हमलोगों के परिवार में हमेशा से ही लड़कियों और महिलाओं को शर्म करना और मर्यादा में रहना सिखाया जाता है। यही वजह है कि हमारी मीडिया में भी महिलाओं को सुंदरता की मूरत जैसा दिखाया जाता है। महिलाओं को कभी मां तो कभी पत्नी जैसी अलग-अलग भूमिकाओं से उनके कर्तव्यों की भी खूब चर्चा और महिमामंडन किया जाता है लेकिन एक इंसान के तौर पर महिलाओं की ज़रूरतों को पूरा करने और उन्हें बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध करवाने से हमेशा हमारा समाज मुंह चुराता है। इन्हीं ज़रूरतों में से एक बुनियादी ज़रूरत है शौचालय। मौजूदा सरकार ने घर-घर शौचालय के लिए काफ़ी बड़ी योजना शुरू की। ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ घरों में इसकी वजह से शौचालय का निर्माण भी हुआ। सभी तो नहीं पर कुछ परिवारों ने इसका इस्तेमाल भी करना शुरू किया लेकिन इसके बावजूद ज़्यादातर परिवारों में महिलाओं की स्वच्छता का सवाल अभी भी जैसा का तैसा ही है।
रूपापुर गांव की रहने वाली मधु (बदला हुआ नाम) कोरोना महामारी से पहले अपने पति और बच्चे के साथ मुंबई में रहती थी। उसका पति वहां ऑटो चलाता था। लेकिन पिछले साल लॉकडाउन लगने के बाद उसको वापस अपने गांव रूपापुर लौटना पड़ा। तीन देवरानी-जेठानी, सास-ससुर और बच्चों को मिलाकर कुल बारह लोगों के परिवार में एक शौचालय है। जब एक दिन मैं उस गांव में महिलाओं के साथ बैठक करने गयी तो मधु ने भी इस बैठक में हिस्सा लिया। हमलोगों ने उस दिन स्वच्छता के मुद्दे पर बात की तो मधु ने बताया, “दीदी जब से हम वापस गांव में आए हैं, हमें इंफ़ेक्शन की दिक्कतें होने लगी हैं। पीरियड्स के समय जो दिक़्क़त होती है वह तो है ही और बाक़ी दिन पेशाब में जलन की समस्या के परेशान हैं।” उसने आगे बताया कि शौचालय घर से बाहर एकदम सामने बना हुआ है। उसके ससुर और जेठ हमेशा वहीं बैठे रहते हैं। इसलिए पेशाब लगने पर मधु को उनके हटने का इंतज़ार करना पड़ता है। वह आगे बताती है, “शुरुआत में जब एक-दो बार मैं शौचालय गई तो मेरी सास और जेठानी ने मुझे खूब बुरा-भला कहा और अब जब पेशाब लगने पर उनका इंतज़ार करती हूं तो पेशाब में जलन की समस्या होने लगती है। इससे बचने के लिए मैंने पानी पीना कम किया तो डायरिया की दिक़्क़त होने लगी।”
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मधु की बात सुनने के बाद सभी महिलाओं ने बारी-बारी से अपनी समस्याओं के बारे में बताना शुरू किया। मैंने खुद अपने घर में इस समस्या का सामना किया है। महिलाओं ने बताया कि ये शौचालय बनने के बाद, उनकी दिक़्क़तें और बढ़ गई हैं क्योंकि वह अब कहीं भी बाहर नहीं जा पाती हैं। राह चलते लोग, आसपास वाले और घरवाले भी गलती से खेतों में पेशाब के लिए जाने पर ताने मारते हैं। क़रीब अधिकतर घरों में शौचालय को घर के सामने ‘इज़्ज़त घर’ के नाम से बनवा दिया गया है, जहां हमेशा घर के बड़े-बूढ़े बैठे रहते हैं और उनके सामने शौचालय का इस्तेमाल करना अपनी शामत आने जैसा रहता है। इज़्ज़त घर के नाम से बना ये शौचालय वास्तव में महिलाओं अधिकार की ज़रा भी इज़्ज़त नहीं कर पा रहा है। गांव की किशोरियां भी लगातार पीरियड के समय इन समस्याओं का ज़िक्र करती हैं कि पीरियड्स के समय उनके पैड बदलने के लिए शौचालय के इस्तेमाल के बारे में सोचना पड़ता है। दूसरी बड़ी समस्या इसकी सफ़ाई की भी है। बड़े परिवार में शौचालय की नियमित सफ़ाई की ज़रूरत भी होती जो परिवार में हो ही नहीं पाती है। लिहाज़ा महिलाओं और किशोरियों को अलग-अलग इंफ़ेक्शन जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
क़रीब अधिकतर घरों में शौचालय को घर के सामने ‘इज़्ज़त घर’ के नाम से बनवा दिया गया है, जहां हमेशा घर के बड़े-बूढ़े बैठे रहते हैं और उनके सामने शौचालय का इस्तेमाल करना अपनी शामत आने जैसा रहता है। इज़्ज़त घर के नाम से बना ये शौचालय वास्तव में महिलाओं अधिकार की ज़रा भी इज़्ज़त नहीं कर पा रहा है।
राने गांव की रहने वाली बबिता (बदला हुआ नाम) बताती हैं, “कहने को तो हमारे घर में गांव में अब शौचालय बन गया है, लेकिन ये इतना छोटा है कि ये सिर्फ़ शौच के लिए ही है। नहाने के लिए इसमें कोई व्यवस्था नहीं है लिहाज़ा हमलोगों को अभी भी कुंए, नहर या फिर कई बार घर में पर्दा डालकर नहाना पड़ता है। ऐसे में हमलोगों को कपड़े पहने हुए ही नहाना पड़ता है। आसपास पुरुष हमेशा ही मौजूद रहते हैं इसलिए हमलोग उनके सामने नहाने में सहज नहीं रहते है पर इससे हमलोग अच्छे से नहा भी नहीं पाते हैं और सबसे ज़्यादा समस्या हमलोगों को पीरियड के समय होती है। हम अपने गुप्तांगों की सफ़ाई नहीं कर पाते इससे बहुत सारी दिक़्क़त होती है।” वहीं, देईपुर गांव की ममता (बदला हुआ नाम) कहती हैं, “सरकार का ये इज़्ज़त घर न तो हमलोगों को इज़्ज़त से शौच करने की आज़ादी दिलवा पाया और न नहाने की लेकिन इसने घरवालों खासकर पुरुषों को अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ना खूब सीख़ा दिया है। पुरुष अब सीधे कहते हैं कि एक शौचालय तो बन गया उसी में नहाओ जबकि ख़ुद वे बाहर शौच और नहाने के लिए जाते हैं।”
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ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं और किशोरियों के लिए सुरक्षित और स्वच्छ शौचालय अभी भी एक बड़ी और बुनियादी समस्या है। इसके चलते महिलाएं अपना आधा से ज़्यादा जीवन तमाम तरफ़ के इंफ़ेक्शन के साथ गुज़ारने को मजबूर रहती हैं। कई बार ये इंफ़ेक्शन इतने विकराल हो जाते हैं कि ये बच्चेदानी में कैंसर का रूप भी ले लेते हैं। अब हमलोग पीरियड्स और पैड पर बात करना सीख गए लेकिन पैड के लिए पैंटी की बात से अभी भी हमलोग मुंह चुराते हैं। ठीक उसी तरफ़ शौचालय योजना के बाद बने शौचालय तक महिलाओं की पहुंच से मुंह चुराते हैं। वास्तविकता यही है कि अभी भी हमलोगों के परिवारों में महिलाओं के स्वास्थ्य, सुरक्षा और अधिकार के किसी भी मुद्दे को तो अहमियत नहीं दी जाती है। अब जब घर से ही महिलाओं को इन मुद्दे के बारे में बात करने से चुप करवा दिया जाता है तो भला ये बातें वे कैसे किसी योजना बनाने वाले तक पहुंचा पाएंगी। यही वजह है कि जब हमारे घरों में महिलाओं के लिए शौचालय के मुद्दे को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी जाती है इसलिए सार्वजनिक जगहों ख़ासकर गांव में महिला शौचालय गिने-चुने हैं। यात्रा के दौरान या किसी भी सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं को ठीक वैसे ही शर्मिंदा होना पड़ता है, जैसे वे घर में होती है।
इतना ही नहीं, गांव में अक्सर कई औरतें कहती हैं कि फ़लां की बहु या बेटी देखो एक़बार शौचालय जाती है फिर शौचालय का मुंह भी नहीं देखती है। जैसे शौचालय न जाना बहुत गर्व की बात है पर हम कभी नहीं पूछते और न जानना चाहते है कि क्या पता वह बहु या बेटी शर्म के कारण और ‘आदर्श बेटी-बहु’ बनने के दबाव में पानी कम पीती हो या फिर घंटो पेशाब को रोके रहती हो। हो सकता है बड़े-बड़े सवालों और बहसों से बीच आपको ये मुद्दा बहुत मामूली या कम ज़रूरी लगे। अगर आपको ऐसा लगता है तो आप इस बात को स्वीकार करिएगा कि आप विशेषाधिकार से लैस हैं। आपने कभी शौचालय की कमी में किसी भी समस्या का सामना नहीं किया होगा। कोरोना महामारी के इस दौर में जब हर तरफ़ स्वच्छता और स्वास्थ्य की बात हो रही है तो ये उसका एक बुनियादी मसला है, जिसपर चर्चा और काम करने की ज़रूरत है। अब ये बहुत ज़रूरी है कि सरकारें अपनी हर योजना में महिलाओं तक उस योजना की पहुंच को भी सुनिश्चित करें, वरना इज़्ज़त घर सिर्फ़ नाम का होगा और महिलाओं के शौचालय का मुद्दा हमेशा जस का तस रहेगा।
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