किताब: देह ही देश
लेखिका: गरिमा श्रीवास्तव
प्रकाशन: राजपाल पब्लिकेशन
मूल्य: 285 रुपये
दुनिया के रक्तरंजित इतिहास की यह एक सच्चाई है कि तमाम युद्धों का एक गुमनाम किरदार होती हैं औरतें। वे औरतें जिनके हिस्सें में क्रोध, हिंसा, यानता के वो पक्ष सिर्फ इसलिए आए क्योंकि वे औरतें हैं जिनका मूल इस धरती पर सिर्फ एक देह तक सीमित कर दिया गया। राष्ट्र की श्रेष्ठताओं और सरहदों के युद्ध के परिणामों में भी पीड़ित महिलाओं को बांट दिया जाता है। इन महिलाओं को हमेशा भुला दिया गया क्योंकि देह पर पड़े निशान को प्रस्तावित रिपोर्टो से ढक दिया जाता है। इस धरती की सामाजिक सच्चाई यह है कि यहां एक इंसान की पहचान उसकी देह बना दी गई है। एक औरत यातनाओं का सामना करती है सिर्फ इस शरीर के कारण। पुरुष और स्त्री के भेद को परिभाषित सिर्फ देह करती है और इसी कारण एक स्त्री विश्वभर में अन्याय का सामना करती है। पुरुष को प्यार जताना है तो स्त्री की देह चाहिए और नफरत में भी उसे स्त्री की देह चाहिए। इसी सोच ने एक स्त्री को सामाजिक परिपेक्ष्य में समानता से कभी शामिल ही नहीं किया।
राजपाल पब्लिकेशन के तहत छपी गरिमा श्रीवास्तव द्वारा लिखी ‘देह ही देश’ वह किताब है जो आपको स्त्री यातना की कड़वी सच्चाई बताती है। यह किताब सिर्फ डायरी नहीं है यह लड़ाइयों का वह रूप बयान करती है जो परिणामों में अक्सर भुला दिए जाते है। किताब जैसे-जैसे बढ़ती है आपको एक पीड़ा से भर देती है, स्त्री की युद्ध में झेले इन एहसासों को पढ़कर दिमाग में सवाल उठते हैं और जहनी तौर पर खुद में घायल सा महसूस होता है।
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अपने दो साल के क्रोएशिया प्रवास के दौरान लेखिका गरिमा श्रीवास्तव ने युगोस्लाविया के गृहयुद्ध के दौरान छोटे-छोटे भागों में बंटे नए देशों में से एक क्रोएशिया के इतिहास में महिलाओं के साथ घटित त्रासद कथा को अपनी डायरी में लिखा है। युद्ध ने कैसे सांस्कृतिक रूप से जुड़े देशों को एक-दूसरे का दुश्मन बना उन्हें नफरत की सारी हदें पार करने पर मजबूर कर दिया। इस भीषण युद्ध में बोस्निया, हर्जेगोविना और क्रोएशिया की महिलाओं को सिर्फ उनकी देह तक सीमित कर उन्हें शारीरिक, मानसिक दोनों हिंसा का सामना करना पड़ा। किताब में सर्ब सैनिकों के द्वारा किए गए सामूहिक हत्या, व्यवस्थित बलात्कार, शिविर में की गई हिंसा, सेक्स वर्क की मजबूरी का वर्णन बेचैनी पैदा करता है। सर्ब कैम्पों में महिलाओं की पहचान योनि तक सीमित कर उन्हें दी गई। क्रूर शारीरिक यातनाओं के वर्णन में महिलाओं के नाम ज़रूर बदलते हैं लेकिन उनके साथ हुई हिंसा की आपबीती का एक ही परिणाम निकलता है बेहद अधिक क्रूरता।
यह किताब सिर्फ डायरी नहीं है यह लड़ाइयों का वह रूप बयान करती है जो परिणामों में अक्सर भुला दिए जाते है। किताब जैसे-जैसे बढ़ती है आपको एक पीड़ा से भर देती है, स्त्री की युद्ध में झेले इन एहसासों को पढ़कर दिमाग में सवाल उठते हैं और जहनी तौर पर खुद में घायल सा महसूस होता है।
युद्ध और यौन हिंसा की शिकार लाखों-हजार औरतें एक देह में तब्दील हो गई और जीवन और स्मृतियों के नाम पर उनके पास रह गई सिर्फ और सिर्फ यातनाएं। वक्त बीतने के बाद भी युद्ध पीड़ित महिलाएं जीवन में दूसरी शुरुआत करने के बावजूद उस अतीत को नहीं भूला पाती है। उनके ही परिवार ने उन्हें इसलिए छोड़ दिया क्योंकि उनका बलात्कार हुआ था। युद्ध में बलात्कार, महिला हिंसा एक हथियार की तरह प्रयोग होता आ रहा है। चाहे वह राष्ट्र का युद्ध हो या फिर घर-परिवेश की लड़ाईयां ही क्यों ना हो। पुरुष की दुश्मनी में हमेशा एक महिला पीड़ित बना दी जाती है। इसी के साथ यह अनकहा नियम भी है कि औरतों के साथ जो भी घटता है वे उस पर बात नहीं करती हैं। यह भी कहा जा सकता है कि कोई उनकी बात सुनने में दिलचस्पी नहीं रखता है। लेखिका किताब में खुद कई जगह यह सवाल खुद से पूछती हैं कि इस लिखे को कभी कोई पाठक मिलेगा भी या नहीं।
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घृणित शारीरिक और मानसिक प्रताड़नाओं के ये नोट्स बेहद गंभीर रूप ले लेते हैं। लेखिका खुद में उस वक्त एक मुश्किल समय से गुज़रती नजर आती है। खुद को तनाव और अवसाद से बचाए रखने के लिए वह बीच-बीच में वह अपने परिजनों और मित्रों के साथ पत्र-व्यवहार का ज़िक्र करती हैं। इस दैहिक हिंसा के सफर में यह बदलाव पाठकों को भी उदासी के घेरे में फंसने से बचाता है। साथ ही पूरी किताब में उनकी शांतिनिकेतन की यादें और रविन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं का ज़िक्र दूसरी तरह से सजग रखता है। लेखिका खुद को मज़बूत और एकाग्र रखने के लिए लगातार ‘सिमोन द बाउवार’ और अन्य लेखकों का भी ज़िक्र कर इस पीड़ा की व्यथा को जीवन अनुभवों के अलग-अलग दृश्यों में रखती हैं। डायरी लेखन से उपजी यह वह यात्रा है जो यर्थाथ के गहरे घाव पैदा करती है।
शरीर पर लगे घाव, देह के कारण एक पल में बच्चियों का स्त्री हो जाना, अपनो के सामने अस्मिता का बिखरना, पश्चिम के स्त्रीवाद पर सवाल, खून से लिपटा शरीर शोषित पीड़ित स्त्रियां और उनके दुख की अनगिनत तहों को बयां करती यह किताब इंसान की उस त्रासदी को कहती है जो सिर्फ देह के अंतर मात्र से है। इतिहास में स्त्री के संघर्ष और समस्याओं को कहती यह किताब अतीत और वर्तमान दोनों नीतियों पर सवाल खड़ा करती है। यौन हिंसा के संबंध में जारी रिर्पोट के आंकड़ों और वास्तविकता के अंतर पर जवाब मांगती है। वर्तमान तक युद्कालीन यौन हिंसा की ओर से राष्ट्रों की बंद आंखों को दिखाती है। यह सिर्फ एक डायरी नहीं है बल्कि उन तमाम औरतों की भय, घृणा की स्मृतियों का दस्तावेज है जिन्हें जानबूझकर भूला दिया जाता है।
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तस्वीर साभार : समकालीन जनमत