इंटरसेक्शनलजेंडर पितृसत्ता और लैंगिक भेदभाव की गहरी जड़ें दिखाती ‘सिटी ऑफ़ ड्रीम्स’| नारीवादी चश्मा

पितृसत्ता और लैंगिक भेदभाव की गहरी जड़ें दिखाती ‘सिटी ऑफ़ ड्रीम्स’| नारीवादी चश्मा

पितृसत्ता और महिला के संघर्ष के साथ-साथ सिटी ऑफ़ ड्रीम्स अन्य जेंडर की सामाजिक चुनौतियों को भी संजीदगी से मुख्य किरदार पूर्णिमा के बहाने दिखाती है। वेब सीरीज़ में पूर्णिमा

‘घर का भविष्य तो बेटा होता है।‘

‘बेटा ही कुल का दीपक होता है।‘

‘बेटा ही वंश आगे बढ़ाता है।‘

आपने भी ऐसी या इससे मिलती-जुलती बातें ज़रूर सुनी होगी। जब परिवार का भविष्य बेटों यानी कि पुरुषों को बताया जाता है। दुर्भाग्य से ये अपने समाज की एक कड़वी सच्चाई है, जहां जेंडर के खाँचों में लड़का-लड़की को बाँटकर उनके और अपने दिमाग में भेदभाव का बीज बोया जाता है। वास्तव में हमारे घरों में कभी भी बच्चों को बच्चों की तरह स्वीकार नहीं किया जाता है, उन्हें हमेशा बेटा-बेटी का फ़र्क़ बताते हुए जेंडर के अनुसार बताए गए किरदारों के रूप में तैयार किया जाता है। इसका नतीजा ये होता है कि जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर के ओलंपिक खेलों में भी आज जब महिला खिलाड़ियों का बेहतरीन प्रदर्शन कर रही हैं तब उन्हें ‘देश की बेटी’ की उपमा देकर पूरा देश मानो महिला खिलाड़ियों का पिता बन बैठता है।

जेंडर आधारित भेदभाव के अनुसार दी जाने वाली ये उपमाएँ समाज में पितृसत्ता की जड़ता को दिखाती है। ये वही सोच है जो हमेशा पुरुष को महिला से बेहतर मानती है। साथ ही, ये उस सोच में और सोच के साथ जीने के लिए समाज के हर तबके पर दबाव बनाती है। कई बार जेंडर आधारित भेदभाव की ये वैचारिकी न केवल महिलाओं को बल्कि पूरी सामाजिक व्यवस्था को प्रभावित करती है। नतीजतन अक्सर पुत्रमोह से लबरेज़ पितृसत्ता  कई इंसानों की ज़िंदगी, परिवार और समाज के भविष्य को बुरी तरह प्रभावित करती है।

लैंगिक भेदभाव के चलते पुत्रमोह और पितृसत्ता  की कट्टरता के इस दंश को बखूबी दर्शाती है फ़िल्म ‘सिटी ऑफ़ ड्रीम्स।‘ नागेश कुकुनूर के निर्देशन में बनी ये फ़िल्म पितरसत्ता के तहत पोसे जाने वाले लैंगिक भेदभाव और इसके भयावह परिणाम को बखूबी दर्शाती है।  डिज़्नी प्लस हॉटस्टार में रिलीज़ हुई ये वेव सीरीज़ मुंबई की माया नगरी में लैंगिक भेदभाव के तहत पनपे पुत्रमोह और इसके चलते महिलाओं को उत्तराधिकार के रूप में कट्टरता से अस्वीकृति को दर्शाती है।    

पितृसत्ता और महिला के संघर्ष के साथ-साथ सिटी ऑफ़ ड्रीम्स अन्य जेंडर की सामाजिक चुनौतियों को भी संजीदगी से मुख्य किरदार पूर्णिमा के बहाने दिखाती है।

प्रिया बापट के बेहतरीन अभिनय में एक बेटी के तौर में उत्तराधिकार के खूनी संघर्षों को उजागर किया गया है। आज जब हमारा क़ानून पिता की सम्पत्ति में बेटियों की भागीदारी तय कर चुका है, ऐसे दौर में क़ानून के इस निर्णय को सरोकार से जोड़ना कितना जटिल और कई बार नामुमकिन है, इन पहलुओं को बेहद संजीदगी से इस वेब सीरीज़ में दर्शाया गया है। कड़वा पर सच यही है कि हम लाख बेटा-बेटी में कोई भी फ़र्क़ न करने की बात करें, पर सच्चाई यही है कि जैसे ही बात सम्पत्ति या उत्तराधिकार की आती है तो पितृसत्ता की भौं तनने लगती है।

और पढ़ें : पितृसत्ता क्या है? – आइये जाने  

सिटी ऑफ़ ड्रीम्स लैंगिक भेदभाव और पितृसत्ता के प्रभावों को सामने लाती है। ये उन सभी दांवपेचों को दर्शाती है जो पितृसत्ता  एक लड़की की ज़िंदगी पर अपनी हुकूमत को क़ायम रखने के लिए अजमाती है। इतना ही नहीं, पितृसत्ता  की ये अंधभक्ति किस तरह महिलाओं के नेतृत्व और उनकी क़ाबलियत को सिरे से नकारती है इस वैचारिकी को सिटी ऑफ़ ड्रीम्स में सटीक तरीक़े से दिखाया गया है। महिलाओं के साथ इस व्यवहार की वजह को वेब सीरीज़ की मुख्य किरदार पूर्णिमा (प्रिया बापट) बताते हुए कहती है कि ‘ये फ़र्क़ सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मेरी टांगों के बीच में जो है वो मेरे भाई से अलग है।‘ आपको ये बात थोड़ी अजीब लग सकती है, लेकिन सच्चाई यही है। शारीरिक भिन्नता के आधार पर सामाजिक भेदभाव को पोसना, जीना और स्वीकारना ही पितृसत्ता  का मूल है, जो न केवल महिलाओं की स्थिति बल्कि पूरी समाज की संरचना को प्रभावित करती है और जो दुर्भाग्य से हमारे समाज में आज भी मज़बूती से क़ायम है।  

ग़ौरतलब है कि ये सोच और व्यवहार न केवल किसी इंसान या परिवार बल्कि पूरे देश-समाज को भी बुरी तरह प्रभावित करता है। ये किसी प्रदेश को एक काबिल नेतृत्व से दूर कर देता है। प्रतिक्रिया के रंग के बहाने आने वाली पीढ़ियों को भी लैंगिक भेदभाव को आगे चलाने के लिए प्रेरित करता है। पितृसत्ता और महिला के संघर्ष के साथ-साथ सिटी ऑफ़ ड्रीम्स अन्य जेंडर की सामाजिक चुनौतियों को भी संजीदगी से मुख्य किरदार पूर्णिमा के बहाने दिखाती है। वेब सीरीज़ में पूर्णिमा एक लेसबियन होती है, लेकिन महाराष्ट्र के रसूख़दार गायकवाड़ परिवार से ताल्लुक़ रखने के कारण वो अपनी इस पहचान को कभी भी उजागर नहीं करती है। बल्कि समाज के बताए अच्छी औरत, अच्छी पत्नी और अच्छी माँ के आदर्शों में ख़ुद को ढालती और दिखाती है। ये सब उस सामाजिक दबाव को बिना कहे पर तेज स्वरों में बताता है जो समाज में महिला-पुरुष के अलावा किसी भी अन्य जेंडर की ज़िंदगी को बेहद मुश्किल बनाता है।

पितृसत्ता  में महिला संघर्षों के बीच मज़बूत महिला किरदार को सामने लाती ये ज़रूरी फ़िल्म है, जो पितृसत्ता  के ढ़ेरों पहलुओं को उजागर करती है। बाप-बेटी के बीच की लड़ाई जैसी दिखने वाली फ़िल्म कहे-अनकहे बहुत कुछ कहती है, जिसे देखा जाना चाहिए।  

और पढ़ें : मिमी : महिला अधिकार और संघर्षों पर पितृसत्ता की एक खोल | नारीवादी चश्मा


तस्वीर साभार : jagran.com

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