बीते शुक्रवार को जब हमलोग अपनी संस्था के माध्यम से बनारस के सेवापुरी ब्लॉक के तेंदुई गाँव की वनवासी बस्ती के बच्चों के बीच राहत सामग्री वितरित करने पहुचें तो वहाँ पहले से मौजूद गाँव के एक तथाकथित ऊँची जाति के आदमी राहत सामग्री वितरण को रोकने के लिए धमकी और आपत्तिजनक टिप्पणी करने लगा। इसके बारे में वनवासी बस्ती के लोगों ने बताया कि आपलोग हमलोगों की मदद के लिए आए है इसलिए ये ऐसा कर रहा है। ये नहीं चाहते कि हमलोगों को भी बुनियादी अधिकार मिले। वहीं दूसरी तरफ़ सोशल मीडिया में आए दिन दलित व वंचित तबकों की वकालत करने वाले ढ़ेरों लोग अपने पूरे समय और मोबाइल के डेटा पैक को झोंकते मिलते है। पर ज़मीन तक पहुँचने और बुनियादी अधिकारों को सरोकार से जोड़ने की दिशा में दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं पड़ता है।
कोरोना महामारी के इस दौर में सरकार की तरफ़ से जुमलों के बीच कुछ पहल की गयी, लेकिन वो पहल ग्रामीण क्षेत्रों में वंचित व दलित समुदायों तक पहुँचने के लिए कितनी कारगर है, इसपर कोई बात तो क्या सोचने तक को तैयार नहीं है। पिछले साल सरकार की तरफ़ से आरोग्य सेतु ऐप की पहल की गयी, जिसके माध्यम से लोगों तक कोरोना संबंधित जानकारी और आसपास कोरोना संक्रमण की अपडेट देने का काम शुरू किया गया और इस साल टीकाकरण के लिए ऑनलाइन रेजिस्ट्रेशन। इतना ही नहीं, सरकारी व प्राइवेट स्कूलों में ऑनलाइन क्लास का भी कल्चर ख़ूब रहा, जिसने सिरे से वंचित तबकों को फिर से हाशिए पर खड़ा कर दिया।
इंडियास्पेंड हिंदी में प्रकाशित एक खबर के अनुसार, गांव से आ रही खबरें और राज्य सरकार का गांवों पर अलग से ध्यान देना बताता है कि कोरोना अब उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में पैर पसार रहा है। 2011 की जनगणना के मुताबिक, उत्तर प्रदेश की 77.73 फ़ीसद आबादी गांव में रहती है, यानी 15.5 करोड़ से ज्यादा ग्रामीण आबादी है। हालांकि सरकार का दावा है कि गांवों में रैपिड रिस्पॉन्स टीम के माध्यम से लोगों की जांच हो रही है और उन्हें मेडिकल किट दी जा रही है। उत्तर प्रदेश सरकार के अपर मुख्य सचिव सूचना नवनीत सहगल ने 11 मई की प्रेस कॉन्फ्रेंस में बताया, “राज्य के 97 हजार राजस्व गांवों में लक्षणयुक्त लोगों की पहचान कर उनका कोविड टेस्ट किया जा रहा है और मेडिकल किट दी जा रही है।” सहगल के मुताबिक, लोगों की एंटीजन जांच हो रही है और संक्रमित पाए जाने पर पंचायत भवन, स्कूल, सरकारी इमारतों में आइसोलेट कर उपचार किया जा रहा है।
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गांव से आ रही खबरें और राज्य सरकार का गांवों पर अलग से ध्यान देना बताता है कि कोरोना अब उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में पैर पसार रहा है। 2011 की जनगणना के मुताबिक, उत्तर प्रदेश की 77.73 फ़ीसद आबादी गांव में रहती है, यानी 15.5 करोड़ से ज्यादा ग्रामीण आबादी है। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में अप्रैल के महीने में ही पंचायत चुनाव हुए हैं। यह वह वक्त था जब राज्य में कोरोना के मामले तेजी से बढ़ रहे थे। ऐसे में पंचायत चुनाव की वजह से ग्रामीण इलाकों तक कोरोना का संक्रमण पहुंच गया और अब लोगों के खांसी, बुखार और सांस लेने में तकलीफ से मौत की खबरें आ रही हैं। पंचायत चुनाव कितना घातक साबित हुआ इसका अंदाजा ऐसे लगा सकते हैं कि चुनाव ड्यूटी में लगे करीब 1600 कर्मचारी कोरोना से जान गंवा चुके हैं, उत्तर प्रदेश शिक्षक संघ के मुताबिक।
सच्चाई यही है कि आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में समाज के हाशिए पर बसे समुदायों के लिए अपने मानवाधिकार सुनिश्चित और सुरक्षित कर पाना बड़ी चुनौती है।
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 11 मई को जारी आंकड़ों के मुताबिक, 24 घंटे में करीब 2.33 लाख सैंपल की जांच की गई, इसमें से करीब 1.10 लाख जांच आरटी-पीसीआर के माध्यम से हुई। हालांकि इसमें से कितनी जांच ग्रामीण क्षेत्रों में हुई इसका अलग से कोई आंकड़ा नहीं है। राज्य में जिला स्तर और फिर राज्य स्तर पर कोरोना के आंकड़े जारी होते हैं। ये सभी कुछ ऐसे सरकारी कमियाँ है जो तेज़ी से सही-ग़लत आँकड़ों के रूप में सरकारी काग़ज़ पर रखे जा रहे है, जो इन्हें बेहद सहजता से विश्वसनीय होने का रंग दे देते है।
अब सवाल ये भी है कि जब हम आरोग्य सेतु ऐप या फिर टीकाकरण के लिए ऑनलाइन रेजिस्ट्रेशन की बात करते है तो हम ये क्यों भूल जाते है कि आज भी देश के हर गाँव-शहर और परिवार में स्मार्टफ़ोन उपलब्ध नहीं है, ऐसे में सीधे से ग्रामीण क्षेत्रों एक आर्थिक रूप से कमजोर वंचित समुदाय के लोग सरकार की इन सभी सुविधाओं से काफ़ी पीछे छूट जा रहे है। ऐसा लगता है जैसे ये समाज के किसी एक विशेषाधिकारी वर्ग के लिए तैयार की गयी नीतियाँ है। क्योंकि सच्चाई यही है कि आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में समाज के हाशिए पर बसे समुदायों के लिए अपने मानवाधिकार सुनिश्चित और सुरक्षित कर पाना बड़ी चुनौती है। उन्हें आज भी जाति और वर्ग के स्तर पर सबसे निचले पायदान पर होने का भुगतान अपने मानवाधिकारों की आहुति देकर करना होता है और दुर्भाग्यवश इन समुदायों से ताल्लुक़ रखने वाले लोग जा किसी भी तरह की संसाधन, अवसर या सत्ता तक अपनी पहुँच बनाते है तो वे भी सीधेतौर पर ब्राह्मणवादी सोच का शिकार हो जाते है, जो सरोकार की बजाय आभासी दुनिया को प्राथमिकता देने जुट जाता है। ज़ाहिर है इसका ख़ामियाजा सीधे से समुदायों को झेलना पड़ता है, क्योंकि उनकी समस्याएँ और उनके पहलू कभी भी उज़गार नहीं हो पाते। कोरोना महामारी के बीच भी ज़ारी जाति और वर्ग के इस संघर्ष से ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को ढ़ेरों परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।
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तस्वीर साभार : navbharattimes