वर्ल्ड इंडिजिनस डे यानि विश्व आदिवासी दिवस हर साल 9 अगस्त को मनाया जाता है। इसकी शुरुआत विश्व में आदिवासियों के घटती आबादी, विस्थापन और दुनियाभर में होते उनके मानवाधिकार हनन से चिंतित होकर संयुक्त राष्ट्र संघ ने साल 1994 में पहली बार इस दिन को आधिकारिक रूप से ‘वर्ल्ड इंडिजिनस डे’ के रूप में घोषित किया था। यह दिन उस योगदान और उपलब्धि के लिए भी है जो विश्व भर के आदिवासी पर्यावरण के पारिस्थितिक संतुलन और संरक्षण जैसे वैश्विक मुद्दों पर अपनी आवाज़ उठाते हैं और इसे बनाए रखने में अपनी विशेष भूमिका निभाते हैं। वर्ल्ड इंडिजिनस डे का पहला अंतरराष्ट्रीय दशक संयुक्त राष्ट्र संघ ने ‘ए डिकेड फॉर एक्शन एंड डिग्निटी’ की थीम के साथ शुरू किया था। इस दिन को मनाते हुए आज हम तीसरे दशक में कदम रखने जा रहे हैं लेकिन क्या कारण है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर तक आदिवासियों को संरक्षण देने की कवायद शुरु होने के बावजूद दुनियाभर के आदिवासी अपने सांस्कृतिक विरासत और स्वअस्तित्व को बचाए रखने में अब भी संघर्षरत है।
विश्व आदिवासी दिवस के तीसरे दशक में विलुप्त होती आदिवासी बोली और भाषाओं को संरक्षित करने के लिए यह तीसरा दशक ‘इंडीजीनस पीपुल्स लैंग्वेज’ के नाम रखा गया है। साल 2016 में बताया गया था कि लगभग 2,680 भाषाएं खतरे में थी और विलुप्त होने के कगार पर थी। किसी समुदाय के बोली भाषा के मिटने से ना केवल समुदाय का पतन होता है बल्कि उस समुदाय का कई अलिखित मौखिक इतिहास भी समुदाय के साथ मिट जाता है। भारत में ही इस देश के आदिवासी किसी शरणार्थियों की तरह जीने को विवश हैं। वह सभ्य समाज के दुर्व्यवहार से खुद को उपेक्षित महसूस करते हैं और अपने मनुष्य होने का प्रमाण तथाकथित सभ्य समाज से दिए जाने के प्रतीक्षा में हैं। देश में जाने कब आदिवासियों को भी एक मनुष्य होने का बराबर दर्जा दिया जाएगा। फिलहाल इसका आश्वासन अनिश्चित काल तक संभव नजर नहीं आता। इस देश के नागरिक होने के बावजूद वे गरिमापूर्ण जीवनयापन करने के लिए अब तक संघर्ष कर रहे हैं।
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आज भी हाशिये पर जीने को मजबूर हैं आदिवासी समुदाय
आज भारत 21वीं सदी में प्रवेश कर चुका है। डिजिटल क्रांति के ज़रिए विकास की ओर अग्रसर है और विकास का एक नया पैमाना गढ़ा जा रहा हैं जहां हर प्रकार के संसाधनों का बंटवारा केवल एक विशेष वर्ग में है हुआ है। वहीं, इसी देश में आज भी भारत के आदिवासी अपनी बुनियादी हकों से वंचित हैं। आजादी के 74 साल बाद भी इन इलाकों की दशा आज़ादी के पहले जैसे ही बदतर हैं। भुखमरी, कुपोषण, मृत्युदर,अनेक तरह की बीमारियां और अशिक्षा आदिवासियों की प्रमुख समस्याएं हैं। औपचारिक तौर पर सरकार बहुत सारी योजनाएं आदिवासियों के लिए लाती हैं लेकिन इन योजनाओं का क्रियान्वयन सही ढंग से नहीं होता और ना ही इसे अमल में लाने की सरकार की कोई दिलचस्पी दिखाई देती हैं। यही कारण है कि आज तक उनकी दशा में कोई सुधार नहीं हो रहा ना ही उन्हें मूलभूत सुविधाएं मिल रही हैं। इसी वजह से अधिकांश आदिवासी शिक्षा से कोसो दूर हैं और उनकी साक्षरता दर सबसे कम है। साथ ही आदिवासियों का सामाजिक और आर्थिक विकास भी बाधित है।
भारत में ही इस देश के आदिवासी किसी शरणार्थियों की तरह जीने को विवश हैं। वह सभ्य समाज के दुर्व्यवहार से खुद को उपेक्षित महसूस करते हैं और अपने मनुष्य होने का प्रमाण तथाकथित सभ्य समाज से दिए जाने के प्रतीक्षा में हैं।
आदिवासी शुरू से ही प्रकृतिवाद को मानता आ रहे हैं लेकिन भारत का एक बहुसंख्यक वर्ग अपने धर्म को आदिवासियों पर जबरन थोपने में उतारू है। वह आदिवासियों को केवल अपना बहुमत बढ़ाने के लिए अपने धर्म का एक अभिन्न हिस्सा मानता है लेकिन जब बात आती है जल-जंगल-ज़मीन और अधिकारों की लड़ाई की तब उस धर्म को मानने वाले इन समुदायों को अकेले छोड़ देते हैं। आदिवासियों के इस लड़ाई का हिस्सा बनने से बचते हैं। वे आदिवासियों को विकास विरोधी मानते हैं। ऐसे लोग अधिकतर फासीवाद और पूंजीवाद का खुले तौर पर समर्थन करते हैं। जब कोई पूंजीवादी राष्ट्र तरक्की और विकास का नाम देकर प्राकृतिक संसाधनों का अत्याधिक दोहन करता हैं पर्यावरण संतुलन के लिए बनाए नियम कायदों का परवाह नहीं करता तब अपना कोई भी स्वार्थ सिद्ध किए बगैर एकमात्र आदिवासी ही होते हैं जो पूंजीवाद के उपभोगवादिता जीवनशैली और व्यवस्था के खिलाफ लड़ते हैं। एक आत्मनिर्भर समुदाय पूंजीवाद के दौर में पिछड़ रहा है आज जब पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग जैसी वैश्विक समस्याओं से जूझ रहा है तो आदिवासी जीवन दर्शन ही हमारे सामने एकमात्र विकल्प है जो पर्यावरण और इंसानों के बीच सामंजस्य स्थापित कर सहजीविता और सहअस्तित्व को बनाए रखता है।
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आदिवासी संस्कृति और मानवाधिकार की अहमियत
बीते कुछ सालों से आदिवासी अब मुख्यधारा में आने लगे हैं अपनी सामस्या सरकार और जनमानस के बीच रखते हुए अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। वे भारतीय वर्ण व्यवस्था के किसी भी हिस्से में ना होते हुए भी आज इन समुदायों के बीच ब्राह्मणवादी नियम कायदे चलने लगे हैं। जो समूह कभी मातृसत्तात्मक व्यवस्था पर चलते थे, आज उसकी जगह वर्चस्ववादी ब्राह्मणवाद ने ले लिया है। मुख्यधारा के किसी भी संगठित धर्म में शामिल होकर केवल एक दिन के लिए वह सोचता है कि उसमें अभी भी आदिवासीपन बचा हुआ है लेकिन वास्तव में वह मुख्यधारा के लोगों की तरह अपने जंगल माटी बोली भाषा और आदिम संस्कृति को विकास का विरोधी मानने लगा है। कोई अपनी सांस्कृतिक पहचान और बोली भाषा को खोकर खुद को आदिवासी किस आधार पर कह सकता है? क्या प्रकृति से जुड़ा कोई एक पर्व मना लेने भर से वह आदिवासी हो जाता है या पारंपरिक वेशभूषा पहनने और नाच-गान कर लेने से? अपने आदिम मूल्यों को खोकर कोई कैसे साबित कर सकता है कि वह आदिवासी है? आदिवासी समुदाय का सदस्य होने के नाते जंगल माटी और समुदाय के प्रति उसकी जो जिम्मेदारी बनती हैं उसे निर्वहन नहीं करता। भारत में इतनी विविधता होने के बावजूद भौगोलिक और भाषायी आधार पर आदिवासियों की अलग पहचान है और वह आज भी सभ्य समाज से कई मामलों में प्रगतिशील है।
इसी देश में आज भी भारत के आदिवासी अपनी बुनियादी हकों से वंचित हैं। आजादी के 74 साल बाद भी इन इलाकों की दशा आज़ादी के पहले जैसे ही बदतर हैं भुखमरी, कुपोषण, मृत्युदर,अनेक तरह की बीमारियां और अशिक्षा आदिवासियों की प्रमुख समस्याएं हैं।
हाल ही में राजस्थान के मीणा समुदाय और हिंदूवादी संगठनों के बीच ऐतिहासिक आमागढ़ किले को लेकर दोनों ही वर्ग अपना दावा पेश कर रहे थे। वास्तव में वह किला मीणाओं का है जिसे बरसों पहले मीणा समुदाय के सरदारों ने बनाया था। यह केवल एक किले की लड़ाई नहीं थी यह उस समुदाय की सांस्कृतिक धरोहर है। यह ना सिर्फ़ अपनी विरासत या अस्तित्व को बचाए रखने की लड़ाई थी बल्कि यह वह संघर्ष है जो बरसों से आदिवासी समुदाय ब्राह्मणवादी समाज से कर रहा है और अपने सांस्कृतिक वजूद को मिटने से बचा रहा है। ब्राह्मणवाद ने हज़ारों वर्षों से आदिवासियों के सांस्कृतिक विरासत और धार्मिक स्थलों में घुसपैठ कर अपना वर्चस्व कायम करना अब तक ज़ारी रखा है।
बेशक यह दिन आदिवासियों के लिए विश्वव्यापी सबसे बड़ा दिन है जो उन्हें उनके होने का एहसास कराता है उनके अधिकारों की पैरवी करता है लेकिन समुदाय के लोगों को इस बदलते दौर में आत्म-अवलोकन करने की भी ज़रूरत है। हम केवल टोटेमिक व्यवस्था, लोक नृत्य और पारंपरिक वेशभूषा से अपने अस्तित्व की रक्षा नहीं कर सकते। हमें और अधिक सजग होने की ज़रूरत है। जल-जंगल-ज़मीन और अपने संवैधानिक अधिकारों को समझ एकजुट होकर अपने हकों के लिए लड़ना होगा।अपनी मातृभाषा को पुनर्जीवित करने के लिए आदिवासी समुदाय को अपने मौखिक इतिहास को जानना समझना चाहिए। किसी भी मुख्यधारा के लेखक द्वारा लिखे गए आदिवासी इतिहास के किताबों से बेहतर आप समुदाय के बीच रहकर मौखिक इतिहास को सुनिए, जानिए और चिंतन मनन कीजिए। अधिक सच्चा इतिहास आप अपने ही लोगों द्वारा जान पाएंगे अपनी भाषा को मिटने से बचाइए। भाषा ही हमारे सांस्कृति आदिम रीति-रिवाजों को संरक्षित और विकसित करने का सबसे बेहतर विकल्प है।
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तस्वीर साभार : Newsclick