इंटरसेक्शनल बात विकलांग महिलाओं के पीरियड्स से जुड़ी चुनौतियों पर | नारीवादी चश्मा

बात विकलांग महिलाओं के पीरियड्स से जुड़ी चुनौतियों पर | नारीवादी चश्मा

आख़िर विकलांग महिलाओं में पीरियड से जुड़ी चुनौतियों का सवाल मुख्यधारा के स्त्री-विमर्श या महिला केंद्रित चर्चाओं से ग़ायब क्यों है?

‘जब पहली बार किशोरावस्था में मेरे पीरियड शुरू हुए तो मैं डर गयी थी। ऐसा लगा जैसे मुझे कोई बीमारी हो गयी है। ये बहुत डरावना अनुभव था। पहले दिन मैंने किसी को कुछ नहीं कहा, यही डर था कि अगर मम्मी को बताया तो डाँट पड़ेगी। लेकिन जब दूसरे दिन ब्लीडिंग ज़्यादा होने लगी तो रोते हुए मम्मी के पास जाना पड़ा।‘ मुझे तब लगा था कि ये सिर्फ़ मेरे साथ ही हुआ है, क्योंकि पीरियड को लेकर मेरी और मम्मी की बात पैड के इस्तेमाल और छुआछूत के नियम तक ही थी। धीरे-धीरे स्कूल में दोस्तों से पता चला कि ये सबको होता है।

सालों बाद कॉलेज से पढ़ाई पूरी करने के बाद जब गाँव में पीरियड के मुद्दे पर जागरूकता का काम शुरू किया तो सभी ट्रेनिंग में मेरा पहला सवाल होता कि ‘आप में से कितनी महिलाओं और लड़कियों का पहली बार पीरियड आया था तब आप डर गयी थी?’ अधिकतर महिलाएँ और लड़कियाँ एकसाथ इस सवाल पर अपने हाथ खड़े कर देती है। ऐसा सिर्फ़ इसलिए क्योंकि पीरियड शुरू होने से पहले आज भी लड़कियों को इसके बारे में कुछ नहीं बताया जाता है और पीरियड शुरू होने के बाद बात सिर्फ़ पैड और छुआछूत के नियम तक रह जाती है। अब आपको लगेगा कि अब कहाँ ये सब है? अगर आपको वाक़ई ऐसा लगता है तो इसपर दूर नहीं अपने घर में बात करके देखिए। सच्चाई यही है कि पीरियड पर फ़िल्म और उसके बाद तमाम सरकारी योजनाओं के आने के बाद पैड का इस्तेमाल करना हमने सीख लिया, लेकिन पीरियड पर स्वस्थ खुली बात करना और इसके मिथ्यों को तोड़ना बहुत दूर की बात लगती है। लेकिन आज बात पीरियड के मिथ्यों पर नहीं बल्कि इसके प्रबंधन की और जागरूकता तक पहुँच की, उन महिलाओं के संदर्भ में जिसपर हमने काम तो क्या सोचना भी ज़रूरी नहीं समझा है।

जब भी हम पीरियड की बात करते है तो इसे महिला या लड़कियों के संदर्भ में सोचते है। लेकिन इन महिला और लड़कियों की सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक विभिन्नता को लेकर सोचने के दिशा में अभी हम बेहद सीमित है। हमने तमाम फ़िल्मों, टीवी पर एड और योजनाओं के बहाने पीरियड पर चर्चा करना शुरू किया, लेकिन विकलांग महिलाओं और किशोरियों में पीरियड से जुड़ी समस्याओं और चुनौतियों को कभी भी समझने या इसे उजागर करने का प्रयास नहीं किया। साल 2011 की जनसंख्या के अनुसार, भारत में 2.68 करोड़ विकलांग व्यक्ति हैं (जो कि कुल जनसंख्या का 2.21 फ़ीसद है)। कुल विकलांग व्यक्तियों में से 1.50 करोड़ पुरुष हैं और 1.18 करोड़ महिलाएँ हैं। इनमें दृष्टि बाधित, श्रवण बाधित, वाक बाधित, चलन बाधित, मानसिक रोगी, मानसिक मंदता, बहु विकलांगताओं तथा अन्य विकलांगताओं से ग्रस्त व्यक्ति शामिल हैं। वहीं यूएन की रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया में क़रीब 15 फ़ीसद विकलांग लोग है, जिसमें 80 फ़ीसद लोग विकासशील देशों से है।

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बीते कुछ महीनों से हमलोगों ने जब अपनी संस्था के माध्यम से बनारस से दूर स्थित ग्रामीण क्षेत्रों में विकलांग महिलाओं और किशोरियों के साथ पीरियड के मुद्दे पर केंद्रित एक सर्वेक्षण करना शुरू किया, जिसके संदर्भ में विकलांग महिलाओं और उनके परिवार के लोगों से बात की गयी। इस सर्वेक्षण में कुल दस गाँव की पैंतीस विकलांग महिलाओं और किशोरियों को शामिल किया गया था। इस सर्वेक्षण में विकलांग महिलाओं के साथ पीरियड से जुड़े अनुभव बेहद निराश करने वाले थे।

आख़िर विकलांग महिलाओं में पीरियड से जुड़ी चुनौतियों का सवाल मुख्यधारा के स्त्री-विमर्श या महिला केंद्रित चर्चाओं से ग़ायब क्यों है?

इन्हीं में से एक तीस वर्षीय पूजा (बदला हुआ नाम) है। पूजा को मानसिक विकलांगता की समस्या है, जिसकी वजह से वो कुछ बोलती नहीं है और न ही कुछ समझ पाती है। उसकी पूरी देखरेख उसकी माँ करती है। पूजा की माँ ने पीरियड प्रबंधन के संदर्भ में बात करते हुए बताया कि ‘पूजा को नहाने, खिलाने यहाँ तक पेशाब ले जाने का काम वो करती है। ऐसे में पीरियड के दौरान वो मोटे सूती कपड़े का इस्तेमाल करती है, जिसे कई बार वो कच्ची सिलाई करके पैंटी में सिल देती है, जिससे खून उसके कपड़ों पर न लगे। लेकिन इसके बावजूद कई बार दाग लगने की समस्या हो जाती है या फिर जब कई बार अचानक पीरियड शुरू होता है तो खून के दाग से परिवार और आसपास के लोग के सामने बहुत शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है। इसके साथ ही, पीरियड में पूजा को कई शारीरिक दिक़्क़त भी होती है, जिसे वो बता नहीं पाती है, इसलिए काफ़ी परेशान भी करने लगती है और हमलोग नहीं समझ पाते कि उसके लिए क्या करें।‘ वहीं बीस वर्षीय नेहा (बदला हुआ नाम), जिन्हें पोलियो की समस्या से चलने में परेशानी होती है, बताती है कि ‘पीरियड के दौरान जब भी कपड़े का इस्तेमाल करती है तो अक्सर उसमें लिकेज की दिक़्क़त होने लगती है, इसलिए वो सेफ़्टी पिन का इस्तेमाल करती है, जिससे कपड़ा खिसके नहीं और लिकेज की समस्या ना हो।‘

पीरियड प्रबंधन के कपड़े और उसमें भी सेफ़्टी पिन का इस्तेमाल बहुत ज़्यादा जोखिमपूर्ण है और पीरियड की समस्याओं को बयाँ न कर पाना कितना मुश्किल होता है, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। पर जब हम इन समस्याओं की वजहों को तलाशने की कोशिश करते हैं तो ज़वाब मिलता है – ग़रीबी और जागरूकता की कमी। पीरियड प्रबंधन और इससे जुड़ी जानकारियों का अभाव विकलांग महिलाओं के लिए पीरियड को दोहरी समस्या बना देता है, जो न केवल उनके स्वास्थ्य बल्कि उनके सम्मान से भी जुड़ा हुआ है। सच्चाई यही है कि पीरियड के मुद्दे पर एड चलाने या फ़िल्म बनाने से ज़मीनी चुनौतियाँ ख़त्म हो गयी होती तो आज हमारे देश में कोई समस्या ही नहीं होती।

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पीरियड महिलाओं के शरीर से जुड़ी एक प्राकृतिक प्रक्रिया तो है, लेकिन इस दौरान होने वाली मानसिक और शारीरिक दिक़्क़तों से इनकार नहीं किया जा सकता है। इसलिए इन सबका उपाय सिर्फ़ पैड नहीं हो सकता है। साथ ही, हमें ये भी अच्छी तरह समझना होगा कि जब बात विकलांग महिलाओं की होती है तो चुनौतियों की परतें और मोटी हो जाती है। जैसे- पीरियड के दौरान साफ़ शौचालय का इस्तेमाल ज़रूरी होता है, क्योंकि इस समय संक्रमण होने की संभावना ज़्यादा होती है। लेकिन जिन विकलांग महिलाओं को पेशाब के बाद शौचालय में पानी डालने के लिए भी अपने केयर टेकर पर आश्रित होना पड़ता है, उनके लिए पीरियड में स्वच्छता के नियमों का पालन कितना ज़्यादा मुश्किल बन जाता है। विकलांग महिलाओं के साथ पीरियड से जुड़ी ऐसी ढ़ेरों चुनौतियों का जिन्हें उजागर करना और उन्हें दूर करना ज़रूरी है।

पर सवाल ये भी है कि आख़िर विकलांग महिलाओं में पीरियड से जुड़ी चुनौतियों का सवाल मुख्यधारा के स्त्री-विमर्श या महिला केंद्रित चर्चाओं से ग़ायब क्यों है? ऐसा इसलिए क्योंकि कहीं न कहीं इन चर्चाओं के सूत्रधारकों में विकलांग महिलाओं का प्रतिनिधित्व सीमित है और साथ ही, अभी भी हम इन विमर्शों और चर्चाओं को समावेशी नहीं बना पाए है, जिसकी वजह से महिला की सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक प्रस्थितियों का विश्लेषण कर उनकी चुनौतियों और एक-दूसरे से अलग ज़रूरतों को उजागर और स्वीकारने में कतराते है। हमें याद रखना चाहिए कि हमारा समावेशी न होना भी पितृसत्तात्मक सोच जैसा ही है जिसके तहत महिला से जुड़े मुद्दों को समस्या और बाज़ार के उत्पाद को उसका हल बताकर पल्ला झाड़ना समाज की फ़ितरत में शुमार हो चुका है, जिसे चुनौती देने का काम ख़ुद हम महिलाओं को करना होगा और महिला से जुड़े मुद्दों को समावेशी ख़ुद बनाना होगा। हमें समझना होगा कि ये सिर्फ़ स्वास्थ्य और स्वच्छता से ही नहीं बल्कि सम्मान से जुड़ा विषय है, इसलिए विकलांग महिलाओं के लिए पीरियड की प्रक्रिया को सहज बनाने के लिए इससे जुड़ी जागरूकता और उपयुक्त प्रबंधन के साधनों की पहुँच को बढ़ाना ज़रूरी है।

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तस्वीर साभार : hindustantimes

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