संस्कृतिकिताबें सच कहूँ तो, नीना गुप्ता की किताब सेंसशन का नहीं चर्चा का विषय बने | नारीवादी चश्मा

सच कहूँ तो, नीना गुप्ता की किताब सेंसशन का नहीं चर्चा का विषय बने | नारीवादी चश्मा

सच कहूँ तो? के ज़रिए नीना गुप्ता ने न केवल अपनी कहानी को साझा किया, बल्कि उन तमाम विषयों को भी उजागर कर चर्चा में ला दिया है।

ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव ही इंसान के अनुभव होते है और जब ये अनुभव किसी शख़्सियत के होतो वो समाज के लिए प्रेरणा और इतिहास बन जाते है, ख़ासकर तब जब वो शख़्सियत कोई पुरुष हो। न की महिला के। क्योंकि जब किसी महिला शख़्सियत की ज़िंदगी से जुड़े उतार-चढ़ाव भरे अनुभव की बात होती है तो वो अक्सर समाज में सेंसेशन का विषय बन जाता है। इतना ही नहीं, ये तब और चर्चा या यों कहें कि निंदा का विषय बनाया जाता है जब पितृसत्ता के साथ महिला खुद अपने अनुभव, अपनी कहानी साझा करे।

समाज का यही रवैया आजकल सोशल मीडिया पर अभिनेत्री नीना गुप्ता के संदर्भ में देखने को मिल रहा है, जब लोग उनकी ज़िंदगी और उनके अनुभवों पर अपनी सड़ी पितृसत्तामक सोच का प्रदर्शन कर रहे हैं। नीना गुप्ता की ज़िंदगी का अचानक से सुर्ख़ियों में आने की वजह है, उनकी लिखी आत्मकथा ‘सच कहूँ तो?’ जिसे हाल ही में पेंग्विन रेंडम हाउस की तरफ़ से प्रकाशित किया गया है। इस किताब में नीना गुप्ता ने अपनी जिदंगी के उतार-चढ़ाव, अनुभवों और संघर्षों को साझा किया है। यों तो ढ़ेरों शख़्सियतों की आत्मकथा लिखी जाती है, पर सुर्ख़ियाँ सिर्फ़ वही बनती है, जो पुरानी धारणाओं को तोड़ बदलाव की नयी इबारतें लिखती है। नीना गुप्ता का व्यक्तित्व और उनकी कहानी बहुत ख़ास है, क्योंकि उन्होंने अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले ख़ुद लिए और उन फ़ैसलों को जिया भी, जिसके लिए उन्हें ढ़ेरों परेशनियाँ भी झेलनी पड़ी। लेकिन जाने-अनजाने में उन्होंने समाज के सामने एक सशक्त महिला की कहानी को साझा किया है।

सच कहूँ तो? के ज़रिए नीना गुप्ता ने न केवल अपनी कहानी को साझा किया, बल्कि उन तमाम विषयों और पहलुओं को भी उजागर कर चर्चा में ला दिया है, जिसपर अक्सर समाज मुँह चुराकर बच निकलता है। फिर बात चाहे बिना शादी के माँ बनने की हो या फिर काम के लिए महिलाओं के संघर्ष की, नीना की कहानी हमारे समाज में महिलाओं के संघर्ष और उनकी अलग-अलग परतों को उजागर करती है। इन्हीं में से प्रमुख है बिना शादी के माँ बनने का विषय।

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हमारे समाज में महिला के माँ स्वरूप को बेहद पवित्र और पूजनीय माना जाता है। पितृसत्ता एक महिला की सार्थकता ही उसके माँ बनने से तय करती है। पर माँ के स्वरूप को भी बेहद बारीकी से तैयार किया गया है, जिसे शादी के बाद मंज़ूर और शादी से पहले नामंज़ूर किया जाता है। ज़ाहिर है ये नामंज़ूरी इतनी आसान नहीं होती, बिना शादी के अगर कोई महिला माँ बनती है तो समाज हर पायदान पर उसे ये एहसास दिलाता है कि उसने कोई गुनाह किया है, जिसके लिए अपने-अपने तरीक़े से सजा देना मानो हर इंसान अपना हक़ समझने लगता है।

सच कहूँ तो? के ज़रिए नीना गुप्ता ने न केवल अपनी कहानी को साझा किया, बल्कि उन तमाम विषयों और पहलुओं को भी उजागर कर चर्चा में ला दिया है, जिसपर अक्सर समाज मुँह चुराकर बच निकलता है।

कई बार हमें ये लगता है कि जो महिलाएँ आत्मनिर्भर है, शहरों में रहती है है, पढ़ी-लिखी है या फिर फ़िल्म लाइन से जुड़ी है, उनके लिए बिना शादी के माँ बनने पर कोई समस्या नहीं होती है और वहाँ तो ये सब आम है। लेकिन नीना गुप्ता की कहानी इस भ्रम को तोड़कर पितृसत्ता की गहरी पैठ को दर्शाती है, जिसमें हर महिला को एकसमान दिक़्क़त और संघर्षों का सामना करना पड़ता है, हाँ इन दिक़्क़तों के स्वरूप बदले दिखाई पड़ सकते है, पर मूल एक होता है।

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नीना गुप्ता ने अपनी इस आत्मकथा में ज़िंदगी के संघर्षों को साझा किया है और उनके हर संघर्ष ने समाज की एक व्यवस्था को चुनौती दी है। साथ ही, इन संघर्षों का प्रभाव लगातार हमें उनके करियर पर भी देखने को मिलता है। उनकी मदद के नामपर पितृसत्ता हर जगह हाथ धोती हुई देखी जा सकती है और ऐसा ही हर उस महिला के साथ किया जाता है जो पितृसत्ता के स्तंभों को ध्वस्त करती है या उसे चुनौती देती है। चूँकि हमारी पूरी सामाजिक व्यवस्था पितृसत्तामक है ऐसे में हर माध्यमों और संस्थाओं पर इसका प्रभाव देखने को मिलता है, फिर वो पुरानी हो या नयी। इसकी जीवंत रूप है – मीडिया। वहीं मीडिया जिसने सालों पहले नीना गुप्ता के निजी जीवन से जुड़ी खबरों को सेंसशन बनाकर न केवल उनके करियर बल्कि उनकी ज़िंदगी को भी प्रभावित है। आज वही मीडिया नीना गुप्ता की किताब से सिर्फ़ उन्हीं वाक्यों को चुन रही है, जिसमें सेंसशन हो या जिसे सेंसशन बनाया जा सकता है। ऐसे सेंसशन जिससे आमजन को जोड़ा तो जा सके, लेकिन बदलाव की तरफ़ आगे बढ़ने से रोका जा सके। मीडिया का पितृसत्तामक रूप यही से साफ़ दिखाई पड़ता है जब वो इस सत्ता को चुनौती देनी वाली महिलाओं को समाज की प्रेरणा की बजाय एक अलग ख़ेमे में डालकर प्रस्तुत करती है, जिससे लोग इसे सिर्फ़ सेंसशन का विषय समझें, बदलाव का नहीं।

आज के इस आधुनिक दौर में जब हम कई युवा महिलाओं को पितृसत्ता को चुनौती देता हुआ देख रहे है, ऐसे में नीना गुप्ता की ये आत्मकथा अपने आपमें बेहद ज़रूरी हो जाती है, क्योंकि ये आज सशक्त रूप में मौजूद होकर सालों पहले अपने संघर्षों को सशक्त रूप में बयाँ कर रहीं है। पितृसत्ता से प्रभावित जिस मीडिया ने नीना गुप्ता के हर क़िस्से को सेंसशन बनाया है, उसी के साथ चल रही मीडिया की सकारात्मक धारा ने इसे चर्चा का विषय बना रही है, जो अपने आपमें एक अच्छा संकेत है।  

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तस्वीर साभार : thequint

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