हमारे देश में लगभग 72 फीसद आबादी 40 वर्ष से कम उम्र की है, यानि युवा है। अधिकतर युवाओं की सुबह अपने फोन को निहारते हुए होती है, वे सोशल मीडिया को स्क्रोल करते हुए देखे जा सकते हैं। देश में महिलाओं की आबादी लगभग 50 फीसद है लेकिन क्या आपके आसपास की सभी महिलाओं की सुबह फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि से हो पाती है। सभी महिलाओं की न बात करें तो क्या युवा महिलाएं हाथ में फोन लिए सुबह-सुबह दिख जाती हैं? भारत में पुरुषों के मुकाबले ऐसी महिलाओं की संख्या बहुत कम है। यह चर्चा का विषय इसलिए होना चाहिए क्योंकि जहां आपको देश के चेहरे/आवाज़ सोशल मीडिया पर दिख जाते हैं, उनमें महिलाओं का हिस्सा कम क्यों है? महिलाओं के मुद्दे वे खुद क्यों सामने नहीं ला पाती हैं? महिलाओं की बातें केवल पुरुष ही क्यों सामने लाते हैं? इसमें भी दलित महिलाएं तो बिल्कुल ही कम दिखाई देती हैं।
शिक्षा और घर के काम और ज़िम्मेदारियों के बीच महिलाएं अपने आप को इतना उलझा लेती हैं कि उन्हें अमूमन अपने हक़ और अधिकार का भी नहीं पता होता। यहां ये भी कहा जा सकता है कि उन्हें घरेलू कामों में उलझा दिया जाता है। लोगों को जोड़ने और अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने में सूचना तकनीकी की बड़ी भूमिका रही है। गांव-कस्बों तक बात आसानी से पहुंचाई जा सकती है और वहां का भी कोई भी व्यक्ति अपनी बात बड़े नेता या मंत्रालय आदि तक अपनी बात पहुंचा सकता है। पिछले 10-15 सालों में मोबाइल फोन की भूमिका अहम रही है। इसकी वजह से गांव-कस्बों, शहरों में दलित या किसी के साथ भी होने वाले उत्पीड़न का दर्द साझा करने में आसानी हुई है। महिला उत्पीड़न के मुद्दे तेज़ी से फैले हैं।
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आंकड़ों की माने तो भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश हैं जो स्मार्टफोन का इस्तेमाल कर रहा है। एनडीटीवी की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 500 मिलियन लोग स्मार्टफोन का इस्तेमाल करते हैं, जिनमें 77 फीसद लोग फोन से इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। जो लगातार हर साल बढ़ रहा है। हालांकि इनमें महिलाओं और पुरुषों के बीच एक बहुत बड़ा फासला है। वहीं, GSMA की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 79 फीसदी पुरुषों के पास फोन है तो महिलाओं के पास केवल 63 प्रतिशत ही मोबाइल है। इनमें 42 प्रतिशत पुरुष फोन से इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं लेकिन यहां महिलाओं के प्रतिशत आधा हो जाता है, वे केवल 21 प्रतिशत महिलाएं ही फोन से इंटरनेट का इस्तेमाल करती हैं। इस रिपोर्ट में 15 देशों को शामिल किया गया था, जिनमें केवल ब्राज़िल ही ऐसा देश है जहां महिलाएं पुरुषों कि तुलना में फोन और इंटरनेट दोनों अधिक इस्तेमाल करती हैं।
पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं को दोयम दर्ज़े का तो समझा ही जाता है लेकिन यदि वह दलित, आदिवासी समुदाय की हुई तो उसे अपनी बात रखने या अपने मुद्दों को साझा करने लायक भी नहीं समझा जाता।
लेकिन दुख की बात ये है कि सोशल मीडिया, स्मार्टफोन और इंटरनेट इस्तेमाल के आंकड़ों में आज भी दलित महिलाएं नदारद हैं। बड़े-बड़े प्लेटफॉर्म पर उन्हें जगह नहीं दी जाती। वहां सोशल मीडिया जैसे प्लेटफॉर्म पर भी इनके साथ जेंडर और जाति दोनों के आधार पर भेदभाव होता है। सोशल मीडिया एक ऐसा प्लेटफॉर्म माना जा रहा था जहां इस तरह का वाकया शायद सुनने और देखने को ना मिले! लेकिन अगर आप सोशल मीडिया पर थोड़ा भी एक्टिव हैं तो आपको इस पर रिसर्च करने में ज्यादा मेहनत नहीं लगेगी। पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं को दोयम दर्ज़े का तो समझा ही जाता है लेकिन यदि वह दलित, आदिवासी समुदाय की हुई तो उसे अपनी बात रखने या अपने मुद्दों को साझा करने लायक भी नहीं समझा जाता। ये उस समय की बात की जा रही है जहां दुनिया चांद पर पहुंच गई हैं, जहां लोग आसानी से बोलते नजर आ जाते हैं कि 21वीं सदी में किसी भी तरह का भेदभाव नहीं होता, जहां सोशल मीडिया सबके लिए है और शोषित-वंचित के लिए असली मीडिया वही है। चूंकि मुख्यधारा की मीडिया में तो दलित का प्रतिनिधित्व ही नहीं है तो ऐसे महिलाएं वहां ढूंढ़ने से भी बहुत मुश्किल से मिलती हैं। वहीं, जैसे ही दलित महिलाओं की बात आती है तो उन्हें सोशल मीडिया से भी नदारद कर दिया जाता है।
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ऐसा करने वाले पुरुष हर जाति और हर धर्म में पाए जाते हैं। जो महिलाएं को आगे बढ़ने से ना केवल रोकते हैं बल्कि उनके मुद्दों को ओवरटेक करते हैं क्योंकि आज भी उन्हें लगता है कि महिलाओं के मुद्दें उठाने के लिए अभी वे मौजूद हैं और बहुजन महिलाएं इसके लायक ही नहीं हैं। इतिहास गवाह है कि दलित-आदिवासियों को पढ़ने-लिखने का मौका बहुत देर से मिला, जिसकी वजह से आज भी कई परिवार शिक्षा के अभाव में जीवन बिताते हैं। शिक्षा के बिना अच्छी नौकरी और जीवन के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। दलित-आदिवासी महिलाओं को तो आज भी शिक्षा, नौकरी, आदि से दूर रखा जाता है। ऐसे में कुछ महिलाए मुश्किलों और संघर्षों के बीच निकल आई हैं लेकिन उन्हें भी हमारे समाज का पितृसत्तात्मक तबका अपनाने को तैयार नहीं। इन सभी चिंताओं के बीच चुनिंदा प्रगतिशील और संवेदनशील लोगों के लिए कुछ सवाल हैं जिन्हें समय रहते एड्रेस नहीं किया गया तो असमानता की यह खाई बढ़ती चली जाएगी:
1- दलित-आदिवासी महिलाएं क्यों सोशल मीडिया से नदारद हैं?
2- क्यों वे अपने मुद्दे तय नहीं कर रही हैं?
3- क्यों ट्विटर पर दलित-आदिवासी समाज की महिलाएं ट्रेंड सेट नहीं कर पा रही हैं?
4- कब उन्हें एक समान भागीदारी मिलेगी?
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तस्वीर साभार : The Scroll