हर साल 28 मई को ‘वर्ल्ड मेंस्ट्रुअल हाइजीन डे’ मनाया जाता है। इसका उद्देश्य महिलाओं/किशोरियों को पीरियड्स के दिनों में स्वच्छता के प्रति जागरूक करना है। हमारे देश में अधिकतर महिलाओं को पीरियड्स से संबंधित बीमारियों का सामना करना पड़ता हैं लेकिन अफसोस, इस देश में पीरियड्स एक टैबू का विषय है। इस बारे में परिवार और समाज में किसी भी तरह की स्वस्थ चर्चा नहीं की जाती है। शहरों में रहने वाली महिलाओं को शायद इतनी दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ता क्योंकि उनके पास संसाधनों की उपलब्धता रहती है लेकिन वहीं अगर बात करें दूरदराज से आने वाली ग्रामीण और वंचित तबकों की महिलाओं के बारे में तो इन्हें बहुत सी समस्याओं से जूझना पड़ता है। उचित संसाधनों के अभाव में वे अब भी परंपरागत तरीके से पीरियड्स और इसके समस्याओं का निदान करती हैं।
छत्तीसगढ़ में कई ऐसे भी समुदाय हैं जिनमें बेशक उत्पाद और जागरुकता का अभाव है लेकिन कई समुदाय ऐसे भी हैं जहां पीरियड्स कोई शर्म का विषय नहीं है, यह बस एक सतत् जैविक क्रिया है। कई समुदायों में पीरियड्स को लेकर अस्पृश्यता का भाव नहीं रखा जाता। वहीं कई जगह पीरियड्स को ‘लालफूल’ का दर्जा दिया गया। कहा जाता है कि पहले जब शादी के लिए लड़की देखने जाते हैं तब लड़की वालों से पूछा जाता, “क्या आपके घर का फूल परिपक्व हो चुका?” जवाब में यदि हां होता तब उचित समय आने के बाद शादी कर दी जाती है। जब पीरियड्स के दौरान इस्तेमाल होनेवाले उत्पादों की कमी होती थी तब उन्हें उनकी तकलीफ को देखते हुए 3–4 दिन तक ज्यादातर समय आराम करने को कहा जाता था, इसमें छुआछूत जैसा भाव नहीं रहता था।
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आदिवासी इलाकों में मौजूद पीरियड्स से जुड़े भ्रम
अब चीजें अब यहां बदल चुकी हैं। लोग यहां पर भी पीरियड्स के दिनों में छुआछूत जैसा बर्ताव करने लगें है। इसे अपवित्र,अशुद्धता की तरह देखा जाने लगा है। मेरे गांव के स्कूल में साथ पढ़ने वाले झमती को जब पीरियड्स आता तब उसके घर की बाकी महिलाओं के साथ ही उसके लिए भी कुछ नियम तय किए गए। पीरियड्स के दिनों में वह जमीन पर खत्री बिछाकर सोती। अगले चार दिनों तक रोज उसे अपने बिछावन को धोना पड़ता। घर में सारी सुविधाएं होने के बावजूद पीरियड्स में उसे तालाब में नहाने जाना पड़ता। नहाने के बाद पहनने वाले कपड़े पीछे से उसकी मां छोड़ आती। घर के बाकी पुरुषों के साथ बातचीत करना या उन्हें छूना सख्त मना था। यह सिलसिला आज भी जारी हैं।दादी और मां ने पीरियड्स को लेकर घर पर कुछ नियम बनाए हैं जिन्हें सभी का पालन करना अनिवार्य है लेकिन फिलहाल गांव से बाहर रहने की वजह से मैं ऐसी दकियानूसी बातों को बढ़ावा नहीं देती।
इसी तरह गांव की कई महिलाओं को अगर रात में भी पीरियड्स आता है तब वे आधी रात में भी पूरे बाल धोकर नहाती हैं। गांव का है यह ढकोसला वह शहरों में भी परंपरा के नाम पर बरकरार रखती हैं। आज भी यहां कई ऐसे गांव हैं जहां पर पीरियड्स के दिनों में गांव की सीमा पार विशेष तौर पर घास-फूस से बनी झोपड़ी बनी रहती है। यह सुविधायुक्त नहीं रहती बल्कि किसी जानवर के बाड़े की तरह दिखती है। वहां इन महिलाओं/किशोरियों को तीन से चार दिन तक उसी झोपड़ी में रहना पड़ता है। महिलाएं और लड़कियां इस दौरान शारीरिक रूप से पीड़ा तो सहती हैं साथ ही समाज और मौसम की दोहरी मार भी झेलनी पड़ती है। कभी-कभी बरसात के दिनों में सांप-बिच्छू काटने पर कईयों की जान भी गई है।
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छत्तीसगढ़ के बहीगांव में तैनात मितानिन (ग्रामीण क्षेत्रों में नियुक्त की गई स्वास्थ्य कर्मचारी) सत्या नेताम ने बताया कि कई ऐसे परिवार भी होते हैं जहां परिवार के पुरुषों की भागीदारी धार्मिक अनुष्ठान रीति-रिवाजों में होती है। उन घरों की महिलाओं/ किशोरियों के साथ अन्याय पूर्ण रवैया अपनाया जाता है। उन्हें एक कमरे में अलग से रखकर, वहीं पर खाना-पीना दिया जाता है। ऐसे घरों में जहां एक ही महिला सदस्य होती है उस घर की महिला को पीरियड्स के दिनों में भूखे तक रहना पड़ता है। शादीशुदा पुरुष की पत्नी को अगर पीरियड्स हो तो उसे ऐसे अनुष्ठानों में शामिल नहीं किया जाता। कई बुजुर्ग महिलाएं अपनी मान्यताओं को लेकर पैड्स इस्तेमाल करने के खिलाफ़ रहती हैं। उनका मानना है कि इस्तेमाल किए गए पैड्स को खुले में फेंकने कोई जादू-टोना कर देगा और घर की बहू-बेटियां बच्चे पैदा करने की क्षमता खो देंगी।
मुझे पीरियड्स के शुरुआत में किसी रूढ़िवादिता का अधिक सामना अपने घर पर नहीं करना पड़ा। जब पहली बार पीरियड्स आए तो उस दिन मैं बहुत चिढ़ी हुई थी। मां ने बहुत प्यार से समझाया इसके बारे में बताया। उन दिनों पैड्स मार्केट में आ चुके थे लेकिन इसकी पहुंच गांव तक नहीं थी। पीरियड्स के दिनों में औरों की तरह मैं भी कपड़ा इस्तेमाल करती थी। मिडिल स्तर की पढ़ाई के लिए मुझे गांव से 15 किलोमीटर दूर जाना पड़ता था जिससे कभी-कभी स्कूल ड्रेस में दाग भी लग जाते थे। स्कूल में दाग के निशान को देखकर मुझे किसी ने इसे शर्म कहकर आगाह नहीं किया। ना ही स्कूल के किसी शिक्षक ने कभी डांटा बल्कि हमें हाई स्कूल की मैडम से पीरियड्स से संबंधित समस्याएं साझा करने की सलाह दी जाती थी। इंफेक्शन के कारण जब मैं बीमार पड़ती तब समुदायिक केंद्र के डॉक्टर साफ-सफाई के बारे में ज्यादा ध्यान देने को कहते। हालांकि दादी और मां ने पीरियड्स को लेकर घर पर कुछ नियम बनाए हैं जिन्हें सभी का पालन करना अनिवार्य है लेकिन फिलहाल गांव से बाहर रहने की वजह से मैं ऐसी दकियानूसी बातों को बढ़ावा नहीं देती।
जब मेरे शरीर में बार-बार खून की कमी होने के कारण मुझे डॉक्टर से संपर्क करना पड़ा तब उन्होंने किसी बड़ी बीमारी का अंदेशा जताते हुए कहा, “तुम्हारे शरीर में खून नहीं बन रहा। अगले दो सालों में अगर शादी करोगी तो बच्चे पैदा करने में दिक्कतें आएंगी।” यह बात बहुत अचंभित करने वाली थी। क्या मेरे शरीर में खून का रहना इसलिए ज़रूरी है ताकि भविष्य में मैं बच्चा पैदा करने में सक्षम रहूं या मातृत्व का सुख पा सकूं? नहीं मैं ऐसा नहीं मानती। यह मेरे शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहने की बात है। बच्चे पैदा करने की क्षमता के बारे में नहीं। जब दूसरे डॉक्टर को दिखाया तब उन्होंने बताया कि मेरे शरीर में आयरन की बहुत अधिक कमी है जिससे सही मात्रा में खून नहीं बन पा रहा। मैंने इलाज शुरू करवाया और अब शरीर में खून की मात्रा बढ़ने लगी हैं।
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पीरियड्स प्रॉडक्ट्स, स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच एक बड़ी चुनौती है
छत्तीसगढ़ के अंदरूनी इलाकों में आज भी अच्छी क्वॉलिटी वाले पैड्स नहीं मिलते। पहले से ही महंगे पैड्स को शहर से लाकर ऊंचे दामों में बेचा जाता है। जो इन्हें खरीदने में सक्षम होते हैं, वही खरीद पाते हैं। साथ ही यहां पर इस्तेमाल किए गए पैड्स का उचित प्रबंधन किस तरह किया जाता हैं उसकी जानकारी भी नहीं रहती।छत्तीसगढ़ के कई गांवों में अब ‘किशोरी बालिका समूह’ का गठन किया गया है जहां इन्हें पीरियड्स से संबंधित जानकारी दी जाती है। बताया जाता है कि यह एक सामान्य जैविक क्रिया है और शुद्धता-अशुद्धता से इसका कोई लेना देना नहीं है। एनेमिया से पीड़ित युवतियों को खानपान पर ज्यादा ध्यान देने कहा जाता है। साथ ही लड़कियों को आयरन की गोली मुहैया करवाई जाती है। इसके साथ जिन्हें गोलियां नही मिल पाती उन्हें ग्रामीण इलाकों में पाए जाने वाला प्रचुर मात्रा में आयरनयुक्त साग-भाजी खाने की सलाह दी जाती है।
इन इलाकों में आज भी महिलाएं पीरियड्स के दिनों में पुराने सूती कपड़ों का ही इस्तेमाल करती हैं। अक्सर वे इन कपड़ों का खास ख्याल नहीं रखती। सालों तक एक-दो ही कपड़े को लगातार इस्तेमाल करती हैं। इन्हें सही से धूप भी नहीं दिखाई जाती बल्कि शर्म के मारे इन कपड़ों को सुखाते वक्त अलग से इनके ऊपर दूसरा कपड़ा रख दिया जाता है। यही कारण हैं कि महिलाएं संकोचवश नहीं बता पाती कि उन्हें पीरियड्स से संबंधित कौन सी बीमारी के लक्षण हैं? उन्हें ज्यादातर शिकायत पेट दर्द को लेकर रहती है। घर और बाहर के कामों में उलझकर वे अपनी स्वच्छता और स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रखती, इसे अनदेखा कर देती हैं। इससे उन्हें यूरिन इन्फेक्शन, इरेगुलर पीरियड्स जैसे समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इस दौरान कई पुरुष देखभाल करना छोड़ अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ महिला को मायके छोड़कर आते हैं वहीं इन समस्याओं के समाधान के लिए वे आज भी जड़ी बूटी और सिरहा–गुनिया (झाड़-फूंक करनेवाले) पर निर्भर हैं। कई बार देर होने के बाद डॉक्टर से संपर्क करते हैं और इन्हें इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ते हैं।
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तस्वीर साभार : The Guardian