इक़बाल-उन-निसा हुसैन एक नारीवादी और एक्टिविस्ट थीं जिन्होंने मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा और उनके अधिकारों के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। 19वीं शताब्दी के दौरान महिलाएं समाज की बनाई हुई पारंपरिक भूमिकाओं में फंसी हुई थी जैसे जीवनभर अपने परिवार वालों की सेवा करना और उनका ध्यान रखना। लेकिन पितृसत्ता के तले दबी हुई औरतों के जीवन में शिक्षा का महत्व लेकर आईं इक़बालुन्निसा।
इक़बाल-उन-निसा हुसैन का जन्म साल 1897 में बेंगलुरु, कर्नाटक में हुआ था। उनकी शादी 15 साल की उम्र में ही कर दी गई थी। उनके पति सैयद अहमद हुसैन, मैसूर के एक सरकारी अधिकारी थे। उन्होंने शादी के बाद भी इक़बाल-उन-निसा की पढ़ाई जारी रखने की इच्छा में उनका सहयोग किया। वह एक उत्कृष्ट छात्रा थीं, जिन्होंने मैसूर के महारानी कॉलेज से ग्रेजुएशन में गोल्ड मेडल हासिल किया था। उन्होंने इंग्लैंड की लीड्स यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रैजुएशन की पढ़ाई पूरी की। वह उस दौर में ब्रिटेन से डिग्री हासिल करने वाली पहली भारतीय मुस्लिम महिलाओं में से एक थीं। साल 1933 में वह अपने बड़े बेटे के साथ उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड चली गई। तब तक उनके सात बच्चे हो चुके थे और नए वातावरण में उनके लिए तालमेल बैठाना मुश्किल हो रहा था। इसके बावजूद उनका अपनी पढ़ाई से और समाज में महिलाओं के लिए प्रगातिशील परिवर्तनों की ज़रूरत की ओर ध्यान नहीं हिला।
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इक़बाल-उन-निसा ने महिलाओं के अधिकारों के महत्व पर विस्तार से लिखा। आगे चलकर उनके निबंधों को साल 1940 में ‘चेंजिंग इंडिया: ए मुस्लिम वुमन स्पीक्स‘ नामक किताब से प्रकाशित किया गया। साल 1940 में उन्होंने ‘पर्दा और बहुविवाह’ (Purdah and Polygamy) नामक एक किताब लिखी। उन्होंने समाज की संकीर्ण मानसिकता को उजागर करते हुए पितृसत्ता की अलोचना करने पर ध्यान दिया जो महिलाओं के प्रति सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भेदभावपूर्ण रवैया रखती थी। इक़बाल-उन-निसा हुसैन ने यह बताया कि महिलाओं के साथ होनेवाला भेदभाव कोई नई प्रथा नहीं है जो अचानक से विकसित हुई। यह एक ऐसे इतिहास में निहित है जो पुरुषों को उच्च स्थिति वाले व्यक्तियों के रूप में रखता है और महिलाओं को उनके अधीन रखता है।
इक़बाल-उन-निसा हुसैन को अपने ही समुदाय के आधिकारिक और रुढ़िवादी सदस्यों की कड़ी अलोचना का सामना करना पड़ा लेकिन अपने मकसद से वह पीछे नहीं हटीं।
इक़बाल-उन-निसा हुसैन ने एक प्राइमरी स्कूल में प्रधानाध्यापिका के रूप में पढ़ाना शुरू किया। महिलाओं को शिक्षित करने के जुनून की वजह उन्हें समाज में अत्यधिक विरोध का सामना करना पड़ा। इसके बावजूद भी उन्होंने इस स्कूल उर्दू गर्ल्स मिडिल स्कूल में बदलने का फ़ैसला किया। इसके अलावा उन्होंने मुस्लिम महिला शिक्षकों के एक संघ का गठन करके शिक्षा के क्षेत्र में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति को बेहतर करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने बेंगलुरु की मुस्लिम महिलाओं के लिए गृह उद्योग का एक स्कूल भी स्थापित किया।
इक़बाल-उन-निसा हुसैन को अपने ही समुदाय के आधिकारिक और रुढ़िवादी सदस्यों की कड़ी अलोचना का सामना करना पड़ा लेकिन अपने मकसद से वह पीछे नहीं हटीं। उन्होंने यह देखा कि सिर्फ मुस्लिम समाज में ही नहीं बल्कि अन्य समुदायों में भी परिवारों में सिर्फ पुरुषों का ही वर्चस्व है। उन्होंने लगातार मुस्लिम समुदाय की महिलाओं को अपने अधिकारों और अपनी स्वायत्तता के लिए लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया। विद्रोह और आलोचनाओं के बीच उन्होंने इस्तानबुल में आयोजित बारहवें अंतरराष्ट्रीय महिला कॉन्फ्रेंस में भी हिस्सा लिया। इंग्लैंड से भारत लौटने के बाद उन्होंने अपने आप को महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई में ही समर्पित कर दिया था। इक़बाल-उन-निसा हुसैन के मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा और उनके अधिकारों के लिए उनके जुनून और योगदान को नहीं बुलाया जा सकता है। वह एक ऐसी आवाज़ थीं जो कई आलोचनों और विद्रोह के बावजूद भी बुंलद रहीं।
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