‘गोराई गाँव के राजेंद्र कुमार (बदला हुआ नाम) को ज़िंदगी भर ‘नामर्द’ का कलंक झेलना पड़ा।‘ गाँव की एक महिला ने बताया कि राजेंद्र कुमार के कोई बच्चे नहीं हुए। शुरू में पत्नी का बहुत इलाज करवाया गया पर कुछ दिक़्क़त सामने नहीं आई और बाद में जब राजेंद्र जी की जाँच हुई तो पता चला कि उनके में कोई दिक़्क़त है, इसलिए उनकी अपनी कोई संतान नहीं हो पाई। लेकिन जैसे ही उन्हें ये पता चला उन्होंने एक लड़की को गोद ले लिया और ख़ूब मेहनत करके पढ़ाया और आज वह डॉक्टर है। नेकदिल इंसान राजेंद्र को पूरा गाँव ‘नामर्द’ कहकर बुरा-भला कहता है क्योंकि वह अपने बच्चों को उनकी बेटी जैसा भविष्य नहीं दे पा रहे।
वहीं चित्रसेनपुर गाँव के मंगरू (बदला हुआ नाम) के आठ बच्चे है। शराबी मंगरू से उसकी पत्नी परेशान रहती है। अपने बच्चों के लिए दो वक्त रोटी जुटाना उसके लिए बड़ी चुनौती है। एक़बार जब मंगरू को सेक्स के दौरान पत्नी ने कंडोम (निरोध) का इस्तेमाल करने को कहा तो उसने अपनी पत्नी के साथ इतनी बुरी तरह मारपीट की कि उसे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। इसपर आस-पड़ोस वालों ने उसकी पत्नी को ग़लत ठहराया, ये कहते हुए कि मर्द की ज़रूरत है वह करेगा ही। बच्चा नहीं करवाना तो पत्नी उपाय करे।
राजेंद्र और मंगरू दोनों की सोच और स्थिति में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ है। लेकिन एक पायदान पर वे दोनों समान नज़र आते है और वह है– ‘मर्दानगी।‘ राजेंद्र जो एक नेकदिल इंसान है लेकिन उसे जीवनभर नामर्द का ताना झेलना पड़ा, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि किन्हीं शारीरिक दिक़्क़तों के चलते वो अपनी संतान पैदा नहीं कर पाया। वहीं मंगरू की सारी हिंसा सिर्फ़ इसलिए सही करार की जाती है कि उसने आठ बच्चे पैदा किए, किसी प्लानिंग से नहीं बल्कि किसी भी परिवार नियोजन साधन के अभाव या यों कहें कि न इस्तेमाल की नियत से।
‘मर्दानगी’ के मानक ने समाज में सड़न को इतना ज़्यादा बढ़ा दिया है कि मेडिकल के दुकानों में सेनेटरी पैड के बाद कंडोम को अब पेपर में लपेटकर दिया जाता है।
देखने में अपने पितृसत्तात्मक समाज में मर्द बनने का मानक भी बहुत अजीब-सा लगता है, पर वास्तव में ये एकदम सरल है। इसके अनुसार जो पुरुष महिला के साथ शारीरिक संबंध बनाता है, उससे अगर महिला गर्भवती हो गयी तो इसे समाज ने अपनी मर्दानगी का मानक मानता है और अगर वो महिला को गर्भवती नहीं कर पाया तो वो पुरुष ‘नामर्द’ कहलाता है। पर दुर्भाग्यवश ‘मर्द’ बनने के ताव और ‘नामर्द’ के ताने के बीच का दबाव सिर्फ़ और सिर्फ़ महिला को झेलना पड़ता है क्योंकि ये दबाव ही है वो पुरुष को किसी भी तरीक़े के परिवार नियोजन के साधन से उसे रोकता है। ग़ौरतलब है कि पुरुषों पर परिवार नियोजन की ज़िम्मेदारी न डालने का मूल भी सिर्फ़ ‘मर्दानगी’ की यही परिभाषा है।
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समाज के इस ‘मर्दानगी’ के मानक ने समाज में सड़न को इतना ज़्यादा बढ़ा दिया है कि मेडिकल के दुकानों में सेनेटरी पैड के बाद कंडोम(निरोध) को अब पेपर में लपेटकर दिया जाता है। आज जब हम सेनेटरी पैड ख़रीदने और इससे जुड़ी शर्म को हटाने की दिशा में जागरुक हो रहे है, वहीं दूसरी तरफ़ उसी मेडिकल की दुकानों में कंडोम(निरोध)पर शर्म की परतें चढ़ते देख रहे है। कई बार युवा साथियों ने बताया कि ‘जब भी वे कंडोम ख़रीदने मेडिकल दुकानों पर जाते है तो कंडोम(निरोध) बोलते है दुकान वाले के चेहरे की रंगत ही उड़ जाती है। कई बार वो लड़के को ऊपर से नीचे घूरने लगता है और बिना किसी कम्पनी या फ़्लेवर के सवाल से पहले ही कंडोम पैकेट पेपर में लपेटकर थमा देता है। ये सब इतना ज़्यादा संकोच भरा होता है कि उसके बाद कोई सवाल-ज़वाब करना मुश्किल लगता है।‘
ये अनुभव शहरी युवाओं का है। जो पढ़े-लिखे है। जागरूक है और अपने अधिकारों में बारे में जानते है। उन्हें ये भी मालूम है कि कंडोम(निरोध) ख़रीदना कोई ग़लत काम नहीं है। बड़े शहरों की अपेक्षा छोटे शहरों में स्थिति अभी भी जस की तस है। कई बार इसके बीच में उम्र की फाँक भी देखने को मिलती है। अधेड़ उम्र के या दो-तीन बच्चों के पिता जब कंडोम(निरोध) ख़रीदने जाते है उन्हें अक्सर शर्मिंदगी महसूस होती है क्योंकि मेडिकल की दुकानों में कंडोम(निरोध) माँगना और दुकानदार का बर्ताव उन्हें शर्मिंदा करने के लिए काफ़ी होता है। अब जब शहरों में हम कंडोम या निरोध से जुड़ी इतनी जटिलताएँ अनुभव कर रहे है तो इससे गाँव का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
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कंडोम या निरोध को लेकर समाज में शर्म एक जटिल समस्या है। क्योंकि ये हमारे देश में ज़नसंख्या विस्फोट का प्रमुख कारण है। ऐसे में अधिक संख्या में पैदा होने वाले बच्चों का भविष्य तो धूमिल होता है ही साथ ही महिला और बच्चे के स्वास्थ्य से जुड़ी भी समस्याएँ बढ़ने लगती है, फिर ग़रीबी, भूखमरी और बेरोजगारी की समस्या अलग से। यूँ तो सरकार की तरफ़ से कई तरह के परिवार नियोजन की योजनाओं को लेकर अभियान चलाए जाते है। लेकिन जब हम इन योजनाओं में शामिल होने वाले लोगों का विश्लेषण करते है तो अधिक संख्या महिलाओं की ही पाते है और पुरुषों की भागीदारी न के बराबर होती है।
चूँकि कंडोम(निरोध) न केवल परिवार नियोजन का अहम साधन है, बल्कि ये यौन-संचारित रोगों से भी सुरक्षा देता है, इसलिए स्वास्थ्य के लिहाज़ से भी कंडोम(निरोध) के इस्तेमाल को ज़रूरी माना जाता है, जिस तक पहुँच समाज के बेहद सीमित लोगों की ही है। इसका मुख्य कारण है – समाज की सोच। जिसे बदलने की बेहद ज़रूरत है। इस बदलाव की शुरुआत हमें अपने जीवन से करनी होगी और इस पर चर्चा को अपने व्यवहार में लाना होगा। सदियों की सड़न वाली शर्म को दूर करना मुश्किल ज़रूर है लेकिन नामुमकिन नहीं। हमें नहीं भूलना चाहिए कि इस शर्म की सड़न का ख़ामियाज़ा हम ज़नसंख्या विस्फोट और गंभीर यौन-संचारित रोगों के रूप में झेल रहे है, जिसपर लगाम लगाना न केवल हमारी बल्कि पूरे समाज की ज़रूरत है। इसलिए निरोध के विरोध की बजाय मर्दानगी के गणित को समझिए और अपना, अपने परिवार और समाज का भविष्य बचाइए।
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