छोटी थी तब से ही घर में पुरुषों का रौब देखा है। हर फैसले में उनकी ही हां या ना को ज़रूरी माना जाता रहा है। फिर चाहे वह कितनी ही छोटी बात या बड़ी बात क्यों न रही हो। मैंने घर के मर्दों का गुस्सा घर की महिलाओं पर उतरते न सिर्फ देखा है, बल्कि एक नहीं हज़ार बार खुद उसका सामना भी किया। मेरी मां ने तो घर में स्थापित इस पितृसत्ता को बिना कोई विरोध किए, स्वीकार कर लिया पर मेरे मन में इस चीज़ के खिलाफ़ हमेशा एक गुस्सा बना रहा। ऐसे में मां ने मुझे निराश तब किया जब खुद घर में तमाम तरह की शारीरिक और मानसिक हिंसा का शिकार होने के बावजूद उन्होंने मुझसे भी घर के पुरुषों के अनुसार ही चलने की उम्मीद की। एक बेटी होने के नाते मुझे यह कहना बिल्कुल उचित नहीं लग रहा, मगर मेरी मां की मुझसे सब कुछ चुपचाप सहते जाने की उम्मीद करना मेरी अब तक की ज़िंदगी की सबसे बड़ी निराशा रही है और ये निराशा ही वह बिंदु है जहां मेरा नारीवाद बाकी नारीवादियों से अक्सर मेल नहीं खाता।
मुझसे बेहतर जानने समझने वाले लोग मुझसे उम्मीद करते हैं कि मैं इन मांओं का इतिहास जानूं और उनकी मजबूरियां समझूं, उनकी पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता को परखूं और उनको हमारे समाज में पहले से स्थापित पितृसत्ता को बढ़ावा देने के दोष से बरी करूं मगर मुझसे चाहकर भी नहीं होता। यही कारण है कि मेरा नारीवाद मांओं को भी काफी हद तक इस पितृसत्ता को बढ़ावा देने का दोषी मानता है। हां, मैं समझती हूं कि हमारे समाज में पितृसत्ता बीते हज़ार वर्षों से अपनी पैठ जमाए हुए है। इस कारण हमारी मांओं को उन्हें सिखाये गये तरीकों को ‘अनलर्न’ करने में काफी समय लगेगा। मैं बीते समय की उनकी मजबूरियों को भी समझती हूं मगर मुझे समझ यह नहीं आता कि मेरी मां क्यों आज भी मुझसे घर के पुरुषों के प्रति जवाबदेह होने की उम्मीद करती हैं। क्यों खुद अपनी बेटियों और समाज की बाकी महिलाओं से से वे सब झेलने की उम्मीद करती हैं जिसका सामना उन्होंने खुद किया और जिसका आज खुद उन्हें अफ़सोस भी है। मैं अगर समझ भी लूं कि उनकी शादी के बाद उनके पास परिवार द्वारा दी जाने वाली यातनाओं को सहने के सिवा कोई और विकल्प नहीं था, फिर भी मेरे लिए निराशाजनक बात यह है कि उन्होंने आज तक इतने साल बीतने के बावजूद मुझसे भी चुप रहने की ही उम्मीद की। सब कुछ झेलने की ही उम्मीद की। ठीक वैसे ही जैसे उन्होंने चुप रहकर झेला।
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मेरा नारीवाद मांओं को पितृसत्ता को आगे बढ़ाने का इसीलिए दोषी मानता है क्योंकि मेरी और मेरी मां की आजतक मेरे, घर के पुरुषों के प्रति जवाबदेह होने या न होने पर ही बहस होती है। हम आज तक इस बात पर बहस करते हैं कि घर में पुरुषों के ना होने की स्थिति में भी लड़कियों की परवरिश अच्छे से हो सकती है। मेरे दिल में टीस तब उठती है जब आज मेरे एक ‘अच्छी लड़की’ के रूप में उभरने का कारण वह हमेशा मेरे भाई को ही मानती हैं। मैं कतई यह नहीं मान सकती कि आज आर्थिक रूप से संपन्न या स्वतंत्र मांए बेटा ही पैदा करने की चाह नहीं रखती। मैंने खुद अपने परिवार में और अपने आस-पास आर्थिक रूप से सशक्त मांओं को सिर्फ बेटियों को ही घर का काम सिखाते और भाइयों से अपनी बहनों को ‘वश’ में रखने की सीख देते हुए देखा है।
मेरा नारीवाद मांओं को पितृसत्ता को आगे बढ़ाने का इसीलिए दोषी मानता है क्योंकि मेरी और मेरी मां की आजतक मेरे, घर के पुरुषों के प्रति जवाबदेह होने या न होने पर ही बहस होती है।
कहते हैं कि घर की बातें बाहर नहीं करनी चाहिए। मगर नहीं, मैं कतई इस बात से इत्तेफाक नहीं रखती कि ये घर की बात है। घरेलू हिंसा और पितृसत्ता हमारे समाज की हक़ीक़त है, जिसे यह पितृसतात्मक समाज घर के अंदर की बात बनाने पर तुला हुआ है। यही वजह थी कि जब मां ने मुझसे घर में स्थापित पितृसत्ता को स्वीकार करने की उम्मीद की तो मैंने जितना हो सका उतना उसका कड़े रूप से विरोध किया, आज भी करती हूं। इन सबके बीच आज अगर किसी चीज़ का शुक्र है तो सिर्फ खुद में पढ़ने और सीखने की उत्सुकता होने का। जब यह सब कुछ हो रहा था तब मुझे सुकून मिला किताबों और फिल्मों में। तमाम तरह की किताबों और फिल्मों में तमाम तरह की लड़कियों की ‘लाइफ़स्टाइल्स’ ने न सिर्फ मन में जिज्ञासा जगाई बल्कि एक प्रेरणा भी दी। उनके जैसा ‘आज़ाद’ बनने की प्रेरणा। उस दुनिया में कदम रखने के लिए प्रेरित किया जहां कुछ भी करने के लिए, कहीं भी जाने के लिए, किसी भी समय जाने के लिए, किसी के भी साथ जाने के लिए और कुछ भी पहनने के लिए घर के पुरुषों की इजाज़त की ज़रूरत नहीं पड़ती।
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स्कूल के बाद की पढ़ाई लखनऊ (जहां मेरा घर है) से बाहर करने की ज़िद इसी ‘आज़ादी’ की लालसा का परिणाम थी। ये सब कुछ लिखते हुए भी दिल उस उम्मीद भर के होने पर ज़रा जोर से धड़क रहा है। दिल्ली विश्वविद्यालय तब मेरे लिए बहुत ‘फैंसी’ हुआ करती थी मगर फिर शुक्र है साल 2019 में जेएनयू में मेरा दाखिला हुआ। दिल्ली विश्वविद्यालय तो नहीं मगर दिल्ली शहर ज़रूर आना हुआ। घर में मां की पितृसत्तात्मक उम्मीद और पैरों में घर के पुरुषों द्वारा डाली गई बेड़ियों से जब थोड़ी दूरी बढ़ी, तब मन जितना दूर हो सका उतना दूर उड़ा लगा कि हॉस्टल में रहकर काफी हद तक आत्मनिर्भर बन सकती हूं। अगले तीन साल में अलग-अलग जगहें घूमकर, छोटे-मोटे काम करके खुद के खर्चे निकालकर, सालों से परेशान करती आ रही पितृसत्ता से, ‘आज़ाद’ होने की पूरी उम्मीद रखी। ऐसे में कोरोना वायरस के कारण लागू हुआ लॉकडाउन लाखों महिलाओं की तरह मेरे लिए भी दुर्भाग्यपूर्ण रहा।
एक बार फिर से लॉकडाउन ने मुझे वापस वहीं लाकर पटक दिया जहां से मैंने शुरुआत की थी। यूं तो सपनों का शहर मुंबई को कहा जाता है, मगर मेरे लिए मेरे सपनों का शहर दिल्ली ही था। अपने सपनों के शहर से वापस फिर से लखनऊ जाना न सिर्फ परेशान करने वाला था, बल्कि भयभीत भी कर देने वाला था। भय, पितृसत्ता द्वारा कुचल दिए जाने का। तमाम तरह के अनुभवों से गुज़रते हुए लखनऊ में गुज़ारे बीते एक साल ने बहुत कुछ सिखाया। एक बार फिर से मैंने खुद के अंदर ‘आज़ाद’ होने की उसी लालसा को महसूस किया, जो पिछले कुछ सालों से लगातार कर रही थी। आज घर से दूर रह रही हूं तो सुकून इसी बात का है कि खुद को काफी हद तक खुद के अनुसार ढाल सकती हूं। मगर उस ‘प्रॉसेस’ में यह लॉकडाउन एक बड़ा रोड़ा बनके उभर रहा है।
आज जब घर में बंद होकर सब कुछ देखने समझने के काबिल हूं, तो अक्सर ये सवाल मन में उठता है कि आखिर क्यों लड़कियों के लिए यह समाज इतना वीभत्स है। क्यों उन्हें उनके हिस्से के सवालों के जवाब खुद ढूंढ़ने नहीं दिए जाते। क्यों उनपर घर के पुरुषों का अंकुश रहता है। क्यों उनसे पुरुषों के प्रति जवाबदेह होने की और उनके नीचे दबकर रहने की नाजायज़ उम्मीद की जाती है। इन सवालों के जवाब जितने मुश्किल हैं उससे कहीं ज्यादा मुश्किल इस समाज द्वारा इन प्रश्नों को स्वीकार किया जाना है।
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तस्वीर साभार : The News Minute
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May I know how can share our views for the blog
Bahut hi achha anubhav raha…yeh anubhav baki sathi bhi jhod payenge..apne jivan se ..