‘ओमप्रकाश वाल्मीकि’, अगर आप समाज के ढांचे को जानने-समझने में रुचि रखने वाले व्यक्ति होंगे, साहित्य से और इस देश के शोषित वर्ग से थोड़ा भी सरोकार रखते होंगे तो इस नाम से आप परिचित होंगे। अगर नहीं भी परिचित हैं तो इस लेख के आख़िर तक आते-आते भली-भांति परिचित हो जाएंगे। ओमप्रकाश वाल्मीकि, हिंदी दलित साहित्य के प्रमुख लेखकों में से एक हैं जिन्होंने कविताएं लिखीं, ‘ठाकुर का कुआं’ उनकी बहुचर्चित कविता है। उन्होंने कहानियां लिखीं, लगभग 60 नाटकों में अभिनय, निर्देशन किया, कई कृतियों का अनुवाद भी किया। कांचा इल्लैया की किताब “व्हाई आई एम् नॉट ए हिन्दू” का हिंदी अनुवाद,”मैं हिन्दू क्यों नहीं” के रूप में किया। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दिए और अनेक साहित्यिक समितियों से जुड़े रहे। जब-जब ओमप्रकाश वाल्मीकि का नाम लिया जाता है तब मानस पटल पर आप ही ‘जूठन’ एक साथ उभरने लगती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ नाम से जनता के बीच दो खण्डों में सामने आई। पहला खंड 1997 में, दूसरा खंड साल 2015 में प्रकाशित हुआ। आत्मकथा का नाम ‘जूठन’ कैसे पड़ा?, किसने रखा? उसे हम लेख में आगे जानेंगे।
हिंदी साहित्य जिसकी हर विधा और उससे जुड़े नियमों को हिंदी साहित्य के सवर्ण साहित्यकार निर्धारित कर रहे थे जिसमें आत्मकथा विमर्श की बात की जाए तो वृद्धावस्था में, आराम से अपने व्यक्तित्व का अवलोकन करते हुए लिखना शामिल था उस आत्मकथात्मक कृतियों के इस सुनियोजित रीति को ओमप्रकाश वाल्मीकि ने 44 बरस की उम्र में अपनी आत्मकथा लिखते हुए धराशाई कर दिया था। इस उम्र में आत्मकथा लिखने पर ओमप्रकाश वाल्मीकि को लोगों से, मित्रों से बहुत कुछ सुनना पड़ा मसलन, “खुद को नंगा करके आप अपने समाज की हीनता को ही बढ़ाएंगे”, “आत्मकथा लिखकर आप अपनी प्रतिष्ठा ही ना खो दें।” इसके बावजूद उन्होंने आत्मकथा लिखी। अपनी मां और पिताजी को समर्पित करते हुए किताब की भूमिका में वह लिखते हैं, “उपलब्धियों की तराजू पर यदि मेरी इस व्यथा-कथा को रखकर तौलोगे तो हाथ कुछ भी नहीं लगेगा।”
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ओमप्रकाश वाल्मीकि को आत्मकथा लिखने के लिए विवश जिसने कर दिया था वह थे लेखक, प्रकाशक राजकिशोर। आत्मकथा का नाम ‘जूठन’ रखने का श्रेय ओमप्रकाश साहित्यकार राजेन्द्र यादव को देते हैं, उन्होंने पूरी पांडुलिपि पढ़ी और किताब का नाम ‘जूठन’ रख दिया। किताब के शुरुआती पन्नों को पढ़कर आसानी से समझ आता है कि इस आत्मकथा के संदर्भ में सवर्णों द्वारा उनके खाने के बाद का बचा-कुचा खाना जूठन होता है। शादी-ब्याह के अवसरों पर जूठी पत्तलें चूहड़ों को दे दी जाती थीं जिन में से बचा हुआ खाना इकट्ठा किया जाता था, पूरियों को सुखाकर रख लेते थे और बरसात के दिनों में जब खाने का बंदोबस्त नहीं हो पाता था तब इन्हीं पूरियों को पानी में उबालकर नमक लगाकर खाते थे।
बता दें कि ओमप्रकाश वाल्मीकि, वाल्मीकि जाति से थे जिन्हें हीनदृष्टि से देखा और गरिमाहीन नामों से बुलाया जाता था। इसमें उन्हें भंगी, चूहड़ा बोलना आम बात थी, जो आज भी जस के तस हैं। खाने-कमाने के लिए सवर्ण उनके श्रम का भरपूर इस्तेमाल करते थे, लेकिन मज़दूरी बहुत ही कम देते थे। इसीलिए उनके जीने का एक साधन ये जूठन ही साबित होती थी। शोषित वर्ग का श्रम सवर्णों द्वारा हमेशा ही चालाकी से इस्तेमाल किया गया है। वे इनके श्रम के बिना कुछ भी हासिल नहीं कर सकते लेकिन ऐसी परिस्थितियां पैदा कर देते हैं कि शोषित को पेट में रोटी भर पहुंचना ही काफ़ी लगता है। इसके संदर्भ में ओमप्रकाश लिखते हैं, “भूख के सामने विरोध दम तोड़ देता था।” उनके मोहल्ले के वे लोग जो रात को कम मज़दूरी पर काम ना करने का दृढ़ निश्चय कर लेते थे, सुबह भूख के कारण किसी भी कीमत पर मज़दूरी कर लेते थे।
अपनी मां और पिताजी को समर्पित करते हुए किताब की भूमिका में ओमप्रकाश लिखते हैं, “उपलब्धियों की तराजू पर यदि मेरी इस व्यथा-कथा को रखकर तौलोगे तो हाथ कुछ भी नहीं लगेगा।”
पढ़ने-समझने वाले की नज़र और चेतना पर निर्भर करता है कि वह ‘जूठन’ को सिर्फ़ एक साहित्यिक कृति (जिसमें अपरिपक्व भाषा, साहित्यिक सौंदर्य से अपरीपूर्ण के तर्क सवर्ण साहित्यकार, पाठक देते नहीं थकते की तरह देखते हैं) जिनको किताब में निहित यातनाएं महसूस नहीं होतीं या फिर समाज के उस हिस्से के जीवन की तरह देखते हैं जिसे लिख पाने में उन्हें हजारों वर्ष लगे हैं। ‘जूठन’ को सिर्फ़ एक साहित्यिक कृति तक सीमित करना साहित्य का समाज के साथ इंटरलॉक रिलेशन को भी ख़ारिज करने जैसा होगा। हम इस लेख में ‘जूठन’ में लिखीं मोटी-मोटी घटनाओं का ज़िक्र क्रमानुसार करते हुए विश्लेषण करेंगे। किताब का हर हिस्सा लिख देना आपको किताब पढ़ने के लिए विवश नहीं करेगा। जबकि इस लेख का उद्देश्य ‘जूठन’ की समीक्षा के साथ-साथ आप पाठकों को ‘जूठन’ पढ़ने के लिए मजबूर कर देना भी है।
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शिक्षक-विद्यार्थी के परंपरागत रिश्ते की सच्चाई
हम किसी भी राह चलते व्यक्ति से ये सवाल करें कि क्या इस देश में शिक्षक का अपने विद्यार्थी के साथ रिश्ता जाति, धर्म, जेंडर, वर्ग से स्वतंत्र होता है? तब वह बिना समय लिए इस सवाल का जवाब ‘हां’ में देंगे। लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि के अनुभव इस पूरे भ्रम को तोड़ने के लिए पर्याप्त हैं। स्कूल में दाखिले के बाद, अध्यापकों द्वारा स्कूल के मैदान को भरी धूप में साफ़ करवाना, पढ़ने ना देना, पूरी कक्षा में जातिसूचक शब्द, गालियां इस्तेमाल करते हुए ओमप्रकाश को अपमानित करना। उनके दोस्त सुक्खन सिंह को उसके फोड़े पर घूंसे जड़ देना क्योंकि वह चमार जाति से था। ऐसा उन्होंने अपने शैक्षणिक जीवन के आखिरी वक़्त तक भोगा कि कोई भी अध्यापक सबसे पहले उनसे उनकी जाति पूछता और फिर जाति अनुरूप ही उनसे व्यवहार किया जाता। ऐसे अनुभवों के साथ शोषित वर्ग का कोई भी बच्चा अपने शिक्षक को कभी सम्मान की दृष्टि से नहीं बल्कि ऐसे व्यक्ति के तौर पर देखते हैं जिनके लिए शिक्षा देने से ज़्यादा ज़रूरी उनकी जाति श्रेष्ठता है इसीलिए शिक्षक-विद्यार्थी का रिश्ता भी जाति से स्वतंत्र नहीं है। यह एक कड़वी हकीकत है जिसे ओमप्रकाश ने ज़ोर देकर लिखा है।
बाबा साहब आंबेडकर के जीवन की घटना जब ओमप्रकाश वाल्मीकि के साथ घटी
बाबा साहब आंबेडकर की बचपन की एक घटना है जहां बाल काटने वाला व्यक्ति उनके बाल नहीं काटता लेकिन किसी पशु के बाल काट सकता था यानि पशु किसी तथाकथित नीची जाति के व्यक्ति से श्रेष्ठ है। ठीक ऐसा ही ओमप्रकाश के साथ घटता है जब वह स्कूल के लिए अपनी ड्रेस पर इस्त्री कराने जाते हैं जहां इस्त्री वाला जो खुद धोबी जाति से था वह कपड़े इस्त्री करने से मना कर देता है और कहता है, “चूहड़े-चमारों के कपड़े नहीं धोते ना ही इस्त्री करते हैं वरना तगा उनसे काम नहीं कराएंगे।” इसी घटना के बाद ओमप्रकाश वाल्मीकि नास्तिक हो गए और किताब में इस घटना की व्याख्या के बाद लिखते हैं, “गरीबी और अभाव से किसी भी तरह निबटा जा सकता है, जाति से पार पाना उतना ही कठिन है।” इससे ये साफ़ समझा जा सकता है कि जाति व्यवस्था ने इस तरह की सामाजिक संरचना रची है कि जो सवर्ण जिन्हें नीची जाति समझते और कहते हैं उनके अंदर भी ये भावना भरी गई कि आपकी ही जाति में आपसे नीचे भी जाति है, आप श्रेष्ठ हैं लेकिन सवर्णों से नीचे हैं और श्रेष्ठ होने के इस भाव को एक जाति से दूसरी जाति में पहुंचाया। वे जाति जो सवर्णों के काम आ सकती थीं उन्हें श्रेष्ठता के भाव से लबरेज किया और हुआ ये कि जो शोषित एक हो जाना चाहिए था उनमें खुद में लकीरें खिंच गईं।
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सबाल्टर्न सांस्कृतिक रीतियां
इस देश के सवर्ण या कहें कि तथाकथित मुख्यधारा को अपनी संस्कृति पर इतना गर्व है कि उन्हें लगता है हर जगह उन्हीं की संस्कृति सर्वोपरि है लेकिन ‘जूठन’ पढ़ने पर यह भ्रम भी खत्म हो जाएगा। शोषित वर्ग के लोगों के देवी-देवता क्षेत्रीय होते हैं यानि हर समुदाय के हर जगह अलग देवता, अलग परंपरा। ओमप्रकाश क्षेत्रीय देवता का ज़िक्र करते हैं जिन्हें उनके समुदाय में ‘पौन’ कहा जाता था। कलवा, हरि सिंह नलवा विशिष्ट और बड़े पौन थे जो ज़्यादातर परिवारों में पूजे जाते थे। मदारन नाम की देवी भी प्रमुख थीं। हिन्दू समझे जाने वाले ये लोग हिन्दू देवताओं की पूजा नहीं करते थे। कृष्ण की बजाय जाहरपीर या पौन पूजे जाते थे, दीपावली पर लक्ष्मी के पूजन की बजाय माई मदारन के नाम पर सूअर का बच्चा चढ़ाया जाता था। इसके अलावा ओमप्रकाश विधवा विवाह का ज़िक्र भी करते हैं यानि जिस विवाह की इजाज़त हिन्दुओं यानी सवर्णों में नहीं थी वो इन समुदायों में आम बात थी। इसीलिए जब भारत के संदर्भ में पितृसत्ता की बात होती है तब उसे ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ कहा जाना उचित है। वहीं, किताब में एक जगह देहरादून के ज़िक्र में ओमप्रकाश लिखते हैं कि वहां पशु बलि आम बात थी, देवी खेरावदनी के मंदिर में प्रति वर्ष भैंसों की बलि देने की प्रथा थी। इसका शुभारंभ एक पंडित भैंस की पूजा करने से करता था। देवभूमि की वास्तविकता ओमप्रकाश ने बिना लाग-लपेट के लिखी है। वे सवर्ण जो पशु प्रेमी बनते हैं उनका इतिहास पशु बलि का इतिहास है।
मानसिक रूप से आहत करती जाति व्यवस्था
बहुत लोग इस पक्ष के साथ आते हैं कि अगर उन्होंने शारीरिक जातीय हिंसा नहीं झेली है तो उनके लिए पूरा कास्ट डिस्कॉर्स ही ज़रूरी नहीं रह जाता। ‘जूठन’ को जब पढ़ेंगे तो देखेंगे शारीरिक हिंसा ना के बराबर है लेकिन मानसिक हिंसा के शिकार रहे ओमप्रकाश वाल्मीकि, जिसका ज़िक्र उन्होंने किया। अपना विरोध भी उन्होंने बहुत बेहतरीन तरीके से दर्ज किया है। किताब में एक घटना का ज़िक्र है। जब पिताजी के व्यस्त होने के चलते ग्राहक ओमप्रकाश को ही बलि के लिए ले जाता है। छोटे ओमप्रकाश को ये सब पसंद नहीं था। वह डरता था लेकिन चूंकि वह वाल्मीकि जाति में पैदा हुआ था, उसका उस जाति में पैदा होने भर से वह उस जाति के मत्थे मढ़े काम को करना चाहता है भी या नहीं जैसा कोई सवाल उससे नहीं पूछा गया। उसने बलि दी डरते-डरते, आधी ही दे पाया कि ग्राहक ने डांट दिया। इस घटना का छोटे ओमप्रकाश पर इतना असर हुआ कि वह घर जाकर मां से लिपटकर रोने लगा और ये काम कभी भी ना करने की रट लगाता रहा। जाति मानसिक रूप से भी जब परेशान करती है तब भी वह जातीय हिंसा ही है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि का साहित्य से परिचय
इंटर तक पढ़ने के बाद ओमप्रकाश जब बाहर गए तो लाइब्रेरी में नौकरी करने लगे। वहां उन्होंने हिंदी साहित्य में मुंशी प्रेमचंद से लेकर शरतचंद्र तक को पढ़ डाला। यहां से उनकी समझ साहित्य को लेकर बढ़ने लगी। हालांकि उन्हें साहित्य में रुचि स्कूल के दिनों से ही थी। एक कक्षा के दौरान वह अपने मास्टर को पूछते हैं कि किसी भी साहित्यकार ने उनपर कोई महाकाव्य क्यों नहीं लिखा? जिस पर मास्टर ने उन्हें गालियां सुना दी। सुमित्रानंदन पंत की गांव को बढ़िया दृष्टि से दिखाती कविता पर ओमप्रकाश रोष जताते हैं क्योंकि जिस गांव से ओमप्रकाश परिचित थे वह सुमित्रानंदन पंत की कविता के विपरीत था। इस घटना के बाद वह आलोचनात्मक दृष्टि से साहित्य पढ़ने लगे थे। आगे जब उनकी ऑर्डिनेंस फैक्टरी में नौकरी लगी और उसकी एक प्रतियोगिता पार करते हुए रायपुर के प्रशिक्षण संस्थान के छात्रावास पहुंचे तो वहां उनके साहित्य का दायरा बढ़ता गया। उनके दोस्त ने बाबा साहब आंबेडकर से उनका परिचय करवाया और उनकी जीवनी पढ़ने दीं। बाबा साहब से प्रभावित ओमप्रकाश वाल्मीकि राजनैतिक चेतना से भरते हुए जाति विरोधी होने लगे। गांधी का प्रभाव उन पर खत्म हो रहा था और वह हरिजन जैसे शब्द के से खिलाफ खड़े हुए। रायपुर के बाद जबलपुर जाना हुआ तो यहाँ से उन्होंने मार्क्सवादी साहित्य पढ़ना शुरू किया जिसमें ‘गोर्की की मां’ उपन्यास ने उन्हें झकझोर कर रख दिया। यहीं रहते हुए नाटक लिखने लगे, कहानियां लिखने लगे। बतौर ओमप्रकाश वाल्मीकि, साहित्य ने उन्हें मुखर बनाया फिर अपनी नौकरी के चलते जब वह बॉम्बे गए तो मराठी दलित साहित्य से परिचित हुए जिसने उनकी चेतना पर गहरा असर किया। यहीं से वह अभिनय और निर्देशन की दुनिया में भी कदम रखते हैं। 70-80 के दशक में कवि नामदेव ढसाल, बाबूराव बागुल, नारायण सुर्वे, आदि के साथ जाति विरोधी आंदोलन से जुड़े और सक्रिय भागीदारी की।
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प्रेम जाति से परे है
अधिकतर यह बात बहुत ज़ोर लगाकर कही जाती रही है कि प्रेम जाति, धर्म सबसे परे है। लेकिन ‘जूठन’ आपके इस भ्रम को भी चकनाचूर कर देती है। बॉम्बे में रहते वक़्त ओमप्रकाश वाल्मीकि साहब का परिचय कुलकर्णी से होता है जो कि एक मराठी ब्राह्मण थे। वाल्मीकि साहब को यह बाद में मालूम हुआ कि वे लोग उन्हें वाल्मीकि उपनाम की वजह से ब्राह्मण समझ रहे थे। उससे पहले कुलकर्णी की बेटी सविता उनकी तरफ आकर्षित होने लगी थी लेकिन जैसे ही ओमप्रकाश ने उसे बताया कि वह चूहड़ा, एक अछूत जाति से हैं तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि ठीक ठाक दिखने वाला, स्वच्छ आदमी चूहड़ा कैसे हो सकता है। वह प्रेम जो जाति जानने से पहले परवान चढ़ रहा था, जाति जानने के बाद अचानक से खत्म हो गया।
अस्मिता के सवाल पर लड़ते रहने वाले साहित्यकार
‘जूठन’ पढ़ते-पढ़ते जब ख़त्म होने की कगार पर आएगी तब आप अस्मिता यानि आइडेंटिटी पर ओमप्रकाश वाल्मीकि का विश्लेषण कर ले जाएंगे कि उनका पूरा संघर्ष इस बात निर्भर करता रहा कि वे ‘वाल्मीकि’ उपनाम को लेकर इस समाज में कैसे जी सकते हैं। उनका उपनाम स्ट्रगल फॉर सर्वाइवल बन चुका था। उनके स्कूल से लेकर कॉलेज, फिर ऑर्डिनेंस फैक्टरी में नौकरी करते हुए तमाम अलग-अलग जगहों पर मकान ढूंढने की जद्दोजहद नाम पर खत्म हो रही थी। किसी ने भी वाल्मीकि उपनाम जाना कि संघर्ष दोगुना-तिगुना हो जाता। लेकिन वह इससे लड़ते रहे, जब उनकी पत्नी चंदा उनसे कहती रहीं कि वह अपना नाम बदल लें तब भी उन्होंने एक ना सुनी। जिस अस्मिता की वजह से उन्होंने शोषण झेला, वे उसी अस्मिता की लड़ाई बखूबी लड़ रहे थे। जब कुलकर्णी का परिवार उन्हें ब्राह्मण समझता था, तब सामने से वो अपनी अस्मिता बताते हैं। अस्मिता छुपाकर जीना, जीवन जीने का एक सरल उपाय हो सकता है, लेकिन अस्मिता को स्वीकार करते हुए, पूरे तंत्र से लड़ते जाना समाज में बेहतरी लाने कि, समतामूलक समाज स्थापित करने का जरिया है। किसी की भी अस्मिता गरिमाहीनता, शोषण की वजह नहीं होनी चाहिए और अगर है तो उसके खिलाफ़ कैसे लड़ना है, इसका यथार्थ उदाहरण ओमप्रकाश वाल्मीकि हैं।
ओमप्रकाश वाल्मीकि का 17 नवम्बर 2013 को कैंसर के चलते, 63 वर्ष की उम्र में परिनिर्वाण हो गया था। उन्हें बहुत से पुरस्कारों से भी नवाज़ा गया था, जैसे डॉक्टर आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार 1993, साहित्य भूषण सम्मान 2006, न्यूयॉर्क अमेरिका सम्मान 2007, आदि। लेकिन एक सवाल जिससे मैं जूझ रही हूं वह यह है कि अब तक ओमप्रकाश वाल्मीकि को साहित्य अकादमी सम्मान क्यों नहीं दिया गया? क्या सवर्ण साहित्यकारों के गले से अभी भी ये नहीं उतर रहा है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि ने जातिगत व्यवस्था ती बखिया उधेड़ कर रख दी थी। अगर ऐसा है तो ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी मृत्यु उपरांत भी अस्मिता के सवाल पर पूरे सवर्ण सिस्टम को चुनौती देकर गए हैं। ‘जूठन’ हर उस व्यक्ति को पढ़नी चाहिए जिसे लगता है कि नाम, जाति, वर्ग सिर्फ समाज का एक नियम है उनके साथ कुछ भी, कैसा भी विशेषाधिकार या शोषण नहीं जुड़ा है। अस्मिता के सवाल की लड़ाई से जूझते रहने वाले व्यक्ति के लिए ‘जूठन’ चेतना पैदा करने और व्यक्तित्व में मुखरता, संघर्ष की भावना पैदा करने वाली साहित्यिक कृति है।
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तस्वीर साभार : Round Table India
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