दायरे में शामिल नहीं किया गया है।

अपने भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में महिला के संदर्भ में सेक्स को लेकर विचार, व्यवहार और नज़रिया पितृसत्ता को मज़बूत करने में अहम भूमिका अदा करती है। यहाँ जब एक महिला विवाह संस्था के बग़ैर या कई बार विवाह संस्था में रहते हुए अपनी सहमति और पसंद से किसी पुरुष के साथ सेक्स करती है तो हमेशा उसे इज़्ज़त का हवाला देकर बुरा करार दिया जाता है। आधुनिकता के रास्ते भागते समाज में आज भी अपनी मर्ज़ी से सेक्स करने वाली महिलाओं को समाज उपेक्षित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता है। हाँ यहाँ इस बात से बिल्कुल भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस उपेक्षा का स्वरूप महिला की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक प्रस्थिति से प्रभावित होता है। जैसे – जहां किसी वंचित तबके से ताल्लुक़ रखने वाली गरीब महिला पर अपनी सहमति से किसी पुरुष के साथ सेक्स करने को लेकर हिंसा करना आसान होता है, वैसी हिंसा करने की हिम्मत समाज किसी ऊँचे ओहदे वाली महिला के लिए नहीं जुटा पाता है। पर अपशब्द कहने या चरित्रहनन का मौक़ा छोड़ने में कहीं भी कोई कमी नहीं रखी जाती है।

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इज़्ज़त का मूल ‘सेक्स और यौनिकता’

इसी क्रम में जब हम ‘इज़्ज़त’ की रूपरेखा का विश्लेषण करते है तो हमेशा ‘सेक्स’ और ‘महिला यौनिकता’ को मूल में पाते है। यानी कि जैसे ही कोई महिला अपने अनुसार सेक्स का साथी चुनती है या फिर अपनी पसंद से अपनी ज़िंदगी जीती है तो अगले ही पल वो पूरे समाज को खटकने लगती है। इन्हीं वजहों से समाज ने बेहद सोच-समझकर अपनी सामाजीकरण प्रक्रिया में ‘जेंडर’ को केंद्र में रखा है, जिससे बचपन से ही लड़कियों को ‘इज़्ज़त’ का डर दिखाकर उनकी यौनिकता पर शिकंजा कसा जा सके है और लड़की के लिए उसके सेक्स का साथी समाज-परिवार की मर्ज़ी से उनकी तथाकथित जाति, धर्म, वर्ग, क्षेत्र और संस्कृति जैसे तमाम फ़िल्टर के बाद चुना जा सके।

सत्ता के दबाव में महिलाओं के हिस्से उनकी सहमति से सेक्स का सुख सीमित समय के लिए नसीब होता है।

सदियों से चली आ रही  जाति, धर्म, वर्ग, क्षेत्र और संस्कृति जैसे तमाम फ़िल्टरों के बाद सेक्स के तथाकथित जीवनसाथी को शादी के संस्कार के बाद महिलाओं के सिर मढ़कर मानो महिलाओं का मालिकाना हक़ पुरुषों को दे दिया जाता है। फिर क्या जिसकी लाठी उसकी भैंस। पुरुष अपनी तमाम शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और पारिवारिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए महिलाओं का दोहन करने लगता है। बहुत-सी महिलाएँ जल्द इसकी आदी हो जाती है, क्योंकि उन्होंने अपने घरों में हमेशा से महिलाओं को ऐसा करते देखा है, कुछ को वक्त लगता है, कुछ विरोध करती है, कुछ अलग होती है और कई मरती है।

‘स्लीपिंग पार्टनर’ की ‘बीना’ भी बिल्कुल ऐसी ही थी, सहने वाली, चुप रहने वाली, परिवार चलाने और रिश्ते निभाने माफ़ करिए ढ़ोने वाली। सालों से उन्होंने वैवाहिक बलात्कार को झेला ये सोचकर कि ये उनके पति का अधिकार है और उनका पति ज़बरदस्ती सेक्स के दौरान उनकी ऊँगली मरोड़ता रहा ये सोचकर ये उसका अधिकार – अपनी पत्नी को सजा देना। पति से अपनी बेईज़्ज़ती करवाने की बीना को मानो आदत-सी हो चुकी थी। लेकिन जैसे ही बीना को रविश नाम का स्लीपिंग पार्ट्नर मिला वो काफ़ी बेहतर महसूस करने लगी। उसे ख़ुद में आत्मविश्वास महसूस होने लगा और अपने स्लीपिंग पार्टनर के साथ सेक्स करना उसे सुकून देने लगा। पर सच ये है कि सत्ता के दबाव में महिलाओं के हिस्से उनकी सहमति से सेक्स का सुख सीमित समय के लिए नसीब होता है और उनका स्लीपिंग पार्टनर बीना को ब्लैकमैल करने की कोशिश करने लगा। वहीं पति अपनी वर्चस्व की सत्ता पर आँच आती देख बीना की टूटी ऊँगलियों को मसलकर उसके साथ ज़बरदस्ती सेक्स करने लगा।

बीना अंदर से इतनी बार टूट चुकी थी कि अब टूटने को कुछ बाक़ी नहीं था। फिर क्या था, बीना ने बेबाक़ी से इज़्ज़त से दांव को पितृसत्ता की व्यवस्था में पलट दिया। कैसे, क्यों और फिर क्या हुआ आप ख़ुद देख लीजिए – स्लीपिंग पार्टनर।   

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पुनर्वसु नाइक के निर्देशन में बनी क़रीब बाइस मिनट चंद सेकंड की ये शॉर्ट फ़िल्म अभिनेत्री दिव्या दत्ता के बेजोड़ अभिनय में सेक्स, यौनिकता और महिला हिंसा के मुद्दे पर समाज के संकीर्ण दायरे और पुरुषसत्ता के दायरों को बेहद संजीदगी उजागर करती है। मौजूदा समय में जब हम आए दिन महिला अधिकारों और हिंसा की बात करते है, ऐसे में हमें हिंसा की तहों को समझने की जितनी ज़रूरत है उतनी ही ज़रूरत महिलाओं की यौनिकता को समझने और स्वीकारने की भी ज़रूरत है। ऐसे में हमारे लिए उन चुनौतियों को भी उज़गार करना ज़रूरी हो जाता है, जिसका सामना एक महिला को तब करना पड़ता है जब वो अपनी सहमति या पसंद से अपने सेक्स के साथी का चुनाव करती है। महिलाओं के संदर्भ में सेक्स, यौनिकता और हिंसा के मुद्दे की तहों पर सदियों से चुप्पी साधे हमारे समाज को अब बोलने-समझने की ज़रूरत है, जिस दिशा में ऐसी फ़िल्में एक सशक्त माध्यम है।

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तस्वीर साभार : www.imdb.com

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