समाज संबंधों और गुप्तांगों पर केंद्रित गालियों से बढ़ती महिला हिंसा

संबंधों और गुप्तांगों पर केंद्रित गालियों से बढ़ती महिला हिंसा

अगर हम महिला हिंसा और लैंगिक भेदभाव को जड़ से ख़त्म करना चाहते है तो हमें इन गालियों को अपने घर, परिवार और अपने ख़ुद से व्यवहार से भी दूर करना होगा।

आठ साल का रोहन (बदला हुआ नाम) हमेशा अपनी मम्मी और दीदी से झगड़ा करता है। इस झगड़े में वो धड़ल्ले से माँ-बहन की गाली देता है। एक़बार उसने मीटिंग के दौरान अपनी बहन को गाली दी, इस पर हम सभी महिलाओं ने रोहन को ख़ूब डाँट लगायी। इसके बाद गाँव में बच्चों द्वारा गाली देने की इसी आदत पर चर्चा शुरू हुई। तब सभी महिलाओं ने कहना शुरू किया कि उनके घर के पुरुष और बच्चे महिला केंद्रित गंदी-गंदी गाली देते है। आमबोल चाल में माँ-बहन की गाली देना तो आम बात हो गयी है। महिलाओं ने आगे बताया कि जब भी वो गाली देने की इस आदत का विरोध करती है तो परिवार वाले इसे अपनी बोली का हिस्सा बताकर बढ़ावा देते है।

गाँव हो या शहर महिला केंद्रित गालियाँ देना जैसे आम बात है। लेकिन महिलाओं के अधिकार और सम्मान के दृष्टिकोण से ये बिल्कुल भी सही नहीं है, बल्कि ये महिला हिंसा का एक रूप है। महिलाओं के अंगों को केंद्रित करके भद्दे-अश्लील शब्दों वाली गाली हमेशा महिलाओं को नीचा दिखाने के लिए इस्तेमाल की जाती है। पर ऐसा नहीं कि ये गालियाँ सिर्फ़ महिलाओं को दी जाती है, बल्कि लड़ाई चाहे किसी के भी साथ हो गालियों में हमेशा महिलाओं को ही केंद्रित किया जाता है।

मुस्लिमपुर गाँव में रहने वाली बबिता (बदला हुआ नाम) तीन बच्चों की माँ है। उन्होंने बताया कि उनके पति शराब पीकर उन्हें गंदी-गंदी गाली देते थे। उनके दो बेटों ने बचपन से ही ये गालियाँ सुनी। ये सारी गालियाँ महिला-पुरुष के शारीरिक संबंध को लेकर केंद्रित रहती है। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते गए तो अक्सर मुझसे इन गालियों का मतलब पूछते, जिससे हमें बहुत ज़्यादा शर्मिंदगी महसूस होती।

वहीं पंद्रह वर्षीय प्रिया (बदला हुआ नाम) बताती है कि इन गालियों को सुनने के बाद एक़बार उसके छोटे भाई ने मोबाइल पर कुछ शब्दों का मतलब जानने के लिए टाइप किया। ज़ाहिर है जब गालियाँ महिला-पुरुष के शारीरिक संबंध से जुड़ी है तो सर्च में भी बच्चे ने वही लिखा और उसके बाद मोबाइल में ख़ूब गंदी-गंदी विडियो आने लगी। फिर कुछ समय बाद एकदिन प्रिया ने अपने भाईं को पोर्न विडियो देखते पकड़ लिया। प्रिया कहती हैं कि ‘इन गालियों से आजकल बच्चे बहुत बुरी लत में पड़ते जा रहे और यही लत उनके बड़े होने पर महिला हिंसा को बढ़ाती है।‘

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ध्यान देने वाली बात ये है कि इन गालियों में महिला-पुरुष के शारीरिक संबंध को केंद्रित किया जाता है और इन सबंधों में पुरुष की सत्ता को मज़बूत और महिला के गुप्तांगों को कमजोर बताने की कोशिश की जाती है। महिला-पुरुष के जो संबंध उनके सबसे निजी होते है, गालियों में उन्हीं संबंधों को अश्लीलता के साथ परोसा जाता है। आश्चर्य की बात ये है कि हमारा ये समाज एकतरफ़ महिलाओं को देवी मानता है। उन्हें पूजनीय बताता है और उनकी इज़्ज़त को सबसे अहम मानता है। महिलाओं को अनमोल धन की तरह सहेजने की बात करता है। पर दूसरे ही पल महिला केंद्रित गालियों का इस्तेमाल करता है, वो गालियों जिसमें महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा और बुरे विचार होते है। ये गालियाँ ऐसी होती है, जैसे – एक पुरुष के अनमोल रत्न को दूसरा पुरुष लूटने की कोशिश करता है। महिलाओं पर केंद्रित ये गालियाँ हमेशा महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को सामान्य बनाती है। बचपन से ही बच्चे भी ये गालियाँ सीखने लगते है और ये गालियाँ ऐसी होती है जो महिलाओं को कमजोर और पुरुष से कमजोर बताती है। धीरे-धीरे ये गालियाँ बच्चों के मन में लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा देते है और जब कभी भी उन्हें महिलाओं को ख़ुद से नीचा दिखाना होता है तो वे ये गाली का इस्तेमाल करते है।

अगर हम महिला हिंसा और लैंगिक भेदभाव को जड़ से ख़त्म करना चाहते है तो हमें इन गालियों को अपने घर, परिवार और अपने ख़ुद से व्यवहार से भी दूर करना होगा।

यहाँ हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि अपने समाज में गालियाँ ज़्यादातर पुरुष देते है, इसलिए जब कोई महिला गाली देती है तो हाय-तौबा मच जाती है। क्योंकि ये गालियाँ अधिकतर पुरुष देते है, इसलिए इन गालियों का विचार भी पितरसत्ता में बताए पुरुषों के व्यवहार के अनुसार है, जिसमें महिलाओं को हमेशा नीचा दिखाया जाता है।  

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लड़ाई चाहे किसी के भी बीच हो, इन गालियों से हमेशा महिलाओं को केंद्रित किया जाता है और हर लड़ाई के बदले के लिए महिलाओं के साथ हिंसा को वाजिब बताता है। हाल ही में मैंने बीबीसी की एक खबर में एक प्रोजेक्ट ‘द गाली प्रोजेक्ट’ के बारे में पढ़ा, जिसमें बताया गया कि महिला केंद्रित गालियों को लोगों के शब्दकोष से हटाने के मक़सद से दो महिलाओं ने ‘द गाली प्रोजेक्ट’ शुरू किया ताकि लोगों को गालियों के अन्य विकल्प दिए जा सकें। इस प्रोजेक्ट से जुड़ी मुंबई की नेहा ठाकुर कहती हैं कि हम देख रहे हैं कि ओवर द टॉप (ओटीटी )प्लेटफॉर्म या ऑनलाइन पर जो सीरीज़ आ रही है उनमें से ज्यादातर में भाषा बद से बदतर होती जा रही है। जब हम युवाओं या लोगों में गाली के इस्तेमाल पर प्रतिक्रिया भी माँगते थे वो कहते थे कि इसमें आपत्ति क्या है, ‘इट्स फ़ॉर फ़न।‘

नेहा के अनुसार, ‘आजकल के माहौल में वैसे ग़ुस्सा और गाली देने के ट्रिगर कई सारे हैं जैसे सरकार से नाराज़गी, आने-जाने में परेशानी, नौकरी, रिलेशनशिप। लोगों में चिड़चिड़ाहट और खीज इतनी है कि गालियां लोगों के मुंह से स्वाभाविक तौर पर निकल रही हैं। तो गाली प्रोजेक्ट लाने का हमारा मक़सद ये है कि ग़ुस्सा निकालने के लिए जो गालियां लोग दे रहे हैं उसमें थोड़ी जागरूकता लाएं। दो मर्दों के बीच में हो रही लड़ाई में महिला पर गाली, जातिगत भेदभाव या समुदाय विशेष पर दी जाने वाली गाली के इस्तेमाल के बजाए ऐसी गालियों का वे इस्तेमाल करें जिससे सामने वाले को भी बुरा न लगे और आपका काम भी हो जाए। हमारी कोशिश गालियों का ऐसा कोष बनाना है जो महिला विरोधी न हो, जाति या समुदाय के लिए भेदभावपूर्ण, अपमानजनक या छोटा दिखाने के मक़सद से न हो।‘

समाज में प्रचलित महिला-केंद्रित गालियों को लेकर नेहा का विश्लेषण एकदम सही है। इन गालियों को हमेशा से सामान्य बताया जाता है। पर अगर हम महिला हिंसा और लैंगिक भेदभाव को जड़ से ख़त्म करना चाहते है तो हमें इन गालियों को अपने घर, परिवार और अपने ख़ुद से व्यवहार से भी दूर करना होगा। हो सकता है आपको ये बात बहुत मामूली लगे, लेकिन सच्चाई यही है कि जब हमलोग जैसा बोलते है, धीरे-धीरे वैसा ही सोचने लगते है और ये सोच हमारे नज़रिए में बदलने लगती है और एक समय के बाद ये नज़रिया हमारे व्यवहार में बदल जाता है, जिसके अनुसार हम व्यवहार करने लगते है। प्रिया के छोटे भाई के साथ ऐसा ही हुआ। लोगों के लिए ये बस अपशब्द होगा, लेकिन इस अपशब्द से कितना बुरा प्रभाव पड़ रहा है, इसका अंदाज़ा हमें नहीं लग रहा है। महिला-पुरुष के शारीरिक संबंधों और महिला गुप्तांगों पर केंद्रित ये गालियाँ महिला हिंसा को और भी वीभत्स रूप दे रही है। कहीं न कहीं समाज में महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ती हिंसा का ये प्रमुख कारण है, जिसे जल्द से जल्द रोकना बेहद ज़रूरी है। अब हमें महिला केंद्रित गालियों को सामान्य नहीं, रोकने की ज़रूरत है।

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तस्वीर साभार : फेमिनिज़म इन इंडिया

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