अनीता (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि उनके घर में शौचालय बना हुआ है। सात सदस्यों के परिवार में सिर्फ एक शौचालय है लेकिन घर के बाहर सामने की तरफ़ बने इस शौचालय का इस्तेमाल उनके लिए किसी जंग से कम नहीं है। शौचालय जाने के लिए ऐसा लगता है जैसे कोई बिना लिखा सख़्त नियम हो। अगर देरी से या कई बार शौच के लिए जाओ तो घर के सदस्यों की भौंहें तनने लगती हैं। अगर शौच के बाद बदबू आए तो सभी पुरुष सदस्य ताने मारकर असहज महसूस करवाने से बाज नहीं आते हैं। वहीं, बीए की पढ़ाई कर रही बबीता बताती हैं कि उनके घर में पिता और भाई सब साथ ही रहते हैं। सब लोग एक ही शौचालय में जाते हैं, लेकिन घर की औरतों को शौचालय का इस्तेमाल करने में शर्म आती है। इससे बचने के लिए उनकी कोशिश रहती है कि वे सवेरा होने से पहले खेत में ही शौच के लिए जाए। पीरियड्स के समय तो उन लोगों को और भी ज़्यादा दिक़्क़त होती है।
महज़ अनीता और बबीता ही नहीं जब मैंने एक महिला-किशोरी बैठक में शौचालय के इस्तेमाल पर महिलाओं और किशोरियों से चर्चा की तो कुछ ऐसे ही अनुभव सामने आए और लगभग सभी के अनुभव एक-दूसरे से मिलते जुलते थे। आमतौर पर महिलाओं के शौचालय के इस्तेमाल को कोई गंभीर मुद्दा नहीं माना जाता है। ग्रामीण परिवारों में यही माना जाता है कि घर में अगर शौचालय बन गया तो सारी समस्या खतम। जैसे पीरियड के दौरान इस्तेमाल करने के लिए पैड आ गया तो सारी समस्या ख़त्म मान ली जाती है पर ऐसा नहीं है कि क्योंकि अधिक सदस्यों वाले परिवारों में महिला सदस्यों के शौचालय के इस्तेमाल से शर्म का मुद्दा बहुत ज़्यादा जुड़ा है। शर्म का मुद्दा कभी-कभी इतना ज़्यादा गंभीर हो जाता है कि महिलाओं को कई तरह की शारीरिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
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शौचालय में शौच की बदबू और महिलाओं की शर्म
महिलाओं को हमेशा शर्म के साथ जीना सिखाया जाता है। आज भी महिलाओं के पसीने की बदबू को बुरा समझा जाता है और पसीना ही क्यों, महिलाओं की शौच की बदबू भी उन्हें शर्मिंदा महसूस करवाती है। अक्सर महिलाएं अपने अनुभव में बताती हैं कि शौच के बाद शौचालय से बाहर निकलने में वे शर्मिंदा महसूस करती हैं, जिसका कारण होता है शौच की बदबू। वे घंटों पानी डालकर इसे दूर करने की कोशिश करती हैं। यह शर्म तब और दोगुनी हो जाती है जब उनके ठीक बाद किसी पुरुष सदस्य को शौचालय जाना हो। ये असहजता इतनी ज़्यादा होती है कि कई बार महिलाएं घर में बने शौचायल से अधिक खुले में शौच जाने में ज़्यादा सहज महसूस करती हैं।
हम लोगों को हमेशा से ही यही बताया गया है कि महिलाओं को साफ़ और ख़ुशबूदार होना चाहिए, जिसकी वजह से पसीने और शौच की बदबू जैसी स्वाभाविक प्रक्रिया भी महिलाओं को असहज बना देती है। टीवी में आने वाले प्रचार से लेकर शायरी, कविताओं और उपन्यासों तक में हमेशा में महिलाओं को सुंदर और ख़ुशबूदार दिखाया जाता रहा है, जैसे वो कोई इंसान नहीं बल्कि कोई वस्तु हो। समाज ने महिलाओं की छवि में इस तरह लीपापोती की है कि जाने-अनजाने में ही उनके इंसान होने की छवि धूमिल होती गयी। यही वजह है कि सुंदर और ख़ुशबूदार प्रस्तुत होने के दबाव में महिलाओं की सहज प्राकृतिक क्रियाएँ भी उनके लिए शर्मिंदगी बनने लगती है। ये ऐसी समस्याएं होती हैं जिसे महिलाएं जल्दी किसी से साझा नहीं कर पाती हैं पर इसके लिए उन्हें आए दिन ताने ज़रूर सुनने पड़ते हैं। वहीं, अगर कोई पुरुष शौचालय जाए तो उसे किसी भी तरह की शर्मिंदगी नहीं होती है। वे पूरे गर्व के साथ सहज होकर शौचालय से बाहर निकलते हैं। इतना ही नहीं, वे किसी भी समय शौचालय का इस्तेमाल करने में कोई दिक़्क़त महसूस नहीं करते हैं लेकिन अगर महिलाएं एक से दो बार शौचालय का इस्तेमाल कर लें तो ऐसा लगता है जैसे क़यामत आ गई है।
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हम लोगों को हमेशा से ही यही बताया गया है कि महिलाओं को साफ़ और ख़ुशबूदार होना चाहिए, जिसकी वजह से पसीने और शौच की बदबू जैसी स्वाभाविक प्रक्रिया भी महिलाओं को असहज बना देती है।
पैड बदलने में समस्या
महिलाओं को पीरियड्स के दौरान पैड बदलने के लिए शौचालय का इस्तेमाल करना भी किसी से जंग से कम से नहीं लगता। जब वे पीरियड्स के दौरान पैड बदलने के लिए शौचालय जाती हैं तो इस्तेमाल किए हुए पैड को फेंकने के लिए पेपर और नए पैड को उन्हें अपने कपड़ों में छिपाकर लेकर जाना होता है। पैड का पैकेट खोलने के लिए उन्हें शौचालय में इस बात का इंतज़ार करना पड़ता है कि कोई आसपास ना हो, क्योंकि पैकेट खोलने की आवाज़ भी उन्हें शर्मिंदा महसूस करवाती है। इसलिए गांव की ज़्यादातर महिलाएं बताती हैं कि इसी शर्म के चलते वे पैड या कपड़ा बदलने के लिए दूर खेत में चली जाती हैं। गांव में अब हर दूसरे-चौथे घरों में शौचालय देखने को मिल जाते हैं। घर के ठीक सामने बाहर की तरफ़ बने शौचालय का नाम सरकार ने इज़्ज़त घर तो दे दिया है लेकिन ये महिलाओं की शर्म को पूरी तरह ख़त्म नहीं कर पाया है। शहर हो या गांव महिलाओं की शौच संबंधित विषयों पर चर्चा करना शर्म का मुद्दा माना जाता है, पर सच्चाई ये है कि इस शर्म के कारण महिलाओं और किशोरियों को न जाने कितनी ज़्यादा शारीरिक समस्याओं से गुजरना पड़ता है।
महिलाएं बताती है कि परिवार-नियोजन और गर्भावस्था के बारे में बात करना ज़्यादा आसान है। वे सेक्स से जुड़ी समस्याओं के बारे में भी बात कर पाती हैं, लेकिन शौच के मुद्दे पर उनके होंठ मानो सिल जाते हैं। परिवार में औरतों, ख़ासकर बहुओं को शर्म की समस्या ज़्यादा झेलनी पड़ती है क्योंकि उनके शौच जाने का समय, शौच करने का समय और कितनी बार शौच जाना ये सब उनके चाल-चलन और आदर्श होने से जोड़कर देखा जाता है। अगर कोई बहु सुबह देर से शौचालय जाती है तो उसे बुरा माना जाता है और अगर वह ज़्यादा देर तक या बार-बार शौचालय का इस्तेमाल भी उनके स्वास्थ्य संबंधित लांछनों से जोड़ दिया जाता है। इसके कारण बहुत बार महिलाएं सबके सोने का इंतज़ार करती हैं, जिससे उन्हें कई शारीरिक समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है। जब इन तमाम समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए महिलाएं खुले खेत में शौच के लिए जाती हैं तो इससे भी महिलाओं को शर्मिंदा होना पड़ता है। महिलाओं की शौच को लेकर शर्म की संस्कृति सिर्फ़ हमारे परिवार के व्यवहार से बदल सकती है। अगर महिलाओं को भी उनके शौचालय इस्तेमाल को लेकर सहज महसूस करवाया जाए तो इससे वे कभी भी असहज महसूस नहीं करेंगी। हमें समझना होगा कि शौच मानव शरीर से जुड़ी ज़रूरी प्रक्रिया है और अगर इसमें हम स्वच्छता और स्वास्थ्य का ध्यान नहीं दिया गया तो इससे कई गंभीर समस्याएं भी हो सकती हैं।
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तस्वीर साभार : Deccan Herald