समाज ट्रोल युग में महिला हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ और चुनौतियाँ | नारीवादी चश्मा

ट्रोल युग में महिला हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ और चुनौतियाँ | नारीवादी चश्मा

हम चाहे जितनी भी आधुनिकता और प्रगतिशीलता की बात करें सच्चाई यही है कि आज भी समाज का एक बड़ा तबका पितृसत्ता की सड़ी सोच से पीड़ित महिलाओं का कट्टर विरोधी है।

प्रियंका उस दिन अचानक अपने मायके आ गयी और उसने अपने पति को तलाक़ देने का फ़ैसला किया। उसके इस फ़ैसले से सभी चौंक गए थे। मायके और ससुराल वालों ने प्रियंका को समझाने और इसके फ़ैसले की वजह जानने की कोशिश की लेकिन प्रियंका ने कुछ नहीं कहा। फिर एक स्वयंसेवी संस्था के दख़ल के बाद प्रियंका ने पूरे परिवार वालों को बताया कि उसका पति रोज़ दारू पीकर घर आता है और उसके साथ जबरदस्ती यौन-संबंध बनाता है, इस दौरान वो उसके साथ बुरी तरह मारपीट करता है। ये सब वो कई सालों से झेल रही थी, जिसके चलते उसे कई शारीरिक समस्याओं का भी सामना करना पड़ा। लेकिन वो जब कभी भी इसबात का ज़िक्र करने की कोशिश करती तो शादी का हवाला देकर हर कोई उसे चुप करवा देता।  

प्रियंका अकेली नहीं है, ऐसी ढेरों घरेलू हिंसा झेल रही महिलाएँ जो शादी के बाद बलात्कार का शिकार होती है। चूँकि ये हिंसा उनका पति उनके साथ कर रहा होता है, इसलिए हर बार शादी, रिश्ते, ज़िम्मेदारी और निभाने का हवाला देकर महिलाओं को चुप करवा दिया जाता है। पर दुर्भाग्यवश चूँकि महिला का बलात्कार उसका पति कर रहा है, जिनका रिश्ता शादी की संस्था से जुड़ा है, इसलिए ये हमारे भारतीय क़ानून और समाज की नज़र में अपराध के दायरे में नहीं आता है। इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे- 4 यह कहता है कि 31 फीसद विवाहित महिलाएं अपने पार्टनर द्वारा शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और यौन हिंसा का सामना करती हैं। यह सर्वे यह भी बताता है कि 15 से 49 साल की  83 फीसद शादीशुदा औरतें जिन्होंने कभी भी अपने जीवन में यौन हिंसा का सामना किया है उन्होंने इसके अपराधी के रूप में अपने पति को रिपोर्ट किया, वहीं 7 फीसद ने अपने पूर्व पति को इसका दोषी माना। इसमें सबसे ज्यादा पति द्वारा पत्नी पर उसकी मर्ज़ी के बिना सेक्स करने के लिए शारीरिक बल का इस्तेमाल शामिल है। यूनाइटेड नेशन पॉप्युलेशन फंड के अनुसार भारत में क़रीब 75 फीसद विवाहित महिलाएं मैरिटल रेप का सामना करती हैं। 

वहीं साल 2016 में तत्कालीन महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनिका गांधी ने भी यह तर्क दिया था कि मैरिटल रेप की अवधारणा जो अतंरराष्ट्रीय स्तर पर वह भारत के संदर्भ में शिक्षा, गरीबी और अन्य कारकों को ध्यान में रखें तो यह अवधारणा यहां लागू नहीं हो सकती।

कहने का मतलब ये है कि शादी के बाद बलात्कार की घटनाएँ समाज में छिपी नहीं है। लेकिन इसके बावजूद हमारे ज़नप्रतिनिधि, नीति-निर्माता और समाज इस अपराध को सिरे से ख़ारिज करता है। शादी के बाद होने वाले बलात्कार, जिसे मेरिटल रेप  कहते है उसपर अधिक जानकारी आप फ़ेमिनिज़म इन इंडिया की हिंदी विडियो से देख सकते है –

लेकिन ये लेख मेरिटल रेप पर चर्चा के लिए नहीं, बल्कि इसपर चर्चा करने के बाद सोशल मीडिया पर अपने सड़ी पितृसत्तात्मक सोच परोस रहे लोगों पर है। वो लोग जो समाज में संकीर्णता और पितृसत्ता के पोषक और वाहक भूमिका में है, जिन्हें चारहदिवारी के भीतर रहने वाली महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा और पति का अपनी पत्नी के साथ बंद कमरे में की जाने वाली हिंसा को उजागर करना या बोलना क़तई पसंद नहीं है।

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पितृसत्ता का महिलाओं की यौनिकता, अधिकार और अस्तित्व को अपने क़ाबिज़ रखने का सबसे बड़ा हथियार ये है कि – महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा पर बात न की जाए, ख़ासकर तब जब महिला की यौनिकता को पितृसत्ता की बनायी विवाह जैसी संस्थाओं में बांध दिया जाए। ऐसे में जब हम विवाह जैसी संस्था के ज़रिए महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को सही बताने लगते है या फिर उसे सिरे से नज़रंदाज करते है तो महिलाओं पर दोहरी हिंसा होती है। ऐसे में सवाल उठता है कि शादी की संस्था के अंदर होने वाली हिंसा की समस्या को कैसे दूर किया जाए, वो भी तब जब इस हिंसा को हमारे क़ानून में भी अपराध नहीं बताया गया है। चर्चा और जागरूकता ही एकमात्र किसी सामाजिक समस्या को उजागर करने का सबसे प्रभावी माध्यम है, लेकिन आधुनिक युग में सोशल मीडिया भी पितृसत्ता के कट्टर स्वरूप से अछूती नहीं है जिसका उदाहरण है इस विडियो पर लिखे गए कमेंट –

महिला हिंसा के मुद्दे को उजागर करती युवा महिला पत्रकारों के ख़िलाफ़ कैसी शब्दावली का इस्तेमाल किया जा रहा है। गालियों और यौन कुंठाओं से भरे इन कमेंट से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हम चाहे जितनी भी आधुनिकता और प्रगतिशीलता की बात करें सच्चाई यही है कि आज भी समाज का एक बड़ा तबका पितृसत्ता की सड़ी सोच से पीड़ित महिलाओं का कट्टर विरोधी है। वो महिलाओं को देवी बनाकर पूजने की पैरोकारी करते है, लेकिन अपने घर, समाज और परिवार की महिलाओं को उपभोग की वस्तु समझते है।

हम चाहे जितनी भी आधुनिकता और प्रगतिशीलता की बात करें सच्चाई यही है कि आज भी समाज का एक बड़ा तबका पितृसत्ता की सड़ी सोच से पीड़ित महिलाओं का कट्टर विरोधी है।

आज हर तरफ़ जब हम महिला अधिकार, समानता और सशक्तिकरण की बात कर रहे हैं तो ऐसे में आए दिन सोशल मीडिया पर महिलाओं को ट्रोल अभद्र भाषाओं में ट्रोल करना समाज की खोखली प्रगति को दर्शाता है, जिसके ख़िलाफ़ अगर आवाज़ नहीं उठायी गयी तो आने वाले समय में ये बड़ी सामाजिक समस्या होगी। जो लोग महिला-विरोधी भाषाओं और विचारों के साथ ये कमेंट लिखते है या अलग-अलग माध्यम से महिलाओं को ट्रोल करते है वो अपने घर और आसपास में महिलाओं के साथ कैसे व्यवहार करते होंगें इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।

बतौर महिला पत्रकार हम या हमारे साथी जब किसी मुद्दे या सामाजिक समस्या पर लिख रहे होते है तो सिर्फ़ उस समस्या के कारक को ही नहीं बल्कि महिला के बोलने और उनके स्पेस को क्लेम करने पर समाज के बड़े तबके को भी खटकते है, जिसकी तिलमिलाहट ट्रोल और उनके कमेंट से साफ़ देखी जा सकती है। लेकिन इन सबसे हमारे काम में कोई प्रभाव नहीं बल्कि मज़बूती आती है, जो हमें हर पल लिखने और बोलने के लिए प्रेरित करती है, क्योंकि हमारी हर आवाज़ में ट्रोल करने वालों का जितना विरोध होता है, उससे कई गुना ज़्यादा महिला हिंसा के ख़िलाफ़ खड़े लोगों का समर्थन होता है।

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