ग्लोरिया जीन वेटकिन्स अमरीकी लेखिका, प्रोफेसर, नारीवाद की समर्थक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। ग्लोरिया बेल हुक्स के नाम से लिखती हैं, यह उनका ‘पेन नेम’ है। नारीवाद के राजनीतिक होने और समावेशी होने की क्रिया को समझने में बेल हुक्स का लेखन बहुत महत्वपूर्ण है। ‘Feminism: a movement to end sexist oppression‘ नाम के चैप्टर में बेल हुक्स लिखती हैं कि अमरीका के अधिकतर लोग नारीवाद की जिस परिभाषा को मानते हैं वह इस बारे में हैं कि महिलाएं समाजिक तौर पर पुरुषों के बराबर हो। मीडिया द्वारा इसी परिभाषा को प्रचारित किया गया है और नारीवाद आंदोलन में मुख्यधारा के लोगों का तबका भी इससे सहमत दिखता है। हालांकि बेल हुक्स के अनुसार यह परिभाषा कई तरह के सवाल खड़े करती है। चूंकि एक श्वेत श्रेष्ठतावादी, पूंजीवादी, पितृसत्तात्मक वर्गीय ढांचे वाले समाज में जब इस परिभाषा को लागू किया जाता है, तब ये देखना ज़रूरी हो जाता है कि वे कौन से पुरूष हैं जिनके साथ सामाजिक बराबरी की कामना महिलाएं नारीवाद के ज़रिए कर रही हैं।
क्या सभी महिलाओं के लिए ‘बराबरी के हक़’ की कल्पना एक सी है? नारीवाद की एक बेहद साधारण परिभाषा जो समाज में रहने वाले व्यक्तियों के साथ जुड़ी अन्य पहचानों को नज़रअंदाज करती हो सभी महिलाओं की बात कैसे कर सकती है। बेल हुक्स के अनुसार श्वेत बुर्जु़आ महिलाओं ने ऐसी साधारण और ऊपरी परिभाषा को इसलिए स्वीकृति दे दी क्योंकि यह उन्हें समाज में लैंगिक पहचान के आधार पर शोषित क़रार देती है, लेकिन नस्लीय और आर्थिक वर्गीकरण से उपजे शोषण के प्रति आंखें मूंदे रखती हैं। ग़रीब और निचले आर्थिक वर्ग की महिलाएं, खासकर वे जो श्वेत नहीं हैं, उन्होंने कभी भी महिलाओं की आज़ादी को पुरुषों की सामाजिक बराबरी करने के रूप में परिभाषित नहीं करती। यह इसलिए क्योंकि अपने रोज़मर्रा के जीवन में वे महिलाओं के बीच की गैरबराबरी झेलती हैं।
बेल हुक्स एक बड़ी मिथ्या को तोड़ते हुए लिखती हैं, “महिलाओं के जीवन में होने वाले प्रगतिशील बदलाव इस बात को नहीं दिखाते कि समाज के सभी शोषण के ढांचे टूट चुके हैं। समाज के हर शोषक ढांचे पर वार कर पाने में कोताही के कारण ही लिबरल नारीवाद इस गलतफ़हमी में जीता है। ये गलतफहमी कि महिलाएं अपने वर्ग के पुरुषों की बराबरी बिना सांस्कृतिक रूप से होने वाले सामूहिक शोषण के ढांचों को चुनौती दिए बिना, उन्हें बदले बिना ही कर सकती हैं। साल 1967 में ब्राज़ीली स्कॉलर हेलेथ साफ्फाइटी ने कहा था, बुर्ज़ुआ नारीवाद अनजाने में अपने मूल रूप से केवल उच्च वर्ग के लोगों का नारीवाद बन चुका है।”
क्यों राजनैतिक नारीवाद से दूर रहना चाहती हैं औरतें?
बेल हुक्स ने अपने अवलोकन के हिसाब से कई ऐसे कारण बताएं हैं जब महिलाएं खुद को ‘नारीवाद’ शब्द से दूर रखना चाहती हैं। पहला कारण, वे इस शब्द का मतलब ठीक-ठीक नहीं समझ पातीं। कई बार शोषित समुदाय और संस्कृति की महिलाएं इस शब्द से इसलिए असहमति रखती हैं क्योंकि नारीवाद को अपने शुरुआती दिनों में श्वेत महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई की तरह देखा गया, वे इसलिए इसे एक नस्लीय भेदभाव से भरा शब्द मान लेती हैं। कई महिलाएं नारीवाद को स्त्री समलैंगिकता मानकर इससे दूरी बना लेती हैं। कुछ महिलाओं को इस शब्द के साथ जुड़ना राजनीतिक रूप से अतिवादी होने जैसा लगता है।
बेल हुक्स ने जेंडर को नस्ल, वर्ग, सेक्स के साथ जोड़कर देखने की बात की, यह बिंदु समावेशी नारीवाद का स्तंभ है। चूंकि ये विमर्श पश्चिमी देशों के संदर्भ में हैं यहां जाति की बात रह जाती है। भारतीय संदर्भ में जाति को जोड़कर नारीवाद को समझना समावेशी नारीवाद का प्रमुख भाग है।
बेल हुक्स इन सब का जवाब देती हैं। वह कहती हैं कि नारीवाद की कई परिभाषाएं अराजनैतिक नज़रिए से बनी हैं। ऐसी परिभाषा व्यक्तिगत आज़ादी को बड़ी रोमांचित करने वाली बात कहती हैं लेकिन समाज में जरूरी राजनीतिक लाने को लेकर पीछे खड़ी रहती है। बेल हुक्स लाइफस्टाइल नारीवाद की आलोचना में कहती हैं, यह महिलाओं को उनके राजनितिक मान्यताओं को लेकर सवाल नहीं करता, बल्कि कहता है कि कोई भी महिला नारीवाद को अपने रोज़मर्रा के जीवन जीने के तरीके यानि लाइफस्टाइल की तरह देख सकती है, इसलिए यह किसी को असहज नहीं करता। इसका खतरनाक होना इसी सहजता से आता है यानि कि बिना शोषणकारी राजनितिक मुद्दों को खारिज किए आप नारीवादी हो सकती हैं। यहीं पर नारीवाद की समावेशिता कमज़ोर होती दिखती है। नारीवाद केवल कुछ विशेषाधिकार प्राप्त महिलाओं का प्रतिनिधित्व करे यह खतरा भी बना रहता है। महिलाएं नारीवादी आंदोलन केवल इसलिए आएं क्योंकि वे जैविक रूप से एक से शरीर में हैं, ऐसा सोचना बेमानी है। नारीवाद लैंगिक शोषण के ख़िलाफ़ संघर्ष है। अपनी थ्योरी में वह कहती हैं महिलाओं को अपने बीच की भिन्नताओं और असमानताओं का ज्ञान होना चाहिए। उन्होंने जेंडर को नस्ल, वर्ग, सेक्स के साथ जोड़कर देखने की बात की, यह बिंदु समावेशी नारीवाद का स्तंभ है। चूंकि ये विमर्श पश्चिमी देशों के संदर्भ में हैं यहां जाति की बात रह जाती है। भारतीय संदर्भ में जाति को जोड़कर नारीवाद को समझना समावेशी नारीवाद का प्रमुख भाग है।
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नए सिरे से नारीवाद
जब नारीवाद की परिभाषा ऐसी होती है जहां केंद्र में महिलाओं के पहचान की विविधता होती है, वह विविधता जो उनका सामाजिक और राजनीतिक सच है, तब सभी महिलाओं के अनुभव को जोड़कर समझा जा सकता है। उन पहचानों से संबंध रखने वाली महिलाएं जिन पर बहुत कम लिखा गया है, जिसे बदलने के लिए सबसे कम कोशिशें हुई हैं, उनकी जगह नारीवाद में अहम है। जब ‘पुरुष हमारे दुश्मन हैं’ जैसे मुहावरों और विचारों से हम दूर होते हैं, हम सामाजिक ढांचों और किसी भी तरह के शोषण को जन्म देने में उनकी भूमिका को बेहतर समझ पाते हैं। इन सभी कमियों के कारण ही नारीवादी आंदोलन में लंबे समय तक नेतृत्व की भूमिका में केवल बुर्जु़आ महिलाओं का आधिपत्य नज़र आता है।
बेल हुक्स के अनुसार, नारीवाद के विशेष समूह के महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए नहीं है या किसी विशेष नस्ल या वर्ग की महिलाओं के लिए। नारीवाद हमारे जीवन को शक्तिशाली और सार्थक रूप में बदल सकता है। हुक्स एक मजे़दार और सोचने लायक़ बिंदु सामने लाती हैं। वह लिखती हैं कि नारीवाद कोई लाइफस्टाइल नहीं है, या बनी-बनाई पहचान का कोई डिब्बा का पद/भूमिका नहीं है जिसे कोई भी बस धारण कर ले। इसलिए “मैं नारीवादी हूं” कि जगह “मैं नारीवाद की वकालत करती हूं” कहना उचित है क्योंकि नारीवाद को लाइफस्टाइल बनाने के ऊपर मीडिया और मुख्यधारा का काफ़ी जोर रहा है। इसलिए लोग नारीवाद के स्टीरियोटाइप को टिक करने भर इसे समझना चाहते हैं। नारीवाद के समर्थक होने से आप किसी अन्य राजनीतिक-समाजिक बराबरी के संघर्ष का हिस्सा बनने में की संभावना ख़त्म नहीं होती, बल्कि मज़बूत होती है।
बेल हुक्स खुद से सबसे ज़्यादा बार पूछे गए एक सवाल का ज़िक्र करती हैं। ये सवाल ऐसे हैं, “क्या ब्लैक होना महिला होने की पहचान से ज्यादा अहम है, क्या लैंगिक शोषण को खत्म करने का नारीवादी संघर्ष नस्लीय भेदभाव को मिटाने से ज़्यादा जरूरी है।” हुक्स के मुताबिक ऐसे सवाल के जड़ इस सोच में गड़े हैं कि स्वयं का निर्माण औरों के विरोध में होता है। इसलिए आप नारीवादी होने के अलावा और कुछ नहीं हो सकते। लोग स्वयं का निर्माण औरों के अनुकूल होने के नज़र से नहीं देखते। जैसे, नस्लीय भेदभाव को हटाने के संघर्ष को नारीवाद के साथ जोड़कर देखने के बजाय वे इसे दो आंदोलनों के बीच प्रतिस्पर्धा की तरह देखते हैं। इसलिए “मैं नारीवाद की वकालत करती हूं” भाषाई तौर पर यह दिखाएगा कि महिलाएं नारीवाद के साथ अन्य किसी आंदोलन की भी समर्थक हैं और नारीवाद उनका लाइफस्टाइल भर नहीं है। इसके साथ ही वे एक समूह को किसी अन्य समूह के ऊपर वरीयता नहीं देती। ‘पुरुषों के साथ बराबरी’ से ‘लैंगिक शोषण (सेक्सिस्ट ऑप्प्रेशन) के अंत’ तक आने में नारीवाद का केंद्र किसी भी तरह के सामाजिक शोषण के सिस्टम को खारिज़ करने और सेक्स, वर्ग, नस्ल को जोड़ती कड़ी पर आ जाता है।
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तस्वीर साभार : badgerherald.com