इंटरसेक्शनलजाति शीतल साठे : जाति-विरोधी आंदोलन को अपनी आवाज़ के ज़रिये सशक्त करती लोकगायिका

शीतल साठे : जाति-विरोधी आंदोलन को अपनी आवाज़ के ज़रिये सशक्त करती लोकगायिका

हम आज उस लोक गायिका की बात करने जा रहे हैं जिनका नाम है शीतल साठे जो कि एक लेखिका, कवयित्री, मानवाधिकार कार्यकर्ता भी हैं।

“ऐ भगत सिंह तू ज़िंदा है हर एक लहू के कतरे में।”

हम आज इन पंक्तियों को अपनी आवाज़ देनेवाली उस लोक गायिका की बात करने जा रहे हैं जिनका नाम है शीतल साठे। शीतल साठे महाराष्ट्र की ‘शाहिरी परंपरा’ को आगे बढ़ाते हुए पूरे देश में उसका प्रचार-प्रसार करने वाली शाहिर (काव्य को गाने के रूप में प्रस्तुत करने वाले गायक) हैं, एक लेखिका, कवयित्री, मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। उनके गाने अधिकतर महिलाओं, दलितों के मुद्दे पर होते हैं। संगीत को वह सांस्कृतिक क्रांति का एक महत्वपूर्ण अंग मानती हैं।

बता दें कि महाराष्ट्र में शिवाजी के दौर में प्रगतिशील संगीत का उदय हुआ जिससे शाहिरी का जन्म हुआ। इससे पहले संत तुकाराम, संत नामदेव धार्मिक आंदोलनों को अपने गीतों के ज़रिये सशक्त कर रहे थे। नाना पाटिल आंदोलन, कम्युनिस्ट आंदोलन से अन्नाभाऊ साठे, अमर शेख़ ने यह परंपरा बढ़ाई। इनसे प्रेरणा लेते हुए आंबेडकरवादी जलसाकार वामन दादा कर्णक, भीमराव कार्णक से होती हुई आज ये लोक की वह शाहिरी परंपरा बन चुकी है जिससे लोकतंत्र के सवाल, लोक के मुद्दे, सामाजिक न्याय के मुद्दे पुरजोर रूप से लोगों के बीच संगीत, गानों के माध्यम से रखे जाते हैं।

साल 1985 में पुणे के एक शहर कासेवाडी में शीतल साठे का जन्म हुआ। एक मराठी चैनल को दिए गए अपने एक इंटरव्यू में शीतल कहती हैं कि उनके घर में भक्ति गानों का एक वातावरण था जिससे वह सांस्कृतिक चीज़ों से परिचित हो रही थीं। उनकी मां और खासतौर से उनकी दादी भक्ति गायन करती थीं जहां से फिर उनका भी संगीत, गानों के प्रति रुझान बढ़ने लगा। आगे वह बताती हैं, “हमारे घर में शिक्षा की परंपरा नहीं थी, लेकिन मेरी मां को लगता था कि उनके बच्चे पढ़कर अपना नाम कमाएं, इसलिए उन्होंने मेरा एक स्कूल में दाखिला करवाया।” इस इंटरव्यू में शीतल साठे आगे कहती हैं, “मेरे पास हमेशा बाबा साहेब आंबेडकर के विचार थे, उसके बाद मैं मार्क्सवादी विचार से भी परिचित हुई। कबीर कला मंच के मेरे साथियों ने मेरे व्यक्तित्व के विकास में बहुत योगदान दिया है।”

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शुरुआती स्कूली शिक्षा के बाद शीतल साठे ने उच्च शिक्षा के लिए पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज में दाखिला ले लिया। अपने कॉलेज से इतर भी उन्होंने लोगों के साथ जान-पहचान बनाई जिसके कारण उनका तीन जनवरी, सावित्रीबाई फुले की जयंती के दिन पहली बार फुले वाडा जाना हुआ जहां उन्होंने संभाजी भगत को कार्यक्रम करते देखा। वह साल 2004 में सांस्कृतिक संगठन, कबीर कला मंच से जुड़ गईं, जो 2002 में गुजरात दंगों के समय महाराष्ट्र में बना था। अपने गानों, नाटकों के माध्यम से ये संगठन लोगों में लोकतंत्र और जाति-विरोधी चेतना पैदा करने का काम करता है।

शीतल ने भी गाना शुरू कर दिया। जब वह बस्तियों में उनके मुद्दों पर और बाबा साहेब के गाने गातीं तब उन्हें लोगों से बहुत अच्छी प्रतिक्रिया और सहयोग, हिम्मत मिलती। आगे चलकर उन्होंने कबीर कला मंच के अपने साथी कॉमरेड सचिन माली से शादी कर ली। यह शादी अंतर्जातीय थी इसीलिए दोनों ही तरफ़ के परिवारों से इन्हें ख़ास रज़ामंदी नहीं मिली। कबीर कला मंच से जुड़े रहने की वजह से दोनों ही लोगों का अलग-अलग जगहों पर जाना होता रहा और गानों के माध्यम से लोगों में जाति विरोधी चेतना का प्रसार करते रहे। इस बीच 29 सितंबर 2006 में महाराष्ट्र के भंडारा ज़िले में खैरलांजी हत्याकांड हुआ जिसमें एक दलित परिवार की गांव के लोगों द्वारा वीभत्स हत्या कर दी जाती है। इस घटना ने पूरे महाराष्ट्र और आस-पास के राज्यों के लोगों को हिलाकर रख दिया।

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खैरलांजी हत्याकांड घटना के बाद शीतल, सचिन और कबीर कला मंच के कुछ साथियों ने पूरे महाराष्ट्र में घूमने की योजना बनाई यह सोचते हुए कि कब तक अत्याचारों को सहा जाए, अब ये समय है कि सरकार से सीधे सवाल किए जाएं। सरकार ने जवाब तो नहीं दिए लेकिन अपने गायन से मानवाधिकार की बात करती साठे और उनके संगठन, कबीर कला मंच पर 2013 के शुरुआती महीनों में नक्सलियों और माओवादियों से जुड़े रहकर देशद्रोही गतिविधियों में सम्मिलित होने के आरोप लगा दिए और शीतल, सचिन को माओवादी घोषित कर दिया। मंच के कुछ लोगों की गिरफ्तारी महाराष्ट्र पुलिस ने गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत की जिसमें शीतल साठे और उनके साथी सचिन माली को भी पुलिस गिरफ्तार करने की पूरी कोशिश में थी। इस बीच दोनों लोग और चार और लोग पुलिस से छिपे रहे लेकिन कुछ दिन छिपे रहने के बाद शीतल,सचिन और बाकी कार्यकर्ताओं ने बॉम्बे पुलिस हेडक्वार्टर के सामने धरना देकर नक्सलियों से जुड़े रहने की खबर को सिरे से नकारते हुए, इस मामले में ख़ुद को निर्दोष बताते हुए अपनी गिरफ्तारी 2 अप्रैल 2013 को दी। गिरफ्तार हुए दीपक डेंगले और सिद्धार्थ को अप्रैल माह में ही बॉम्बे हाईकोर्ट ने जमानत दे दी लेकिन बाकियों की ख़ारिज कर दी। शीतल साठे उस वक़्त गर्भवती थीं लेकिन फिर भी उन्हें तुरंत जमानत नहीं मिली। तीन माह बाद 28 जून 2013 को मानवीय आधार पर बॉम्बे हाईकोर्ट ने जमानत दी लेकिन सचिन माली समेत सागर गोरखे, रमेश घैचोर को इस मामले में जमानत होने में तीन साल का वक़्त लगा। उन्हें 13 जनवरी 2017 में सुप्रीम कोर्ट से ज़मानत मिली। 

इस तीन साल के दौरान भी शीतल ने सचिन समेत बाकी साथियों की रिहाई के लिए मुहीम चलाई। साल 2016 में न्यूज़क्लिक को दिए अपने इंटरव्यू में शीतल कहती हैं कि सचिन के जेल जाने के बाद उनके बेटे का जन्म हुआ, जो वक़्त जो किसी भी मां बाप के लिए अहम होता है उसे हम तीनों ने मिस किया जो शायद अब कभी वापस नहीं आ सकता। हमारे मानवाधिकारों तक का उल्लंघन किया गया।” इसी इंटरव्यू में पत्रकार शीतल से पूछते हैं कि वह खुद को क्या मानती हैं, वह एक आंबेडकरवादी हैं, मार्क्सवादी, नक्सलवादी या माओवादी हैं? इसके जवाब में शीतल कहती हैं कि नि:संदेह वह नक्सलवादी और माओवादी नहीं हैं क्योंकि हिंसा का सहारा लेकर इस देश में कभी क्रांति नहीं आ सकती। वह शुरू से आंबेडकरवादी, फूलेवादी हैं, बाकी हर प्रगतिशील विचारधारा से आते हुए लोगों के वह साथ हैं।

आज शीतल साठे, उनके गीतों से एक बड़ी संख्या में लोग परिचित हैं। डॉक्यूमेंटरी फिल्ममेकर आनंद पटवर्धन की फिल्म ‘जय भीम कॉमरेड’ में शीतल साठे गाते हुए और ख़ुद के बारे में बताते हुए नज़र आती हैं। आनंद ने साल 2007 में फिल्म के लिए कबीर कला मंच की प्रस्तुतियां रिकॉर्ड की थीं जिनके साथ ही उन्होंने शीतल साठे का भी इंटरव्यू किया था। यह फिल्म विश्वविद्यालयों में, कॉलेजों में बहुत चली। जनवरी 2017 में सचिन के जेल से बाहर आने के बाद, सचिन माली और शीतल साठे ने मार्च 2017 में कबीर कला मंच को छोड़ दिया और ये स्पष्ट किया कि उनका अब कबीर कला मंच से कैसा भी, कोई भी वास्ता नहीं है जिसके बाद दोनों ने अपना नया संगठन ‘नवयान महाजलसा’ बनाने की घोषणा की जिसकी प्रेरणा वे बाबा साहेब आंबेडकर के ‘जाति का विनाश’ भाषण बताते हैं।

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तस्वीर साभार : India Resist