समाजख़बर न्यू जर्सी में जातिवाद : मंदिर निर्माण में दलित मज़दूरों का शोषण

न्यू जर्सी में जातिवाद : मंदिर निर्माण में दलित मज़दूरों का शोषण

कई बार सुनने में आता है कि भारत में अब जातिवाद ख़त्म हो चुका। ऐसा कहने और प्रचलित करने वाले तथाकथित उच्च जाति के लोग होते हैं। हालांकि खबरें कुछ और बताती हैं। पिछले साल जब देश कोरोना से जूझ रहा था, दिसंबर के महीने में मध्यप्रदेश के छतरपुर में उच्च जाति के लोगों द्वारा 25 वर्ष के एक युवक, देवराज़ अनुरागी की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई थी, कारण था उसने भोज में परोसा खाना छू दिया था। जातिगत शोषण भारत से मिटा नहीं है। हिंदू धर्म को उदारवादी नज़रिए से देखने की बात करने वाले उच्च जाति के लोग जातिगत आधार पर भेदभाव और शोषण को धर्म के निर्वाह का हिस्सा मनाते पाए गए हैं। भारत में आज भी कई जगहों पर कुछ जातियों को मंदिर में जाने की मनाही है, लेकिन अधिकतर मजदूर श्रमिक वर्ग के लोग इन्हीं जातियों से आते हैं। जाहिर है जिस मंदिर में जाने से मंदिर की ‘पवित्रता’ खंडित होने की बात बताई जाती है उसकी दीवारें किस समुदाय के श्रम से खड़ी होती हैं। यहां तक कि भारत से बाहर, अन्य देशों में रह रहे उच्च जाति के लोग अपने जाति आधारित दंभ से बाहर नहीं निकल पाते। ऐसा ही एक मामला अमरीका के न्यू जर्सी में सामने आया है।

अमेरिका के न्यू जर्सी में सौ से भी अधिक श्रमिकों को एक विशालकाय हिन्दू मंदिर के निर्माण के लिए रखा गया था। ये सभी श्रमिक निचली जातियों से हैं। अमेरिका की फ़ेडरल कोर्ट में दर्ज़ मुक़दमा बोचासनवासी श्री अक्षर पुरुषोत्तम स्वामी नारायण संस्था (BAPS) और उन्हें वहां काम पर लगाने वाली अन्य संबंधित संस्थाओं के ख़िलाफ़ है। यह मुक़दमा छह श्रमिकों द्वारा अन्य श्रमिकों की ओर से दर्ज़ किया गया है। इन्होंने श्रमिकों को काम देने की बात कहकर अमरीका लाया गया और उनके श्रम का अनुचित फ़ायदा उठाया जाने लगा। उन्हें प्रति सप्ताह 87 घंटे से अधिक काम करवाया गया, जिसके एवज़ में उन्हें सिर्फ 1.20 डॉलर प्रति घंटे के दर से पैसे दिए गए। यह घटना बुनियादी मानवाधिकारों का हनन है, अमरीका का क़ानून इस तरह से ज़बरन मजदूरी करवाए जाने की इजाज़त नहीं देता।

जाहिर है जिस मंदिर में जाने से मंदिर की ‘पवित्रता’ खंडित होने की बात बताई जाती है उसकी दीवारें किस समुदाय के श्रम से खड़ी होती हैं। यहां तक कि भारत से बाहर, अन्य देशों में रह रहे उच्च जाति के लोग अपने जाति आधारित दंभ से बाहर नहीं निकल पाते।

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इन मजदूरों को धार्मिक वीज़ा, आर-1 वीज़ा के आधार पर अमेरीका में दाखिला मिला था। उनसे कहा गया था कि वे एम्बेसी में बताएं कि वे प्रशिक्षित कारीगर हैं। हालांकि दर्ज़ मुक़दमे के अनुसार उन्हें भारी पत्थर उठाना, क्रेन चलाना, गढ्ढे खोदना जैसे काम करवाए गए। न्यू जर्सी के न्यूनतम वेतन क़ानून के अनुसार 2019 में इसे बढ़ाकर 10 डॉलर प्रति घंटे किया गया था और फिर साल 2020 में 11 डॉलर। ये हर साल एक डॉलर की दर से बढ़ते हुए साल 2024 तक 15 डॉलर प्रति घंटे हो जाएगा। इसके अलावा अमरीका के क़ानून के अनुसार घंटे के हिसाब से काम करने वाले व्यक्ति अगर सप्ताह में 40 घंटे से अधिक काम करते हैं उन्हें वेतन 1.5 गुना ज्यादा दिया जाना चाहिए।

श्रमिका द्वारा दर्ज़ किए गए मुक़दमे में बताया गया है कि मजदूरों पर नज़र रखी जाती थी ताकि वे किसी बाहरी व्यक्ति से शिकायत न कर सकें। उन्हें पैसे काट लेने, और गिरफ्तार करवा दिए जाने का डर दिखाया जाता था। मालमे की जांच करने बीती 11 मई को एफबीआई के एजेंट्स मंदिर निर्माण स्थल पर पहुंचे। बीएपीएस के प्रवक्ता लेनिन जोशी ने इन आरोपों को खारिज़ कर दिया। स्वाति सावंत, न्यू जर्सी में रहने वाली प्रवासी मामलों की वकील का बयान न्यू यॉर्क टाइम्स में प्रकाशित किया गया है। वह कहती हैं, “उन्हें लगा था वे अच्छी नौकरी कर पाएंगे, अमरीका देख पाएंगे। उन्होंने नहीं सोचा था कि उनके साथ जानवरों या मशीनों जैसा व्यवहार किया जाएगा।” उन्होंने बताया कि वह मजदूरों को चुपचाप इकट्ठा करने और उनके लिए एक कानूनी टीम बनाकर उनकी मदद करने में भी शामिल रहीं।

यह मुक़दमा इस बात की पुष्टि करता है कि अमेरिका में ब्लैक लोगों के ख़िलाफ़ भेदभाव के बारे में बात करता भारतीय समुदाय अपने गिरेबां में झांकने से कतराता है। यह समुदाय अपनी संस्कृति की आड़ में जातिवादी व्यवहार अपनाने में शर्म महसूस नहीं करता। किसी भी भारतीय नागरिक या अन्य देशों में रहने वाले भारतीय समुदाय को जाति व्यवस्था में अपने बड़े स्थान का गर्व पालना और अपने से छोटी जातियों के शोषण को अपने जातिगत अधिकार मान लेना उनके मानवाधिकारों का हनन है।

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तस्वीर साभार : NYT

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