‘हर वार त्योहार’ वाले अपने देश में हर दूसरे महीने कोई न कोई पर्व-त्योहार होता ही है। अगर त्योहार नहीं हुआ तो परिवार के कुछ ख़ास होगा। अगर कुछ ख़ास नहीं हुआ तो परिवार के सदस्यों का साथ रहना भी अपने आप में किसी पर्व से कम नहीं होता, ख़ासकर महिलाओं के संदर्भ में। बता दूँ यहाँ मैं त्योहार या किसी ख़ास मौक़े पर होने वाली ख़ुशी की नहीं बल्कि काम की बात कर रही हूँ। समय भले ही बदला है लेकिन आज भी घर के काम का ज़िम्मा महिलाओं के हिस्से होता है, ख़ासकर तब जब परिवार में ज़्यादा सदस्य हो, कोई पार्टी हो, कोई मेहमान आए या फिर कोई त्योहार हो। मतलब जब भी काम का बोझ ज़्यादा होगा, ज़िम्मा अधिकतर महिलाओं के हिस्से होता है। अब अगर महिला गृहणी होतो तब तो ये उसका कर्तव्य मान लिया जाता है कि घर में रहती है तो सारा काम उसे ही करना होगा। भले बाद में कहा जाए कि ‘घर में काम ही क्या है?’
लोग अक्सर कहते हैं कि महिलाएँ परिवार बसाने, चीजों को संजोने, समेटने और संवारने का हुनर मानो जन्म से सीख कर आती है। मगर मैं लोगों की इस बात से क़तई सहमत नहीं हूँ। मेरा मानना है कि ये सारे गुण का ताल्लुक़ महिला के रूप में जन्म लेने से नहीं बल्कि हमारी परवरिश का नतीजा है। जब हम लड़कियों को बचपन से ही नाज़ुक बताकर उसे बॉल की बजाय घर-घर और गुड़िया-गुड्डे के खेल के लिए प्रोत्साहित करते है। बच्चे स्कूल के बाद अपना ज़्यादा समय घर में बीताते है और जेंडर के साँचे में ढलते बच्चे, माता-पिता में अपने भविष्य की भूमिकाओं को देखते है। लड़कियाँ जहां माँ से प्रभावित होती वहीं लड़के अपने पिता से। माँ-बाप का व्यवहार कहे-अनकहे, जाने-अनजाने हर पल बच्चों के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है। नतीजतन लड़कियाँ बड़ी होकर घर के भूगोल में अपनी दुनिया तलाशती से और लड़के घर की दिवारी से बाहर अपने सपने जीते है।
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पितृसत्ता में जेंडर के बताए प्रभावी नियमों के अनुसार तैयार की गयी महिलाएँ कई बार ख़ुद को समाज के सिस्टम से इतना ज़्यादा जुड़ा हुआ महसूस करती है कि वो कई बार अपनी साँस लेनी की जगह भी क्लेम नहीं कर पाती। अच्छी औरत, अच्छी पत्नी, अच्छी माँ, अच्छी बहु, अच्छी मेज़बान जैसे अलग-अलग किरदारों में ‘अच्छा’ बनने की होड़ हर पल उन्हें सिस्टम के लिए अपना और बेहतर प्रदर्शन करने के लिए मजबूर करती है। ऐसा नहीं कि हर बार महिलाओं पर हिंसा के तहत दबाव ही बनाया जाता है, बल्कि सच्चाई ये है कि कई बार अपनी परवरिश के चलते महिलाएँ ख़ुद भी एक दबाव में जीती है। सामाजीकरण की प्रक्रिया के तहत बचपन से ही महिलाओं को पितृसत्ता के अनुसार अच्छा बनाने की रेसिपी तैयार करने का मानो टास्क दिया जाता है। धीमी आँच में पकते-पकते कई बार स्थिति प्रेशर कुकर जैसी हो जाती है। ये वो स्थिति होती जब महिलाएँ ख़ुद को उलझा और अपने आप को ग़ायब-सा महसूस करने लगती है।
महिलाएँ कई बार ख़ुद को समाज के सिस्टम से इतना ज़्यादा जुड़ा हुआ महसूस करती है कि वो कई बार अपनी साँस लेनी की जगह भी क्लेम नहीं कर पाती।
दो साल पहले जब मैं बनारस से दूर एक गाँव में कुछ महिलाओं के साथ बैठक करने गयी तो उन सभी से अपनी बात की शुरुआत परिचय देने से शुरू करनी चाही। मैंने सभी महिलाओं को अपना नाम और अपनी पसंदीदा खाने की चीज़ बताने को कहा। परिचय का ये तरीक़ा महिलाओं को थोड़ा अजीब लगा था। पर जब बात शुरू हुई तो बैठक में आयी कई महिलाएँ अपना नाम बताने में बेहद हिचक रही थी। कई महिलाएँ ऐसी थी जैसे उन्हें अपना नाम ही याद न हो। इसपर महिलाओं ने बताया था कि ‘छोटी उम्र में शादी होने के बाद वे ससुराल आ गयी। यहाँ वो किसी की बहु, किसी की पत्नी तो किसी की भाभी के नाम से जानी जाती। ऐसे ही उनलोगों ने सालों बीता दिए और धीरे-धीरे उनके नाम की जगह उनके रिश्ते के नामों ने ले ली।‘ कुछ महिलाओं ने ये भी बताया कि ‘ये पहली बार है जब किसी ने हमलोगों से नाम पूछा है।‘ गाँव के मज़दूर-दलित समुदायों से ताल्लुक़ रखने वाली इन महिलाओं का नाम जैसे समय के साथ ग़ायब होने लगा था। इसके बाद जब बात खाने की आयी तो अधिकतर महिलाओं का कहना था कि ‘उनकी कोई ख़ास पसंद नहीं है। उन्हें जो भी मिल जाता है, वे सब खा लेती है।‘ इसपर महिलाओं ने फिर से वही बात दुहरायी कि हमलोगों के खाने की पसंद कभी किसी ने पूछी ही नहीं, जो पति और बच्चों को पसंद रहा रसोई में वही बनाते-बनाते उनकी आधी ज़िंदगी बीत गयी।
ज़ाहिर है इन महिलाओं को कभी भी उनकी पहचान और अस्तित्व को जानने की कोई कोशिश नहीं की गयी और न ही इसके लिए कभी कोई स्पेस बनाया गया। बात गाँव की हो या शहर ही स्थिति कमोबेश हर जगह एक जैसी ही नज़र आती है, जब हम महिलाओं की पसंद, नापसंद, उनकी यौनिकता या उनके व्यक्तित्व को अपने परिवार और समाज में स्पेस देने की बात करते है। इन स्पेस पर अपना क्लेम करना कई बार हमें जोखिमभरा लगता है, लेकिन एक़बार जब हम इस जोखिम को उठाते है तो वहीं से एक बड़े बदलाव का आग़ाज़ होता है। ज़रूरी नहीं कि अपने परिवार या अपने घर के डाइनिंग टेबल पर अपना स्पेस क्लेम करने के लिए आपको कोई आंदोलन करना पड़े, बहुत छोटी-छोटी पहल से आप सादगी के साथ बड़े बदलाव की शुरुआत कर सकते है। कई बार इसके लिए एक ग्लास जूस भी काफ़ी होता है, कैसे ? ये आप इस विडियो में देखकर समझ सकते है –
तस्वीर साभार : youtube