बॉम्बे हाई कोर्ट ने बीते 3 अगस्त को एक ज़रूरी फैसला सुनाया। इस फैसले के तहत बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक घरेलू हिंसा की सर्वाइवर को 23 हफ्ते के भ्रूण को समाप्त करने की इजाज़त दी है। 22 साल की इस सर्वाइवर ने अपनी याचिका में अपील की थी कि उसका और उसके पति का तलाक होने जा रहा है। इसलिए वह अपनी प्रेग्नेंसी को जारी नहीं रखना चाहती। साथ ही सर्वाइर ने यह भी कहा था कि अगर इस बच्चे का जन्म होता है तो उसे अपने पति से किसी भी तरह की भावनात्मक या आर्थिक मदद नहीं मिलेगी। इन बातों को ध्यान में रखते हुए जस्टिस उज्जल भूयन और जस्टिस माधव जामदार ने सर्वाइर के पक्ष में फ़ैसला सुनाते हुए महिलाओं के प्रजनन अधिकार के संदर्भ में बेहद महत्वपूर्ण टिप्पणियां की हैं। साथ ही याचिकाकर्ता को मुंबई के ही कूपर अस्पताल में अपना अबॉर्शन करवाने की इजाज़त दी है।
अपने फ़ैसले में बॉम्बे हाई कोर्ट ने क्या कहा?
पीटीआई की रिपोर्ट के मुताबिक कोर्ट ने कहा कि अगर गर्भनिरोध के काम न करने के परिणामस्वरूप महिला गर्भवती हो जाती है जो इससे उसके मानसिक स्वास्थ्य को बेहद नुकसान पहुंच सकता है। साथ ही कहा कि क्या यह कहा जा सकता है कि एक गर्भवती महिला जो घरेलू हिंसा का सामना कर रही है, उसका मानसिक स्वास्थ्य इससे प्रभावित नहीं होगा अगर उसे इस स्थिति में अपनी प्रेग्ननेंसी जारी रखनी पड़े, जहां भविष्य भी बेहद कठोर हो?
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा उल्लेखित महिलाओं के प्रजनन अधिकारों का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा है कि मुख्य मुद्दा एक महिला का अपने शरीर और प्रजनन विकल्पों पर नियंत्रण और अधिकार है। प्रजनन अधिकार सभी महिलाओं की एक मूलभूत ज़रूरत और अधिकार है। साथ ही अपना फ़ैसला सुनाते हुए कोर्ट ने कहा कि ऐसी स्थिति में अगर याचिकाकर्ता को अबॉर्शन की इजाज़त नहीं दी जाती है तो ऐसा करना उसे अपनी प्रेग्नेंसी जारी रखने के लिए मजबूर करना होगा। इससे उसके लिए हालात न सिर्फ बोझिल और शोषणकारी हो जाएंगे बल्कि उसके मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी गंभीर रूप से घातक साबित होंगे।
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महिलाओं के प्रजनन अधिकार
बॉम्बे हाई कोर्ट का यह फ़ैसला महिलाओं के प्रजनन अधिकार को मानवाधिकार के रूप में देखे जाने की ज़रूरत पर ज़ोर डालता है। साथ ही इस ओर भी इशारा करता है कि अबॉर्शन का कानूनन अधिकार महिलाओं के सामूहिक उत्थान के लिए कितना अहम है। हालांकि यह बात अलग है कि पूरी दुनिया में सीमित संख्या में ही महिलाएं अपने प्रजनन अधिकारों के बारे जागरूक हैं या अगर हैं भी तो वे बमुश्किल ही अपने अधिकारों को प्रैक्टिस में ला पा रही हैं।
महिलाओं के प्रजनन अधिकार को एक मानवाधिकार के रूप में पहचान मिली साल 1994 में कायरो में हुए इंटरनैशनल कॉन्फ्रेंस ऑन पॉपुलेशन एंड डेवलपमेंट के दौरान। इस कॉन्फ्रेंस में 179 देशों की सरकारों ने एक प्लान ऑफ एक्शन पर सहमति जताई जिसमें महिलाओं के प्रजनन अधिकारों पर ज़ोर दिया गया। साथ ही इस कॉन्फ्रेंस में यह भी माना गया कि महिला सशक्तिकरण और उनके प्रजनन अधिकार आपस में जुड़े हुए हैं और समाज के विकास के लिए दोंनो ही बेहद जरूरी हैं। बताते चलें कि महिलाओं के प्रजनन अधिकार सिर्फ एक स्वास्थ्य का मुद्दा नहीं है बल्कि इसे राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक आयाम भी हैं। इस कॉन्फ्रेंस में यह भी माना गया कि महिलाओं का स्वास्थ्य, ख़ासकर कि उनका यौन और प्रजनन स्वास्थ्य सिर्फ स्वास्थ्य सुविधाओं तक उनकी पहुंच पर निर्भर नहीं करता बल्कि समाज में उनकी स्थिति और लैंगिक भेदभाव से भी प्रभावित होता है।
लेकिन क्या इस कॉन्फ्रेंस के दो दशक से भी अधिक समय बीत जाने के बाद भी महिलाओं के यौन एवं प्रजनन अधिकार को मानवाधिकार के रूप में मान्यता दी गई? जवाब है नहीं। आज भी अबॉर्शन का मुद्दा स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक ऐसा विवादित मुद्दा है जिस पर सबसे अधिक बहसें होती हैं, जिसके बारे में अलग-अलग देशों में अलग-अलग कानून हैं जो महिलाओं को कई स्तरों पर प्रभावित करते हैं। अगर हम बॉम्बे हाई कोर्ट के इस फै़सले को देखें तो पाएंगे कि यह एक प्रगतिशील फ़ैसला है जिसमें कोर्ट ने महिला के स्वास्थ्य को अहमियत दी। लेकिन हमारे पितृसत्तात्मक समाज में आज भी एक गर्भवती महिला के स्वास्थ्य से अधिक अजन्मे भ्रूण की अहमियत होती है।
ये हालात सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर मौजूद हैं। इसका हालिया उदाहरण पोलैंड और अर्जेंटीना जैसे देश हैं, जहां अबॉर्शन के कानून अधिकार के लिए महिलाओं को प्रदर्शन करने पड़े फिर भी उन्हें अधिकार किस्तों में दिए जा रहे हैं। बात अगर हम भारत जैसे विकाशील देशों की करें या अमेरिका जैसे विकसित देश की। आज भी अबॉर्शन के अधिकार महिलाओं को शर्तों के साथ ही दिए गए हैं। अबॉर्शन करवाने के लिए अस्पताल तक पहुंचना हमारे देश में एक चुनौतीपूर्ण और थकाऊ प्रक्रिया भी है। अबॉर्शन से जुड़े कानून महिलाओं की पसंद, उनके अधिकार, उनकी आज़ादी को दरकिनार कर मेल गेज़ की पिच पर बनाए जाते हैं। इसका ही नतीजा है कि आज भी गैरकानूनी रूप से होनेवाले अबॉर्शन महिलाओं की मौत की एक मुख्य वजह में शामिल है। अबॉर्शन से जुड़ी सांस्कृति और सामाजिक पितृसत्तात्मक रूढ़ियां ही यह वजह हैं कि आज भी लाखों महिलाओं की मौत असुरक्षित तरीके से होनेवाले अबॉर्शन के कारण होती हैं।
यह फै़सला समाज की उस रूढ़िवादी सोच को खारिज करता है जिसमें अजन्मे भ्रूण की अहमियत महिला के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य से अधिक होती है।
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विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक साल 2015 से 2019 के बीच हर साल 73.9 मिलियन सुरक्षित और असुरक्षित तरीकों से अबॉर्शन हुए जिसमें से हर तीन में से 1 अबॉर्शन खतरनाक स्थितियों में किया गया। हर साल 25 मिलियन से भी अधिक अबॉर्शन असुरक्षित तरीके से किए जाते हैं। आधे से अधिक असुरक्षित तरीके से किए गए अबॉर्शन एशियाई देशों में किए गए। हर साल विकासशील देशों में 70 लाख महिलाएं असुरक्षित ढंग से किए गए अबॉर्शन के कारण अस्पताल में भर्ती होती हैं। साल 2010 से 2014 के बीच हुए 45 फीसद अबॉर्शन असुरक्षित तरीके से किए गए थे। बात अगर भारत की करें तो यहां लगभग हर दिन औसतन 13 महिलाओं की मौत असुरक्षित तरीके से किए गए अबॉर्शन के कारण होती है। WHO के ही मुताबिक दुनियाभर में असुरक्षित अबॉर्शन मैटरनल डेथ्स का तीसरा सबसे बड़ा कारण भी है। इसका मतलब साफ़ है कि जहां जितनी रोक अबॉर्शन से जुड़ी सेवाओं पर होगी वहां महिलाओं की स्थिति सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य की दृष्टि से चुनौतीपूर्ण होगी।
अबॉर्शन और महिलाओं का मानसिक स्वास्थ्य
दूसरा अहम पहलू जो इस फै़सले से निकलकर आता वह यह कि महिलाओं के प्रजनन अधिकार को सिर्फ शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक स्वास्थ्य से भी जोड़कर देखा जाना कितना महत्वपूर्ण है। अबॉर्शन और इससे जुड़े मुद्दे कई अलग-अलग स्तरों पर महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। उदाहरण के तौर पर अगर महिला को कोर्ट की तरफ से अबॉर्शन की इजाज़त नहीं दी जाती तो एक अनचाही प्रेग्नेंसी को जारी रखना, उसे जन्म देना, उसके पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी उठाना जिसमें ज़ाहिर है महिला की मर्ज़ी शामिल नहीं थी, उसके मानसिक स्वास्थ्य को बेशक प्रभावित करती। ऊपर से याचिकाकर्ता का इस मामले में घरेलू हिंसा का सामना करना इस मामले को और अधिक संवेदनशील बनाता है। यह फै़सला समाज की उस रूढ़िवादी सोच को खारिज करता है जिसमें अजन्मे भ्रूण की अहमियत महिला के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य से अधिक होती है।
अबॉर्शन का अधिकार महिलाओं के साथ होनेवाली हिंसा से भी जुड़ा हुआ है। अमेरिका में हुई एक स्टडी के मुताबिक 8 फीसद ऐसी महिलाओं ने अबॉर्शन का विकल्प चुना क्योंकि वे अपने पार्टनर द्वारा हिंसा का सामना कर रही थीं। साथ ही यह स्टडी बताती है कि अबॉर्शन की इजाज़त न मिलने की स्थिति में अधिकतर महिलाओं के पास अपने हिंसक पार्टनर के साथ रहने का विकल्प बचता है। साथ ही इन महिलाओं में एंग्ज़ायटी के साथ आत्मविश्वास की कमी अधिक देखने को मिलती है। अबॉर्शन से जुड़ी शर्म की संस्कृति के कारण महिलाएं ऐसे मामलों में अधिकतर अपने पुरुष साथी के फ़ैसले पर निर्भर होती हैं। अपने शरीर के साथ क्या करना है इस पर फैसला मर्दों की दमनकारी, पितृसत्तात्मक सोच से प्रभावित होता है। सत्ता जिसमें एकाधिकार पुरुषों का है, उसके द्वारा बनाई गई नीतियों से प्रभावित होता है। हिंसात्मक पार्टनर के साथ रिश्ता ‘अब्यूज़ ऑफ पावर’ की थ्योरी पर टिका होता है इसलिए यह संभव है कि ऐसे रिश्ते में मर्द महिला के शरीर से जुड़े फैसलों पर अभी हावी या हिंसात्मक रवैया अपनाए।
इसलिए देखा जाए तो अबॉर्शन पर रोक महिलाओं के मानवाधिकार का हनन इसलिए है क्योंकि यह उनके जीवन जीने के अधिकार, उनकी निजता, उनके स्वास्थ्य और प्रजनन अधिकार और उनके साथ होनेवाली हिंसा से भी जुड़ा हुआ है। अबॉर्शन पर रोक एक महिला के आज़ाद और आत्मनिर्भर जीवन जीने के रास्ते और उसके सशक्तिकरण में एक अवरोध है। ध्यान रहे कि अबॉर्शन पर रोक महिलाओं की अबॉर्शन की ज़रूरत को खत्म नहीं करता बल्कि उन्हें मजबूर करता है अबॉर्शन के असुरक्षित विकल्प अपनाने के लिए। ऐसे में बॉम्बे हाई कोर्ट का यह फ़ैसला उदाहरण ज़रूर पेश करता है कि अबॉर्शन सेवा और इसकी प्रक्रिया का सबकी पहुंच में होना महिलाओं के सुचारू, स्वतंत्र और स्वस्थ्य जीवन के लिए कितनी आवश्यक है।
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तस्वीर साभार : livemint