“सुंदर, सुशील, गोरी वधू चाहिए” जैसे अखबारों में दिए गए वैवाहिक विज्ञापनों को आपने जरूर देखा होगा। एक ऐसा समाज जिसमें सुंदरता की कुछ परिभाषाएं तय कर दी गई हैं, उस परिभाषा में गोरा रंग भी शामिल हैं, यानी अगर आप काले हैं तो आपको सुंदर नहीं माना जाता। कुछ दिनों पहले केरल की मुख्य सचिव शारदा मुरलीधरन ने भी अपनी एक पोस्ट में लिखा कि किस तरह से उनके रंग को लेकर उनके काम पर टिप्पणी की गई और किसी ने कहा कि उनका कार्यकाल उतना ही काला है, जितना उनके पति का सफ़ेद। उन्होंने लिखा कि बचपन से ही वे सोचती थीं कि गोरा रंग ही सुंदरता का पर्याय है। उन्होंने अपनी माँ से यह तक कहा कि अगले जन्म में मुझे गोरी पैदा करना। उन्होंने लोगों से यह सवाल भी किया कि आखिर क्यों काला रंग बुरा है, क्यों उसे बदसूरत कहा जाता है, काला रंग तो ब्रह्माण्ड का रंग है।
आज भी हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जिसमें आप कितने काबिल हैं, किस तरह के हुनर आपमें हैं, यह सब कुछ पीछे चला जाता है और आप बाहर से जैसे नज़र आते हैं, उसे ही सबसे ज़्यादा महत्व दी जाती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि रंग के एवज में किसी और चीज़ को कवर अप की तरह भी प्रस्तुत किया जाता है। जैसेकि आपने कभी किसी को यह कहते ज़रूर सुना होगा कि अरे वो काली है, लेकिन उसके फीचर्स बड़े शार्प हैं। यह भी एक तरह का रंगभेद ही है। हमारे समाज में रंगभेद सदियों से मौजूद है और अभी भी जारी है। हम किसी को जाने-समझे बिना बाहर से उनके रंग, लम्बाई, नाक-नक्श और कदकाठी के मुताबिक उनके बारे में एक राय बना लेते हैं और फिर उसी हिसाब से उनके साथ व्यवहार करते हैं।
नर्सरी के दिनों से ही इसकी शुरुआत हो गई थी और उनकी पूरी स्कूली शिक्षा के दौरान वे इससे दो-चार होती रहीं। वे बताती हैं, “एक बार मेरी नर्सरी स्कूल की एक टीचर ने मेरी मां को फोन किया और उनसे कहा कि मेरी स्किन बहुत डार्क हैं और वे मुझे बेसन लगाएं। मैं छोटी थी तो उस समय मुझे यह सब इतना समझ नहीं आता था।”
इस तरह का रंग भेद लोगों के साथ, चाहे वे महिला हों या पुरुष उनके परिवार, उनके स्कूल और हरेक ऐसी जगह पर किया जाता है, जहां वे लोगों के संपर्क में आते हैं। ज़ाहिर है महिलाओं को इसका सामना ज़्यादा ही करना पड़ता है क्योंकि समाज उनसे सुंदर दिखने की अपेक्षा ज़्यादा रखता है। जब भी वे समाज के सुंदरता के मानकों पर खरी नहीं उतरतीं उनका समूचा अस्तित्व ही सवालों के घेरे में आ जाता हैं। महिलाओं ने कब-कब और किस तरह से इस तरह के भेदभावों का सामना किया इसे समझने के लिए फेमिनिज़म ऑफ़ इंडिया ने कुछ महिलाओं से बात की।
स्कूलों में रंग को भेदभाव
जयीता बसु शिक्षा के क्षेत्र में काम करनेवाली एक संस्था में सीनियर प्रोग्राम मैनेजर हैं। वह बताती हैं कि उनकी माँ का स्किन टोन उनसे कम डार्क है। इस वजह से उन्हें उनके स्कूली दिनों में काफी लोगों की टिप्पणियां सुननी पड़ती थीं। उन्होंने बताया कि नर्सरी के दिनों से ही इसकी शुरुआत हो गई थी और उनकी पूरी स्कूली शिक्षा के दौरान वे इससे दो-चार होती रहीं। वे बताती हैं, “एक बार मेरी नर्सरी स्कूल की एक टीचर ने मेरी मां को फोन किया और उनसे कहा कि मेरी स्किन बहुत डार्क हैं और वे मुझे बेसन लगाएं। मैं छोटी थी तो उस समय मुझे यह सब इतना समझ नहीं आता था।”

असल में तो शैक्षिक संस्थान ऐसी जगह होनी चाहिए, जहां बच्चों में इस क़िस्म के भेदभाव न किए जाएँ। उन्हें समाज में व्याप्त भेदभावों को दूर करने की दिशा में प्रयास करना चाहिए, लेकिन होता इसका उल्टा है। शिक्षक भी इसी समाज का हिस्सा होते हैं। वे समाज में प्रचलित पूर्वाग्रहों को ही अपने साथ लेकर स्कूल जाते हैं। नतीजा यह होता है कि वे ऐसे भेदभावों को बढ़ाने का ही काम करते हैं। इसके अलावा, उन्हें इस बारे में ठीक से प्रशिक्षित भी नहीं किया जाता कि वे भेदभावों से ऊपर कैसे उठें और भेदभावों को दूर करने के लिए किस तरह की कोशिशें करें।
बचपन से ही घरवाले मेरे रंग को लेकर ताने मारते रहते थे। थोड़ा बड़े होने पर रंग डार्क होने को अच्छा रिश्ता न मिलने से जोड़ दिया गया। वे कहते थे कि शादी कैसे होगी।
घर-परिवार और समाज में रंग भेदभाव
बच्चों के साथ वे कैसे दिखते हैं इस आधार पर भेदभाव की शुरुआत घर-परिवार से ही हो जाती है। अगर कोई बच्चा समाज के सुंदरता के पैमानों से अलग दिखता है, तो रिश्तेदार और यहां तक कि माता-पिता भी बचपन से ही उसके मन में कमतर होने का एहसास डाल देते हैं। हर रोज़ ऐसी टिप्पणियां सुनते-सुनते बच्चे के मन में भी यह बात आ जाती है कि शायद उसमें कोई कमी है और इससे उसके आत्मविश्वास पर असर पड़ता है। कभी परिवार उनसे यह भी अपेक्षा करने लगता है कि अब जब वो अच्छे नहीं दिखते तो करियर में कुछ अच्छा करें, नाम कमाएं ताकि उनके रंगरूप के नुक्स पीछे चले जाएं।

इस बारे में महाराष्ट्र के सोलापुर की रहनेवाली ज्योति पटाले, जोकि एक नेचर एजुकेटर हैं कहती हैं, “बचपन से ही घरवाले मेरे रंग को लेकर ताने मारते रहते थे। थोड़ा बड़े होने पर रंग डार्क होने को अच्छा रिश्ता न मिलने से जोड़ दिया गया। वे कहते थे कि शादी कैसे होगी। बचपन से ही मैं जब किसी फैमिली फ़ंक्शन में जाती थी तो मुझे यही सोचना पड़ता था कि कौन-सा रिश्तेदार क्या फिकरे कसेगा। बड़े होने पर मैंने अपने दोस्तों और जॉब को खुद चुना और परिवार में होने वाले सभी कार्यक्रमों से दूरी बना ली। पेशेवर जीवन में मैं अलग-अलग लोगों से मिली और देखा कि किस तरह से लोग अपने नैन-नक्श और रूप-रंग के परे खुद को अपनाते हैं और कितने अच्छे-अच्छे काम कर रहे हैं।”
आज भी हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जिसमें आप कितने काबिल हैं, किस तरह के हुनर आपमें हैं, यह सब कुछ पीछे चला जाता है और आप बाहर से जैसे नज़र आते हैं, उसे ही सबसे ज़्यादा महत्व दी जाती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि रंग के एवज में किसी और चीज़ को कवर अप की तरह भी प्रस्तुत किया जाता है।
वह आगे बताती हैं, “इससे मुझे अपने ट्रॉमा से कुछ हद तक बाहर आने में मदद मिली। लेकिन अब मैं फिर से एंग्ज़ायटी का सामना कर रही हूं क्योंकि जल्द ही मेरी शादी होने वाली है। मैं चाहती हूं कि केवल रेजिस्टर्ड मैरिज हो, मगर परिवार एक रिसेप्शन करना चाहता है, जिसमें मैं फिर रिश्तेदारों की नज़र में आ जाऊँगी। ऐसे में मैंने बचपन में अपने रंग को लेकर जो भी कमेंट्स सुने हैं, वह सब उन्हें परेशान कर रहा है। ज्योति से ही मिलता-जुलता अनुभव कानपुर की 30 साल की प्रिया सोनी (बदला हुआ नाम) का भी है। प्रिया ने बताया, “मेरे घरवाले मेरे लिए रिश्ते देख रहे हैं और मुझे बार-बार ये एहसास दिलाया जा रहा है कि मेरी बड़ी बहन के लिए बहुत आसानी से रिश्ता मिल गया था क्योंकि वो गोरी थी, लेकिन मेरे लिए ढंग का मैच मिलने में बहुत-सी समस्याएं आनेवाली हैं।”
काले रंग के पीछे है वैज्ञानिक कारण

कुछ लोग गोरे और कुछ लोग काले क्यों होते हैं इसके पीछे त्वचा में मौजूद पिग्मेन्ट मेलानिन ज़िम्मेदार होता है। जिन लोगों की त्वचा में मेलानिन की मात्रा ज़्यादा होती हैं वे काले और जिनमें कम होती है वे गोरे होते हैं। तो किसी इन्सान के रूप-रंग का वह पहलू जिस पर उसका कोई ज़ोर ही नहीं, उसके साथ भेदभाव की वजह नहीं बनना चाहिए। जब यह भेदभाव का आधार बन जाता है तो लोगों में न केवल कमतरी का एहसास घर कर जाता है, बल्कि वे गोरे होने की नाकाम कोशिशों में भी लग जाते हैं।
अब मैं फिर से एंग्ज़ायटी का सामना कर रही हूं क्योंकि जल्द ही मेरी शादी होने वाली है। मैं चाहती हूं कि केवल रेजिस्टर्ड मैरिज हो, मगर परिवार एक रिसेप्शन करना चाहता है, जिसमें मैं फिर रिश्तेदारों की नज़र में आ जाऊँगी। ऐसे में मैंने बचपन में अपने रंग को लेकर जो भी कमेंट्स सुने हैं, वह सब उन्हें परेशान कर रहा है।
कई बार महिलाएं और पुरुष भी तरह-तरह के क्रीम, पाउडर लगाकर खुद को गोरा दिखाने की कोशिश करने लगती हैं, जिसका उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर ही पड़ता है। कुल मिलाकर, रंग के आधार पर लोगों से किया जाने वाला भेदभाव लोगों की खुद की छवि और आत्मविश्वास पर असर डालता है। आत्मविश्वास में कमी का नतीजा यह होता है कि उन्हें जीवन में मिलनेवाले अवसर सीमित हो जाते हैं। अब समय आ गया है कि समाज सुंदरता को गोरेपन से जोड़ना बंद करे और रूप-रंग में विविधता को अपनाए क्योंकि किसी की त्वचा के रंग से एक इन्सान के तौर पर उसका मोल नहीं तय किया जा सकता।