वैश्विक महामारी कोरोना ने इंसानों की जीवन शैली, सामाजिक और राज्य की व्यवस्थाओं को सीधेतौर पर प्रभावित किया। इस महामारी के चलते शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के क्षेत्र में भी काफ़ी ज़्यादा प्रभाव पड़ा। दो साल से अधिक के इस कोरोना काल में ऑनलाइन जॉब और पढ़ाई का दौर भी काफ़ी बढ़ा। वहीं दूसरी तरफ़ कोरोना काल में बेरोज़गारी का स्तर भी काफ़ी ज़्यादा बढ़ा। सेंटर फॉर मॉनिटरिेग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) देश में बेरोजगारी के आंकड़े इकट्ठे करता है। पीटीआई ने उसकी रिपोर्ट के हवाले से खबर दी थी कि अप्रैल में देश की बेरोजगारी दर करीब 8 फ़ीसद के स्तर पर पहुंच गई है। यह साल 2021 के शुरुआती चार महीनों की सबसे ऊँची बेरोजगारी दर है। मार्च में देश की बेरोजगारी दर 6.5 फ़ीसद थी। कोरोना काल में शहरों में रहने वाले और बड़ी-बड़ी कम्पनियों में नौकरी करने वालों का ऑफ़िस वाला रोज़गार वर्क फ़्राम होम में बदलता चला गया, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत सीमित थी।
अगर हमलोग बात करें ग्रामीण क्षेत्रों की तो यहाँ डिजिटल डिवाइड की खाई साफ़ दिखाई पड़ती है और ख़ासकर कोरोना काल में इस डिजिटल डिवाइड ने रोज़गार और बेरोज़गार के दो वर्ग में गाँव के मज़दूरों और निम्न वर्ग के लोगों को बेरोज़गार के ख़ेमे में खड़ा कर दिया। कोरोना की पहली लहर में लगे लॉकडाउन के दौरान बड़े शहरों से अपनी गाँव की तरफ़ पलायन करते प्रवासी मज़दूर अपने आप में शहर और गाँव बीच के इस डिजिटल डिवाइड की ज़िंदा रिपोर्ट थे, जिसे पूरी दुनिया ने देखा। मेरे गाँव देईपुर में कई दुकानों और प्राइवेट कम्पनियों में चौकीदार, चपरासी जैसी छोटी नौकरियाँ करने वाले कई लोग इस कोरोना काल में सीधेतौर पर बेरोज़गार हो गए। शहरों में जिस समय ऊँची पोस्ट पर काम करने वालों का ऑफ़िस घर में शिफ़्ट होता गया, वहीं गाँव के ये लोग जो शहरों की इन बड़ी ऑफ़िस में काम किया करते थे, वे सीधेतौर पर बेरोजगार होते गए।
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कोरोना काल में हुए इस डिजिटल विस्तार ने कहीं न कहीं रोज़गार के विस्तार को भी प्रभावित किया है। डिजिटल जगत में भले ही रोज़गार के अवसर बढ़े लेकिन इसने देश की एक विशेष आवाम को ही अपने इन अवसरों में चिन्हित किया। अब कई संस्थान ने अपनी ऑफ़िस को बंद करके घरों से काम करना शुरू करवा दिया है, इससे छोटे पदों पर इन ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों का रोज़गार छीनता जा रहा है। चूँकि गाँव में रहने वाले निम्न वर्गीय लोग ज़्यादा शिक्षित नहीं है और न ही डिजिटल चीजों के इस्तेमाल में सहज, जिसके चलते डिजिटल जगत में बढ़ते रोज़गार के अवसरों में उनकी भागीदारी न के बराबर है।
शहर और ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल डिवाइड की ये दूरी हर सरकारी योजनाओं को आमजन तक पहुँचाने वाले रास्ते को भी कठिन बनाता है।
रोज़गार के संदर्भ में जब हम शहर और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच इस डिजिटल डिवाइड की बात करते है तो कोरोनाकाल में रोज़गार की दिशा महिलाओं को भी सालों पीछे जाते देखते है। ये डिजिटल डिवाइड ही है जो गाँव में छोटे स्तर पर होने वाले महिलाओं के व्यापार को भी उभरने, निखरने और विस्तार में आने में बाधा पैदा कर रहा है। शहरों में रहने वाली महिलाएँ शिक्षित, जागरूक और डिजिटल चीजों के इस्तेमाल में ग्रामीण महिलाओं के अपेक्षा में ज़्यादा सहज है। इसके चलते वे सोशल मीडिया के इस्तेमाल से अपनी रसोईयों में बनने वाले पकवान को आमजन तक पहुँचाने और अपनी इन कलाओं को रोज़गार की दिशा में आगे बढ़ाने अपनी भागीदारी कर पा रही है। लेकिन वहीं जब हम ग्रामीण महिलाओं और खासकर उत्तर भारत की ग्रामीण महिलाओं की बात करते है तो इस क्रम में महिलाओं की भागीदारी न के बराबर पाते है।
शहर और ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल डिवाइड की ये दूरी हर सरकारी योजनाओं को आमजन तक पहुँचाने वाले रास्ते को भी कठिन बनाता है। आमतौर पर हमारी सरकारें स्मार्ट फ़ोन के इस्तेमाल को डिजिटल इंडिया को बढ़ाने का मानक मान लेती है, उनके अनुसार सरकारें हर योजनाओं के प्रारूप को डिजिटल बनाती है। लेकिन इन सब में हम अक्सर ये भूल जाते है कि स्मार्टफ़ोन होने का मतलब ये नहीं है कि इसे इस्तेमाल करने वाले इंसान को डिजिटल से जुड़ी सारी जानकारी हो। योजनाओं को लेकर डिजिटल डिवाइड का जीवंत उदाहरण है कोरोना वैक्सीन के लिए होने वाला पंजीकरण। जैसा कि हमलोग जानते है कोरोना वैक्सीन के लिए पंजीकरण ज़रूरी है और इस पंजीकरण का प्रारूप ऑनलाइन है, ऐसे में गाँव के बहुत से लोग अभी तक अपना पंजीकरण नहीं करवा पाए है। वहीं आर्थिक रूप से बेहतर स्थिति वाले ग्रामीण लोग गाँव के इंटरनेट की दुकानों में जाकर पंजीकरण के लिए भी भुगतान कर रहे है।
शहर और ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल डिवाइड की ये खाई हर दिन बढ़ती जा रही है। डिजिटल इंडिया में सीधेतौर पर गाँव में बसने वाला भारत पीछे छूट रहा है। कॉलेज में पढ़ाई के लेकर कोरोना वैक्सीन तक हर जगह की प्रक्रिया का प्रारूप तो हमारी सरकारों ने ऑनलाइन कर दिया है, लेकिन इस आधुनिक चलन को लागू करने से पहले इसकी ज़मीन पर कोई काम नहीं किया गया। अभी भी गाँव की कई ऐसी बस्तियाँ है जहां आज भी मुश्किल से एक या दो फ़ोन मिलते है। ऐसे में ऑनलाइन होते रोज़गार और सरकार की योजनाओं से ये बस्तियाँ लगातार वंचित हो रही है।
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तस्वीर साभार : www.theleaflet.in