अगर हम मीडिया में पीरियड्स की कवरेज को देखें तो पाएंगे कि आज भी ये पितृसत्तात्मक विचारों से भरपूर दिखाई पड़ती है। पीरियड्स को हमारा समाज आज भी स्वास्थ्य से जुड़ा एक मुद्दा नहीं मानता। पीरियड्स की कवरेज को अक्सर प्रजनन से ही जोड़कर देखा जाता है। कितनी बार आप सबके साथ भी शायद ऐसा हुआ हो जब आप पीरियड्स से संबंधित अपनी किसी स्वास्थ्य समस्या को लेकर डॉक्टर के पास जाएं और डॉक्टर सलाह दे, “शादी कर लो, सब ठीक हो जाएगा।” ऐसा इसलिए क्योंकि पीरियड्स से जुड़ी स्वास्थ्य सेवाओं, उस तक लोगों की पहुंच, बीमारियों, नीतियों आदि सभी को महिलाओं के प्रजनन को ही केंद्र में रखकर की जाती है।
आप गूगल में कीवर्ड डालकर देखिए ‘पीरियड्स’ आपको ऐसे कई लेख मिल जाएंगे तो आपको पीरियड्स से जुड़ी परेशानियों के लिए घरेलू नुस्खे सुझाते नज़र आएंगे। इन लेखों में बमुश्किल ही आपको किसी डॉक्टर का बयान या नज़र आएगा। उदाहरण के तौर पर इस लेख को देखिए जिसमें बताया जा रहा है कि किस तरह पीरियड्स रोकने के लिए घरेलू नुस्खे अपनाए जा सकते हैं। बिना डॉक्टर की परामर्श लिए, बिना किसी ठोस आधार पर लिखे गए ऐसे लेख किसी की सेहत के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं। ऐसे लेख समाज की उसी समझ का नतीजा हैं जो बताती है कि पीरियड्स एक गंभीर मुद्दा नहीं है।
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पीरियड्स पर भारतीय मीडिया की कवरेज में दूसरी बड़ी कमी जो दिखती वह यह है कि पीरियड्स को सिर्फ और सिर्फ महिलाओं का मुद्दा माना जाता है। हमारी सोच आज भी उसी धारणा पर टिकी है कि पीरियड्स सिर्फ महिलाओं को होता है जबकि तथ्य यह है कि पीरियड्स जितना महिलाओं का मुद्दा है, उतना ही ट्रांस समुदाय और नॉन-बाइनरी पर्सन्स का भी। हालांकि, भारतीय मीडिया द्वारा पीरियड्स पर होनेवाली कवरेज में शायद ही कभी इन समुदायों का ज़िक्र आता है। ऐसा न होने की वजह से ये समुदाय हमेशा स्वास्थ्य संबंधी नीतियों और सेवाओं में पीछे छूट जाते हैं। ऐसे कई पूर्वाग्रह से हमारा मीडिया लबरेज है। पैड के विज्ञापनों में लाल रंग की जगह नीला या गुलाबी रंग दिखाना उनमें से एक है।
पीरियड्स की कवरेज से जुड़े ऐसे ही कई पूर्वाग्रहों को खत्म करती नज़र आती है बूंद संस्थान द्वारा बीते 16 अप्रैल को जारी की गई टूलकिट- पीरियड्स और पत्रकार। इस टूलकिट के ज़रिये बूंद का उद्देश्य पीरियड्स पर संवेदनशील, नैतिक और समावेशी कवरेज को बढ़ावा देना है। इस टूलकिट को बनाने के दौरान हाशिये पर गए समुदायों, पत्रकारों और महावारी स्वास्थ्य एवं स्वच्छता से संबंधित पेशेवरों का सर्वे किया गया है। साथ ही इसे बनाने के दौरान जनवरी 2018 से लेकर जून 2020 तक प्रकाशित हुए छह मीडिया संस्थानों के 263 आर्टिकल्स का अध्ययन किया गया है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि 30 महीने के इस अंतराल में 6 मीडिया संस्थानों ने सिर्फ पीरियड्स संबंधित मुद्दों पर 263 लेख ही प्रकाशित किए। अध्ययन यह भी बताता है कि इनमें से 85 फीसद लेख ऐसे थे जिनमें पीरियड्स के मुद्दे पर महत्वपूर्ण या नए विचार नहीं शामिल थे, जबकि सिर्फ 9 फीसद लेख ही ऐसे थे जिनमें पीरियड्स से संबंधित आंकड़ों का ज़िक्र किया गया था।
पीरियड्स पर रिपोर्टिंग या लेख लिखते वक्त हम उसे कैसे संवंदेशनशील बना सकते हैं इसके लिए बूंद की इस टूलकिट में निम्नलिखित सुझाव दिए गए हैं, जिन्हें अपनाकर पीरियड्स पर होनेवाली कवरेज को संवेदनशील और समावेशी बनाया जा सकता है।
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1- लेख/रिपोर्ट में आंकड़ों का इस्तेमाल
पीरियड्स से जुड़े मुद्दों, उससे जुड़े प्रॉडक्ट्स और स्वास्थ्य सेवाओं तक लोगों की पहुंच से जुड़े आंकड़े हम किसी रिपोर्ट में खोजते हैं तो बेहद कम ही ऐसा होता है जहां हमें इनसे संबंधित आंकड़े दिखाई दें। पीरियड्स और उससे जुड़े मुद्दों पर लिखते वक्त आंकड़ों का इस्तेमाल उस रिपोर्ट को विश्वसनीय बनाता है।
2- समावेशी भाषा का इस्तेमाल
जैसा कि हमने अपने लेख की शुरुआत में कहा था कि पीरियड्स को सिर्फ और सिर्फ महिलाओं का मुद्दा मानने से ट्रांस और नान-बाइनरी समुदाय के लोग हाशिये पर चले जाते हैं। हमें अपने लेख में ऐसी भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए जिससे पाठकों को यह पता चले कि पीरियड्स सिर्फ महिलाओं से संबंधित नहीं है। समावेशी भाषा की तरफ हम तभी अपने कदम बढ़ा पाएंगे जब हम इस बात को समझेंगे कि न सभी महिलाओं को पीरियड्स होता है, न सिर्फ महिलाएं को ही पीरियड्स होता है। इसी सोच के कारण मौजूदा कवरेज में ट्रांस और नॉन-बाइनरी समुदाय का पक्ष गायब नज़र आता है।
3- विशेषज्ञों का पक्ष जोड़ना
अक्सर पीरियड्स और उससे जुड़े मुद्दों पर आधारित लेखों में हमेशा ही विशेषज्ञों का पक्ष गायब रहता है। हमारे समाज में पीरियड्स को एक टैबू ही माना जाता है। लोग इससे जुड़ी परेशानियों पर बात नहीं करते, ऐसे में उनके कई सवालों के जवाब नहीं मिल पाते। ऐसे में लेखों के माध्यम से विशेषज्ञों की बात पहुंचाना एक महत्वपूर्ण ज़रिया हो सकता है।
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4- पीरियड्स से जुड़े मुद्दों पर भड़काऊ शीर्षकों, तस्वीरों का इस्तेमाल न करना
पीरियड्स एक गंभीर स्वास्थ्य मुद्दा है। इसके आयाम पूरी तरह सामाजिक होने के साथ-साथ आर्थिक और राजनीतिक भी हैं। इसलिए ऐसे मुद्दों को कवर करते वक्त इनके साथ भड़काऊ शीर्षक या तस्वीरों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।
5- खबरों का फॉलोअप
पीरियड्स को हमारे समाज में गंभीर स्वास्थ्य मुद्दों की श्रेणी में नहीं रखा जाता, इसलिए आपने शायद ही पीरियड्स पर की गई किसी स्टोरी का फॉलो-अप होता देखा हो। लेकिन ऐसी रिपोर्ट्स का फॉलो-अप होना ज़रूरी है ताकि यह पता चल सके कि क्या बदलाव ज़मीनी स्तर पर आ रहे हैं।
6-पीरियड्स से जुड़ी सेवाओं तक लोगों की पहुंच पर बात करना ज़रूरी
पीरियड्स सिर्फ एक जैविक प्रक्रिया नहीं है, यह इस पर भी निर्भर करता है कि एक व्यक्ति के पास पीरियड्स प्रॉडक्ट्स जैसे पैड, टैंपन आदि तक पहुंच है कि नहीं, उसके पास साफ-सफाई के लिए पानी, बाथरूम जैसी सुविधाएं हैं या नहीं। जितना ज़रूरी पीरियड्स को कवर करना है, उतना ही ज़रूरी इन मुद्दों पर ध्यान देना भी।
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7- कार्यस्थलों पर पीरियड्स को लेकर हो रही चर्चाओं को कवर करना
हाल ही में ज़ोमैटो ने जब अपने कर्मचारियों के लिए पीरियड्स लीव की घोषणा की तो इस पर एक बहस छिड़ गई कि यह लीव दी जानी चाहिए या नहीं। ऐसे में मीडिया की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वह कार्यस्थल और पीरियड्स पर मौजूद नीतियों, नियमों और फैसलों से जुड़े मुद्दों को भी कवर करे।
इसके अलावा बूंद द्वारा इस टूलकिट में पीरियड्स कवरेज लेकर कई अन्य महत्वपूर्ण सुझाव दिए गए हैं जिनमें व्यापक पीरियड्स की पारिस्थितिकी को कवर करने, आपदा प्रभावित क्षेत्रों में पीरियड्स से जुड़े मुद्दे, सिस-हेट मर्दों के सेवियर कॉम्प्लेक्स, लेख और रिपोर्ट्स में संदर्भ देने और समावेशी कार्यस्थल बनाने जैसे सुझाव दिए गए हैं। इन सुझावों को आप विस्तृत रूप से बूंद की इस टूलकिट में पढ़ सकते हैं। इन सुझावों का पालन करते हुए, इन्हें समझते हुए पीरियडस् की कवरेज को समावेशी बनाने की ओर कदम उठाया जा सकता है।
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तस्वीर : गूगल