हाल ही में केरल विधानसभा चुनावों में लगातार दूसरी बार पिनरई विजयन के नेतृत्व में वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएफ) को जीत मिली है। जीत के साथ ही दूसरे सत्र के लिए नई कैबिनेट घोषित की गई है, जिसमें पुराने मंत्रियों को हटाकर नए सदस्य शामिल किए गए हैं। इस नए मंत्रिमंडल में पूर्व स्वास्थ्य मंत्री और टीचर अम्मा के नाम से मशहूर के.के शैलजा को शामिल नहीं किए जाने को लेकर एक विवाद उठ खड़ा हुआ। इस बारे में, एक ओर जहां पार्टी और उसके समर्थक पार्टी विचारधारा की बात करते हुए कहते हैं कि व्यक्ति नहीं बल्कि व्यवस्था महत्वपूर्ण है। वहीं दूसरी ओर टीचर अम्मा के समर्थक व अन्य नेता इस बात से काफ़ी निराश हुए हैं।
मुद्दे की गंभीरता समझने के लिए मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य का अध्ययन और शोध करने पर मालूम हुआ कि भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी उनकी आबादी के अनुपात के मुक़ाबले बहुत कम है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) के मुताबिक़ भारत के सभी राज्यों की विधानसभाओं में मात्र 9 प्रतिशत महिला विधायक हैं। साथ ही, यह जानना त्रासद है कि भारत जैसी बड़ी आबादी वाले देश की 49 प्रतिशत आबादी देश के लिए बनने वाले कानूनों में हस्तक्षेप करने की क्षमता न के बराबर रखती है। साल 2019 के चुनावों में पहली बार संसद में 14 प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी ने अपनी मौजूदगी दर्ज करवाई। ये आंकड़े सामाजिक-आर्थिक कैनवास पर महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव और शोषण के कारणों को साफ तौर पर सामने लाने के लिए काफ़ी हैं। यहां सवाल आता है कि अलग-अलग संरचनागत ढांचों और उद्देश्यों को लेकर चलने वाली राजनीतिक विचाधाराओं में क्या इस परिस्थिति विशेष में कुछ अंतर मिलता है भी या नहीं। मसलन, भारतीय धरातल पर रूढ़िवाद, पिछड़ेपन और शोषण की आलोचना करती और जनमानस के समक्ष एक पृथक व्यवस्था के विकल्प को रखती वामपंथ की राजनीति की अपनी प्रकृति क्या महिलाओं के लिए पर्याप्त अवसर मुहैया कराती है?
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प्रतिनिधित्व का सवाल
किसी भी व्यवस्था के चरित्र का आंकलन किए जाने पर उस समाज के सभी वर्गों के प्रतिनिधित्व का मसला महत्वपूर्ण हो जाता है। मोटे तौर पर, दक्षिणपंथ की राजनीति की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि उसमें पिछड़े, शोषितों और अल्पसंख्यकों के लिए कोई जगह नहीं है। ऐसे में, अगर किसी देश की आबादी में अलग-अलग स्तरों की पहचानें सिमटी हुई हैं तो वहां शक्तिशाली और प्रभावी व्यक्ति, समुदाय या समाज का समर्थन करने वाली विचारधारा हमेशा शोषक ही बनी रहेगी। भारतीय समाज में आज़ादी के बाद से कमोबेश यही ढर्रा चला आ रहा है। परंपरा में अपनाई गई चीज़ें चलती रही हैं और उसी का नतीज़ा है कि पहले आम चुनावों (1952) से लेकर 2019 तक, संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 5 प्रतिशत से बढ़कर 14 प्रतिशत ही हो पाया है। ऐसे में, वामपंथ की राजनीति, जो प्रगतिशीलता की बात करती है, सामाजिक न्याय के सिद्धांत को लेकर चलने की बात करते हुए शोषणकारी व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की बात करती है, उसमें महिलाओं को केंद्र में रखकर उनके प्रतिनिधित्व का सवाल तलाशना ज़रूरी हो जाता है।
मुख्यधारा की जिस राजनीति की आलोचना करते हुए वामपंथ सामाजिक न्याय, लैंगिक, वर्गीय और जातीय विभेद को खत्म करने की बात करता है, क्या सच में व्यवहारिक स्तर पर उसका अनुपालन हो रहा है, अगर होता तो पोलित ब्यूरो से लेकर मुख्यमंत्री पद तक इतना बड़ा अंतर कैसे मौजूद रहता।
लेकिन, भारत में वामपंथ की विचारधारा लेकर चलने वाली प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के पोलित ब्यूरो, जो दल के नीति-निर्धारण में केंद्रीय भूमिका अदा करने वाली समिति है, के सदस्यों की संख्या देखें तो समाजवाद के समानता रूपी विचार छिछले लगने लगते हैं। जैसे, भाकपा (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी- CPI) की पॉलित ब्यूरो में 31 सदस्य हैं जिनमे से केवल एक महिला है। वहीं, कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी (CPI-M) में सत्रह सदस्यों में मात्र दो महिलाएं हैं। इसी तरह, कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी (CPI- ML) की केंद्रीय समिति में भी सत्रह में से केवल एक ही महिला है। ऐसे में, जहां बुनियादी स्तर पर ही इतना बड़ा अंतर देखने को मिल रहा हैं, वहां समाज में, वृहद स्तर पर बनने वाली नीतियां कैसे लैंगिक रूप से समान होंगी और सामाजिक न्याय की अवधारणा तय करने में महिलाओं का कितना योगदान होगा, यह सोचने वाली बात है।
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गौरी अम्मा से के.के शैलजा तक
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी आज़ादी के पहले से भारत में सक्रिय है। हालांकि इसे गति 1947 के बाद मिली। उस दौरान इसने महिलाओं के लिए सामाजिक समानता, सभी वयस्कों को मतदान का अधिकार और हाशिये पर गई जातियों के लिए सामाजिक न्याय की मांग ज़ोरदार तरीक़े से उठाई। वामपंथी दलों की पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में सरकारें बनीं। इसमें ध्यान देने वाली बात ये है कि इतने समय तक बनने वाली सरकारों में एक भी महिला मुख्यमंत्री नहीं रही। इसी बीच सबसे बड़ा विवाद गौरी अम्मा को लेकर उठा था, जो एक कद्दावर महिला नेता थीं और उन्हें मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में देखा जा रहा था। के. आर गौरी जिन्हें गौरी अम्मा कहकर संबोधित किया जाता था, ने ईएमएस नंबूदरीपाद की कैबिनेट में राजस्व मंत्री रहते हुए भू-सुधार की दिशा में ऐतिहासिक भूमिका निभाई थी। केरल की जनता के बीच गौरी अम्मा की लोकप्रियता वैसी ही थी, जैसी आज के. के शैलजा यानी शैलजा टीचर की है। ‘पार्टीलाइन’ के विरुद्ध जाने पर गौरी अम्मा को दल से निकाल दिया गया था, संभव है इसीलिए शैलजा टीचर दल के निर्णय को सर्वोपरि रखती हो। यहां दूसरी बात समझनी ज़रूरी है, जो लगातार कही जा रही है। वह है कि दल और विचारधारा महत्वपूर्ण है व्यक्ति नहीं।
इसके अलावा इस प्रसंग में सफाई देते हुए कहा जा रहा है कि केवल शैलजा नहीं हटाई गई हैं, पूरी कैबिनेट बदलकर नए मंत्री शामिल किए गए हैं। यदि ऐसा है तो पिछला मुख्यमंत्री क्यों नहीं बदला गया है। इसके साथ ही हमेशा एक महिला को हटाने की शर्त पर दूसरी महिला को जगह क्यों दी जाए। क्या वामपंथ समाज और राजनीति में महिलाओं की भागीदारी के आंकड़ों से अवगत नहीं है? मुख्यधारा की जिस राजनीति की आलोचना करते हुए वामपंथ सामाजिक न्याय, लैंगिक, वर्गीय और जातीय विभेद को खत्म करने की बात करता है, क्या सच में व्यवहारिक स्तर पर उसका अनुपालन हो रहा है, अगर होता तो पोलित ब्यूरो से लेकर मुख्यमंत्री पद तक इतना बड़ा अंतर कैसे मौजूद रहता।
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मुख्यधारा की राजनीति, वामपंथ और महिलाएं
के.के शैलजा को कैबिनेट से बाहर करने के निर्णय को न्यायसंगत ठहराने के लिए एलडीएफ की ओर से तर्क दिया जा रहा है कि वे नए चेहरों को मौका दे रहे हैं और एक महिला की जगह तीन महिलाओं को शामिल किया गया है। हालांकि अलग-अलग वामपंथी दलों में शामिल महिलाएं इन तर्कों से असंतुष्ट हैं। हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट में इस बारे में बात करते हुए सीपीआई एम. एल की पोलित ब्यूरो सदस्य कविता कृष्णन कहती हैं, “दिया जा रहा तर्क दल की लैंगिक दृष्टिहीनता दर्शाता है।” उनका मानना है कि नए चेहरे का तर्क महिलाओं के संबंध में कहीं नहीं ठहरता और 21वीं सदी के वामपंथी संगठन की ओर से इस दिशा में वे इससे बेहतर किए जाने की उम्मीद कर रही थीं। वहीं, सीपीआई एम-एल की केंद्रीय समिति सदस्य सुचेता डे इस पूरी घटना को एक बड़े परिदृश्य पर देखती हैं। वे कहती हैं कि जिस तरह समाज में औरतों को अपनी आवाज़ उठाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, लेफ़्ट के भीतर भी वही हालात हैं। जिस तरह समाज में शक्तिशाली पदों या भूमिकाओं में औरतों की मौजूदगी न्यूनतम हैं, ठीक उसी तरह वाम दलों के भीतर भी वे कम हैं। इस पूरे मुद्दे को देखते हुए स्पष्ट हो जाता है कि पार्टी के सदस्य और नेतृत्वकर्ता इसी समाज के भाग हैं और समाज मे निहित पितृसत्त्ता से वामपंथ अछूता नहीं है।
दरअसल महिलाएं मुख्यधारा की राजनीति में हमेशा से उपेक्षित रही हैं। नए लोगों के शामिल करने के आधार पर महिलाओं से उनका हक़ नहीं छीना जा सकता। बताते चलें कि हालिया केरल विधानसभा चुनावों में के.के शैलजा ने 60,000 से अधिक वोटों से जीत हासिल की है। जीत में इतना बड़ा किसी अन्य उम्मीदवार को नहीं मिला है। ऐसे में एक महिला के प्रयासों के परिणाम को दल की तय वैचारिकी, जिसको तय करने में भी महिलाओं की भागीदारी न के बराबर है, उसे सीमित कर देना एक समुदाय के रूप में उसकी उपेक्षा ही है। के. के शैलजा का मामला भारतीय वामपंथ के भीतर निहित पितृसत्त्ता के अनेकों उदाहरणों में से एक है। एक ऐसी विचारधारा जो सभी रूढ़ियों को तोड़कर सामाजिक न्याय की स्थापना की बात करती है, दलीय राजनीति की व्यवहारिकता में उसके लूपहोल भी साफ तौर पर उजागर हो जाते हैं। हालांकि इसमें सुधार के अवसर दिखते हैं क्योंकि राजनीति में संलग्न महिलाएं न केवल इन समस्याओं से अवगत हैं, बल्कि खुलकर इसकी आलोचना करते हुए यह बताती हैं कि उन्हें अपने अधिकार मालूम है और उनको प्राप्त करने के लिए वे लगातार संघर्षरत हैं।
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तस्वीर साभार : The News Minute