दलित साहित्य सुनते ही हमें हिंदी दलित साहित्य के पुरुष लेखक याद आने लगते हैं जबकि दलित महिला लेखिकाओं का बराबर का योगदान दलित साहित्य में है। इसीलिए आज हम आपको बताने जा रहे हैं दलित महिला लेखकों की वे पांच किताबें जो आपको पढ़नी चाहिए।
1- सुशीला टाकभौरे की आत्मकथा ‘शिकंजे का दर्द’
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शिकंजे का मतलब किसी जाल में पकड़े जाना जिससे छूटने के लिए व्यक्ति तड़पने लगता है। दलित महिला का जीवन ब्राह्मणवादी पितृसत्ता, जाति, जेंडर, वर्ग के चौतरफा संघर्ष के शिकंजे में कैसे फंसा रहता है और वह उससे मुक्ति के लिए कितना तड़पते हुए संघर्ष करती है उसी संघर्ष को सुशीला टाकभौरे की आत्मकथा ईमानदारी से रखते हुए नज़र आती है। बाल विवाह से बचते हुए पढ़ाई के लिए धरने पर बैठने से लेकर वह जिस समुदाय से आती थीं (वाल्मीकि समुदाय से) उसके रीति रिवाजों का हिन्दू धर्म से अलग होने को लिखते हुए, शादी के बाद घरेलू हिंसा को ज़बरदस्त रोष से किताब में व्यक्ति करती हैं। जीवन के हर पड़ाव को मज़बूती से पार करती हैं। एक दलित महिला के संघर्ष किस तरह सवर्ण महिला से अलग होते हैं इसे साक्षात महसूस करने के लिए सुशीला टाकभौरे की आत्मकथा पढ़ना एक अच्छा चुनाव है।
2- रजनी तिलक का काव्य संग्रह ‘पदचाप’
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रजनी तिलक दलित साहित्य की प्रमुख कवयित्रियों में से एक हैं। उनके दो काव्य संग्रह अब तक हमारे बीच हैं। जिनमें से उनके अनुसार उनका पहला काव्य संग्रह पदचाप है जो 2000 में प्रकाशित हुआ था। साहित्य में कविता की विधा किसी से अछूती नहीं है लेकिन इस कविता को राजनीति से पूरी तरह रजनी तिलक ने जोड़ा। पदचाप का मतलब पैरों से चलते वक़्त उनसे पैदा हुई ध्वनि है यानि रजनी अपनी कविताओं से ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के खिलाफ, जाति व्यवस्था के खिलाफ अपने शब्द पैने करती हैं, समावेशी नारीवाद की पक्षधर हैं। तमाम राजनीति नरसंहारों का ज़िक्र वे अपनी कविताओं में करती हैं, 2002 के गुजरात दंगों के खिलाफ भी लिखती हैं और बच्चों को हिंसात्मक बनाने का विरोध भी उनके शब्द करते नजर आते हैं। एक दलित महिला कवयित्री देश की राजनीति को कैसे देखती है उसे समझने के लिए रजनी तिलक की कविताएं अच्छा माध्यम हैं।
3- अनीता भारती का कहानी संग्रह ‘एक थी कोटेवाली’
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अनीता भारती वर्तमान में दलित लेखक संघ की अध्यक्ष हैं, कवियित्री, लेखिका, आलोचक, कहानीकार हैं। एक थी कोटेवाली कहानी संग्रह में अनीता भारती आरक्षण को लेकर जो मानसिकताएं अच्छे खासे शैक्षणिक संस्थानों में पनप रही हैं उनकी यथास्थिति को पाठक के समक्ष रख रही हैं। कहानी में गीता नाम की दलित शिक्षिका का स्कूल की सवर्ण औरतों से कोटा यानी आरक्षण को लेकर संघर्ष दिखाया है। अनीता भारती दलित स्त्रीवाद पर मुखरता से अपनी बात रखती हैं। वह दलित स्त्री के प्रश्न को अपने ढंग से उठाती हैं। प्रस्तुत कहानी दलित स्त्री के कार्यस्थल यानी स्कूल में व्याप्त जातिगत विसंगतियों को बेनकाब करती है। वे लोग जो इसके पक्षधर हैं कि शैक्षणिक संस्थानों में, शहरों में, किसी भी तरह की शारीरिक या मानसिक जातीय हिंसा नहीं होती उन्हें अनीता भारती का कहानी संग्रह ज़रूर पढ़ना चाहिए।
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4- कौशल्या बैसैंत्री की आत्मकथा ‘दोहरे अभिशाप’
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कौशल्या बैसैंत्री ने हिंदी दलित साहित्य की पहली आत्मकथा दोहरे अभिशाप लिखी है। कौशल्या ने अपनी आत्मकथा में निजी जीवन के संघर्ष, युवावस्था से ही जाति विरोधी आंदोलन में सक्रियता, जातीय हिंसा के साथ साथ दलित महिलाओं पर ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के जुल्मों के बारे में, सामाजिक कुप्रथाओं जैसे बाल विवाह, बहुविवाह, अनमोल विवाह के बारे में भी लिखती हैं। वे लिखती हैं कि उनके जातीय समुदायों में विधवा विवाह की प्रथा थी लेकिन उसके अलग नियम थे और वे इन्हीं नियमों के खिलाफ थीं जैसे विधवा की शादी रात के वक़्त होती और रात में ही पति घर भेज दी जाती ताकि लोग उसे ना देख लें और कोई अपशगुन ना हो जाए। एक दलित महिला अपने आस पास के रोज़मर्रा जीवन को किस तरह से देखती है, मूल्यांकन करती है उसे समझने के लिए ये आत्मकथा पढ़ी जानी चाहिए।
5- शांताबाई कांबले की आत्मकथा ‘माझ्या जालमाची चित्तरकाथा’
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शांताबाई कांबले द्वारा लिखित “माझ्या जलमाची चित्तरकाथा ( अंग्रेजी में केलिडोस्कोप ऑफ माई लाइफ से अनुवादित)” 1983 में प्रकाशित पहली दलित महिला आत्मकथा है। जैसा कि किताब के नाम से मालूम हो ही रहा है कि ये तमाम भिन्न अनुभवों को एक साथ लिखने की बात है जिन्हें अलग अलग तरह से भोगा गया है जिस वजह से पूरा जीवन तमाम तरह के अनुभवों का चित्र है। शांताबाई अपनी आत्मकथा में श्रम के सेक्सुअल डिवीजन के बारे में लिखती हैं। बचपन में खाने के अभाव में भूख की तड़प से लेकर एक दलित महिला के जाति, वर्ग और जेंडर के संघर्ष को आत्मकथा की मुख्यपात्र नाजा के जरिए कहती हैं। ये कृति फ्रेंच भाषा में भी अनुवादित हुई और नाजुका नाम नाटक से इसका प्रसारण मुंबई दूरदर्शन पर भी हुआ। इस तरह दलित साहित्य में भी नारीवाद के नज़रिए से आत्मकथा लिखी गई जिसका संघर्ष जाति और वर्ग के आधार पर भी उतना था जितना कि जेंडर के आधार पर। इसीलिए इस किताब को दलित महिला के संघर्षों के प्रति एक ठीक समझ डेवलप करने के लिए पढ़ा जाना चाहिए।
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