मैं जो आज मांग कर रही हूं, कभी सोचा नहीं था कि यह इतनी बड़ी चीज़ है जिसके लिए मुझे हज़ार शब्द लिखने पड़ जाएंगे। हालांकि कईं साल पढ़ाई के चलते घर से बाहर रहने के दौरान कभी ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा कि वॉशरूम जाने से पहले एक गहरी सोच और अजीब से मानसि दबाव से गुजरना पड़े। घटना हरियाणा में मेरी टियर टू सिटी सिरसा की है। चार महीने घर पर रहकर पढ़ाई करने के बाद मन हुआ कि शहर की कोई लाइब्रेरी जॉइन की जाए। शहर में ऐसा नहीं है कि पढ़ने के लिए मेरे पास बहुत ज्यादा विकल्प हैं, बस कुछ गिनी-चुनी लाइब्रेरीज़ हैं जिनमें से मैंने मेरे घर के नज़दीक वाली लाइब्रेरी में जाना शुरू किया।
लाइब्रेरी मालिक ने पढ़ाई के दौरान किसी तरह की परेशानी नहीं होने का भरोसा दिया, जैसा अमूमन सभी कहते भी हैं। काफी दिनों से लाइब्रेरी ढूंढने की परेशानी खत्म हुई और लगा कि चलो अब यहां बैठकर सकून से पढ़ाई की जा सकती हैं। लाइब्रेरी का पहला दिन अच्छा रहा और चार-पांच घंटे की पढ़ाई के बाद मैं घर लौट आई। पहला दिन अच्छा रहने के चलते दूसरे दिन लाइब्रेरी में और ज्यादा वक्त देने की उत्सुकता थी। अगले दिन लगातार तीन-चार घंटे बैठे रहने के बाद वॉशरूम जाने की ज़रूरत महसूस हुई। वॉशरूम जाने के बारे में पूछने पर पता चला कि लाइब्रेरी की साथ वाली बिल्डिंग में जाना होगा जिसमें लड़कों का पीजी चलता है। इतना सुनकर वॉशरूम जाने के ख्याल पर दोबारा सोचा तो मेरा मन नहीं माना। लेकिन बॉडी में प्रेशर लेवल बढ़ने लगा। हर पांच मिनट बाद घड़ी देखकर 20-25 मिनट बाद वॉशरूम जाने की हिम्मत की। जब उठने लगी तो साथ वाली लड़की ने कहा, ‘तुम्हारे लिए पहली बार वहां अकेले जाना असहज रहेगा, मैं साथ चलती हूं।’ तकरीबन 20 कदम दूर खड़े होकर उसने बताया कि वॉशरूम कहां है।
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वहां जाकर देखा तो उसकी असहज होनेवाली बात सही साबित हुई। सामने नज़ारा कुछ ऐसा था कि वॉशरूम के अगल-बगल मोटरसाइकिलें खड़ी हैं। उन पर बैठे चार-पांच लड़के फोन में लगे हैं। वहीं, पास की लॉबी में पड़े सोफे पर लड़के लेटे हुए हैं। अब चूंकि यह लड़कों का पीजी था तो वे वहां कैसे भी रहें। गलती तो हमारी है न जो लड़कियां हैं और ऊपर से हमें लड़कों के पीजी का वॉशरूम इस्तेमाल करना पड़ रहा है। सबने एक बार नज़र घुमाकर देखा। उन्हें पता था कि लड़कियां यहां वाशरूम इस्तेमाल करने के लिए आती हैं। एक बार दिमाग में ख्याल करते हुए कि सब नॉर्मल है न, जीन्स, टी-शर्ट कुछ ऊपर-नीचे तो नहीं है, मैं वॉशरूम की ओर बढ़ी, जाकर दरवाज़ा बंद किया तो थोड़ी-सी राहत मिली।
लाइब्रेरी के हालात देखकर महसूस हुआ कि छोटे शहरों में इस तरह के संस्थान बनाते वक्त किस तरह पितृसत्तात्मक सोच काम करती है। लाइब्रेरी में महिलाओँ के लिए वॉशरूम तक न होना पितृसत्तात्मक समाज की ही सोच है। ऐसा इसलिए क्योंकि उनको लगता है कि महिलाएं लाइब्रेरी में पढ़ने ही नहीं आएंगी।
उस वॉशरूम की हालत इतनी बुरी थी कि मेरे दिमाग का पारा चढ़ गया। जैसे-तैसे इस्तेमाल कर अब बाहर निकलने की बारी थी। जैसे ही गेट खुलने की आवाज़ आई सबने फिर से तब तक देखा, जब तक हम वहां से निकल न गए। फिर साथ वाली लड़की से बात हुई तो उसने कहा, “मुझे तो खुद बाद में पता चला कि यह वाला वॉशरूम इस्तेमाल करना है। यहा आने से पहले घंटाभर सोचना पड़ता है।” मैंने अलग वॉशरुम को लेकर शिकायत करने के बारे में पूछा तो जबाव मिला कि शिकायत करने से क्या होगा लड़कियों के पास यही ऑप्शन है। सुनकर अजीब लगा पर मुझे शिकायत करनी थी क्योंकि मेरी नजरों में यह कोई ऑप्शन नहीं था। उसके बाद मैं लाइब्रेरी मालिक के ऑफिस में गई तो उसने पूछा कि वह मेरे लिए क्या कर सकता है?
मैंने बहुत साफ़ शब्दों में पूछा क्या लड़कियों के लिए सिर्फ वही वॉशरूम मौजूद है। आपकी पूरी बिल्डिंग में कोई और वॉशरूम नहीं है क्या? उसने पूछा दिक्कत क्या है। मैंने कहा मेरी दिक्कत वहां जाने में निजता और सहजता को लेकर है। उसके चेहरे के भाव देखकर लगा ये कि ये शब्द उसके लिए नये थे शायद। फिर सोचने के बाद उसने कहा बेसमेंट में वॉशरूम नहीं बना सकते। गुस्सा तो था ही, मैंने भी तुरंत जवाब देते हुए कहा कि लाइब्रेरी बना सकते हैं तो वॉशरूम क्यों नहीं, यह कौनसी गाइडलाइन हैं बताएं जरा। थोड़े सन्नाटे के बाद उसने कहा, ‘यही विकल्प है हमारे पास और कोई समाधान नहीं है।’
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उसका सीधा-सा मतलब था कि लाइब्रेरी में कोई बदलाव नहीं होगा। आप लाइब्रेरी बदल लें या इसी व्यवस्था में खुद को ढाल लें। फिर अपनी कुर्सी पर बैठने के बाद सभी लड़कियों को देखा कि क्या इनमें से किसी को दिक्कत नहीं है। फिर बात करने पर पता चला कि दिक्कत सबको है बस कोई बोल नहीं रहा था। सबको लगता है कि लाइब्रेरी का मालिक जहां चाहे वॉशरूम उपलब्ध करवाए क्योंकि बिल्डिंग प्राइवेट है। अब मेरे सामने लाइब्रेरी बदलने का ही विकल्प था लेकिन बाकि जगह की भी स्थिति ऐसी ही है। मैं बैग उठाकर गुस्से में घर चली आई।
शहर में कई दूसरी लाइब्रेरी होने के बावजूद मुझे घर पर रहकर ही पढ़ाई करनी पड़ रही है जिसकी मुख्य वजह है लाइब्रेरी महिलाओं के हिसाब से नहीं बनाई गई हैं।
बहुत सोचने के बाद मैंने हरियाणा पुलिस में काम कर रही अपनी दोस्त को इस बारे में बताया। समझाने के बाद उसे समझ आया कि यह सच में एक बड़ी समस्या है। कायदे से तो महिलाओं के लिए अलग से वॉशरूम की सुविधा होनी चाहिए। लाइब्रेरी की लड़कियों के लिए लड़कों के पीजी में बने इस वॉशरूम में न साफ-सफाई का ध्यान रखा गया है और न वो सुविधाएं हैं जो एक कॉमन वॉशरूम में होनी चाहिए। उसने दिलासा दिया कि वह कुछ करेगी। घटना को हफ्ताभर बीत चुका है लेकिन कोई जवाब नहीं आया।
लाइब्रेरी के हालात देखकर महसूस हुआ कि छोटे शहरों में इस तरह के संस्थान बनाते वक्त किस तरह पितृसत्तात्मक सोच काम करती है। लाइब्रेरी में महिलाओँ के लिए वॉशरूम तक न होना पितृसत्तात्मक समाज की ही सोच है। ऐसा इसलिए क्योंकि उनको लगता है कि महिलाएं लाइब्रेरी में पढ़ने ही नहीं आएंगी। सभी नागरिकों के लिए समान अधिकार होते हुए समाज ने महिलाओं को पढ़ाई से वंचित रखने का खेल चला रखा है। शहर में कई दूसरी लाइब्रेरी होने के बावजूद मुझे घर पर रहकर ही पढ़ाई करनी पड़ रही है जिसकी मुख्य वजह है लाइब्रेरी महिलाओं के हिसाब से नहीं बनाई गई हैं।
2 अक्टूबर साल 2014 में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ने स्वच्छ भारत मिशन के तहत देश को ओडीएफ (ओपन डेफिकेशन फ्री) करने का संकल्प लिया। इसमें भी सबसे बड़ा लक्ष्य महिलाओं की सुरक्षा का था लेकिन हुआ क्या? देश के कई पुलिस थानों में आज भी महिला पुलिसकर्मियों के लिए अलग शौचालय तक की सुविधा नहीं हैं। एक लोकतांत्रिक देश में पैदा होने और समान नागरिक अधिकार होने के नाते महिलाओं के अधिकारों की बात होती है जिसमें देश से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक में महिला स्वास्थ्य सुरक्षा संबंधी दावे किए जाते हैं। वहीं, दूसरी ओर शहरों तक में इस तरह की स्थिति सोचने पर मजबूर करती है कि महिलाओं से जुड़ी मूलभूत स्वास्थ्य सुरक्षा सुविधाएं केवल भाषणों तक सीमित क्यों हैं।
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तस्वीर साभार : Tech In Asia