एडिटर्स नोट: यह लेख हमारी नई सीरीज़ ‘बदलाव की कहानियां’ के अंतर्गत लिखा गया पहला लेख है। इस सीरीज़ के तहत हम अलग-अलग राज्यों और समुदायों से आनेवाली उन 10 महिलाओं की अनकही कहानियां आपके सामने लाएंगे जिन्हें साल 2021 में पद्म पुरस्कारों से नवाज़ा गया है। इस सीरीज़ की पहली कड़ी में पेश है पद्मश्री भूरी बाई की कहानी।
हमारे समाज ने आदिवासियों की एक अलग ही रूढ़िवादी छवि बना रखी है। लेकिन क्या आदिवासी सचमुच ऐसे ही होते हैं जैसा हमें दिखाया गया है? नहीं, आदिवासी ऐसे नहीं होते। उनके हाथों में ब्रश होता है, रंग होते हैं। सुंदरता का लाल रंग, बसंत का पीला रंग, आसमान से उधार लिया नीला रंग, बादलों का काला रंग और इंद्रधनुषी छंटा के हज़ार रंग। उनके कदम आगे बढ़ते हैं सिर्फ रचनात्मकता के लिए, यह सोचने के लिए कि अब कैनवास पर क्या बनाया जाए। आधुनिकता दिखाई जाए या परंपरा सजाई जाए। आपको पता है, यह नई तस्वीर किसने गढ़ी है? यह गढ़ी है भूरी बाई ने। पद्मश्री भूरी बाई ने। भूरी बाई भीलों के समुदाय से आती हैं और एक कलाकार हैं। वह भीलों की प्राचीन कला ‘पिथोरा आर्ट्स’ की विशेषज्ञ हैं। वह पिथोरा आर्ट्स बनाने वाली अपने समाज की पहली महिला हैं। साथ ही, वह पहली कलाकार हैं जिन्होंने कैनवास और कागज़ पर चित्रकारी की, प्राकृतिक की जगह ऐक्रेलिक रंगों का प्रयोग किया और ब्रश थामा। भूरी बाई ने पारंपरिक पिथोरा आर्ट में आधुनिकता का संगम किया है। वह पेड़, पक्षी, घास, कच्चे घर, पौधे, जानवर तो बनाती ही हैं, साथ ही वह हवाई जहाज़, ट्रेन, टीवी, कार, बस आदि भी बनाती हैं।
भूरी बाई का जन्म 1960 के दशक में मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के पिटोल गांव में में हुआ। था। यह ज़िला आदिवासी बहुल माना जाता है। भूरी बाई को छोटी उम्र से ही रंग भरना बहुत पसंद था। जब भी कोई त्योहार होता या घर-परिवार में कोई शादी होती, वह घर की दीवारों पर चित्रकारी करतीं। घर की सभी दीवारों को गोबर से लीपा जाता। गोबर सूखने के बाद इसके ऊपर वह चित्र बनाती और रंग भरती। एक छोटे से गांव में आखिर रंग कहां से मिलते तो, वह रंग खुद से बनातीं, अपने हाथों से। ये प्राकृतिक रंग गेरू मिट्टी, चावल और हल्दी से बनते। इन्हें चित्रों में भरने के लिए छोटी डंडी को इस्तेमाल में लाया जाता। इस पिथोरा आर्ट में बिंदी का बड़ा महत्व होता है। ये बिंदियां वह साड़ी के किनारे को फाड़कर उसकी चिंदी से बनाती।
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भूरी बाई को कला का शौक अपने पिता से लगा। उनके पिता भी पिथोरा आर्ट करते थे। भील जनजाति में ऐसी मान्यता है कि जब कोई अनहोनी बार- बार हो रही हो, पशुओं को लेकर कोई समस्या आ रही हो तो एक खास तरह का पिथोरा आर्ट बनाया जाता है। मानते हैं कि इससे अनहोनी या बला टल जाती है। इसमें घोड़े का चित्र बनाया जाता है और इसे पिथोरा देव को समर्पित कर दिया जाता है। पारंपरिक भील आर्ट पिथोरा में प्राकृतिक रंग भरकर जानवरों के चित्र बनाए जाते हैं। किसी दृश्य को उकेरा जाता है। सबसे ज़रूरी, यह सिर्फ दीवारों पर बनाया जाता है और आदिवासियों की पूजा का एक ज़रूरी हिस्सा है। भूरी बाई का बचपन बेहद गरीबी में बीता। वह और उनकी बहन बाल मजदूर थीं। एक रुपया कमाने के लिए खेतों में पूरे दिन काम करतीं। घर में खाने वाले ज्यादा थे, कमाने वाले कम। लिहाजा, वे दोनों दिन के दो रुपए कमाने के लिए दोगुनी मेहनत करने लगीं। वे जंगल में जातीं, लकड़ी काटती, गट्ठर बनाती और दूर बेचने जातीं। समय बीता और भूरी बाई की शादी हो गई। वह भोपाल आ गईं। यहां भी उन्होंने मज़दूरी की। यह 1980 के दशक की बात है। दूरदर्शन को दिए गए एक इंटरव्यू में अपनी कहानी बताते हुए वह कहती हैं कि भोपाल में कला का केंद्र, ‘भारत भवन’ बन रहा था, भूरी बाई को यहीं मज़दूरी मिल गई। इस भारत भवन के डायरेक्टर थे, महान चित्रकार जे. स्वामीनाथन। वह सभी कामगारों से उनकी जगहों के बारे में, कला के बारे में पूछ रहे थे। भूरी बाई से भी पूछा। अब भूरी बाई को हिंदी समझ नहीं आती थी, तो उनकी जगह जवाब कोई और दे रहा था।
पद्मश्री भूरी बाई भूरी बाई भीलों के समुदाय से आती हैं और एक कलाकार हैं। वह भीलों की प्राचीन कला ‘पिथोरा आर्ट्स’ की विशेषज्ञ हैं। वह पिथोरा आर्ट्स बनाने वाली अपने समाज की पहली महिला हैं। साथ ही, वह पहली कलाकार हैं जिन्होंने कैनवास और कागज़ पर चित्रकारी की, प्राकृतिक की जगह ऐक्रेलिक रंगों का प्रयोग किया और ब्रश थामा।
यहीं से स्वामीनाथन को पता चला कि भूरी बाई दीवारों पर चित्रकारी कर सकती हैं। उन्होंने अपने सहयोगी से कागज़ और रंग मंगवाए। भूरी बाई को दिए और कहा कि एक काम करिए, भवन का तलघर बन गया है। वहां जाकर बैठिए और बना के दिखाइये कुछ। भूरी बाई ने पूछा कि अगर वह अगर ये सब करेंगीं तो उनकी हाजिरी कौन देगा और उन्हें तलघर में जाने से डर लगता है। इस पर स्वामीनाथन ने कहा कि वह उन्हें 6 की जगह 10 रुपए देंगे। भूरी बाई ने तब भारत भवन के बाहर बने मंदिर में बैठकर पहली बार कागज़ पर ब्रश चलाया। उनकी चित्रकारी देखकर स्वामीनाथन बड़े प्रभावित हुए। स्वामीनाथन ने फिर उनसे पाँच दिन चित्रकारी करवाई और पचास रुपए दिए। भूरी बाई आश्चर्य में थीं, जिस कला को वह मन के सुकून के लिए करती थीं, उसके लिए उन्हें पैसे मिल रहे थे, वह भी मज़दूरी से ज़्यादा। भूरी बाई खुश भी थीं। वह मन ही मन सोच रहीं थीं कि अबकी चित्र बनाने को कहा तो खूब मन से और अच्छे से बनाएंगीं। खैर, स्वामीनाथन उनके बनाए पांच चित्र लेकर चले गए। वह वापस लौटे, करीब डेढ़ साल बाद। आते ही भूरी बाई से मिले। दस दिन चित्र बनवाए और 1500 रुपए दिए। चित्र लेकर स्वामीनाथन फिर चले गए। धीरे- धीरे कला पसंद लोगों में भूरी बाई की पहचान होने लगी। लोग उनसे चित्र बनवाने लगे। एक चित्र के 10-15 हज़ार रुपए भी देने लगे। जिस भवन में भूरी बाई ने मज़दूरी की आज उसी भवन में उनके चित्र भी लगे हैं।
पर हमारे समाज की एक दिक्कत है। जब कोई व्यक्ति अपनी मेहनत से आगे बढ़ता है, तो लोग उसमें खोट निकालने लगते हैं। उसकी बुराई करने का कारण ढूंढने लगते हैं। भूरी बाई जब लोगों के घर जाकर चित्रकारी कर रहीं थीं। तब ससुराल वालों ने उनके पति के कान भरने शुरू किए। आखिर ऐसा कौन-सा काम है कि किसी के घर जाओ और इतना पैसा मिल जाए। पति को कला की समझ नहीं थीं, वह बहकावे में आ गए। घर का माहौल खराब होने लगा। यह बात भूरी बाई ने अपने गुरु स्वामीनाथन को बताई। उन्होंने इसका एक रास्ता निकाला। भूरी बाई के पति को नाईट ड्यूटी पर भारत भवन में वॉचमैन रख लिया। साथ ही, अपनी पत्नी की मेहनत, ईमानदारी और लगन देखने को भी कहा। धीरे-धीरे उनके पति को सब समझ आ गया। वह ये भी समझ गए कि उनकी पत्नी कुछ गलत नहीं कर रही बल्कि वह तो एक बेहतरीन कलाकार है।
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स्वामीनाथन ने ही भूरी बाई को बताया कि उन्हें साल 1986-87 में मध्य प्रदेश सरकार का सर्वोच्च पुरस्कार ‘शिखर सम्मान’ मिलने वाला था। भूरी बाई को तब सम्मान का मतलब भी नहीं पता था। उन्हें लगा कि कोई सामान दिया जाएगा तो, उन्होंने इस सामान के लिए मना कर दिया। फिर आस-पास के लोगों और स्वामीनाथन ने उनसे कहा कि जब मिलेगा तब पता चलेगा कि ये सामान नहीं, सम्मान है। मध्य प्रदेश सरकार ने ही साल 1989 में उन्हें अहिल्या सम्मान दिया। यह सम्मान आदिवासी, लोक एवं पारंपरिक कलाओं के क्षेत्र में महिला कलाकारों की सृजनात्मकता को सम्मानित करने के लिए दिया जाता है। साल 2009 में उन्होंने रानी दुर्गावती अवार्ड जीता। इस अवार्ड के करीब बारह सालों बाद उन्होंने इतिहास रच दिया। देश का चौथा सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्मश्री’ साल 2021 में उन्हें मिला।
मध्य प्रदेश के जनजातीय संग्रहालय की 70 फीट लंबी दीवार पर भूरी बाई ने अपने बचपन से लेकर चित्रकार बनने तक के सफर को बेहद खूबसूरती के साथ उकेरा है। उन्होंने अपने सफर का बेहद ही कलात्मक और रचनात्मक वर्णन किया है। आज वह भोपाल की लोक कला अकादमी में बतौर कलाकार काम कर रही हैं। वह अपनी वर्कशॉप भी आयोजित करती हैं। आने वाली पीढ़ियों को पिथोरा आर्ट की शिक्षा दे रहीं हैं। उनके बनाए चित्र दस हज़ार से एक लाख रुपए तक बिकते हैं। वह अमेरिका, ब्रिटेन सहित तमाम देशों में अपनी कला का प्रदर्शन कर भारत का नाम ऊंचा कर रही हैं। भूरी बाई मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग की ब्रांड अंबैसडर भी हैं। इतना ही नहीं, वह किताब ‘डॉटेड लाइन्स’ की सह- लेखिका भी हैं। इसमें उनका साथ देबजानी मुखर्जी ने दिया है। देबजानी मुखर्जी आईआईटी बॉम्बे की रिसर्च स्कॉलर हैं। इस छोटी- सी किताब में उनके थीम आधारित 20 चित्र हैं और उनकी जीवनी है।
भूरी बाई आज भी जब चित्र बनाना शुरू करती हैं। वह भील जीवन और संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को याद कर लेती हैं। उस जमीन, उस गांव को याद करती हैं, जहां उनका बचपन बीता। इस चित्रकारी के बीज, जहां बोये गए। वैसे उन्हें पेड़, रंग- बिरंगे पक्षी बनाना ज्यादा पसंद है। वह अपनी पूरी यात्रा का सूत्रधार अपने गुरु जे. स्वामीनाथन को मानती हैं। किसी भी चित्र को शुरू करने या कोई अच्छा काम करने से पहले वह स्वामीनाथन को हमेशा याद करती हैं। अपने आज का श्रेय वे इन्हें ही देती हैं।
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