“दादी बचपन से कहती है जब तू अपने घर चली जाएगी तुझे बहुद याद करूंगी, क्या ये घर मेरा नहीं है।” अभिनेत्री आलिया भट्ट कपड़े बनाने वाले ब्रैंड ‘मोहे’ के विज्ञापन में शादी में होनेवाले कन्यादान के रिवाज़ पर सवाल उठा रही हैं। कन्यादान को ‘कन्यामान’ कहने की अपील कर रही हैं। विज्ञापन के रिलीज़ होने के बाद सहूलियत के साथ समाज का एक तबका इस ऐड की तारीफ़ करता नज़र आ रहा है। वहीं, एक वर्ग विज्ञापन से आहत नज़र आ रहा है। इन दोनों ही प्रतिक्रियाओं के बीच शादी का कॉन्सेप्ट हुबहू वैसा ही बना हुआ है जैसा वह है। बाज़ार और विज्ञापन के क्षेत्र में प्रोग्रेसिव होकर भावनात्मक रूप से कुछ बातें समय-समय पर उठाई जाती रही हैं। कन्यादान की जगह कन्यामान कहकर धूम-धड़ाके वाली ‘इंडियन वेडिंग’ को ही प्रमोट किया जा रहा है। बाज़ारवाद ने भारतीय रीति-रिवाज को न केवल बढ़ावा दिया बल्कि रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक परंपराओं को विरासत कहकर और अधिक अपनाने पर ज़ोर दिया है।
नाम बदलने से क्या होगा
भारतीय राजनीति में एक चीज़ बहुत चल रही है, इस शहर का नाम बदल दो, उस योजना का नाम बदल दो। ठीक उसी से प्रेरणा लेकर विज्ञापन जगत में कन्यादान को कन्यामान कहने को कहा गया है। शहर हूबहू वैसा ही रहता है बस नाम बदल जाता है। गौर करने पर हम पाएंगे कि विज्ञापन में दुल्हन बनी गहनों से सजी लड़की कन्यादान के रिवाज़ पर सवाल कर रही है। पितृसत्ता की खींची लकीर को मिटाने के लिए कह रही है। अपने लिए पूरे आसमान की मांग करती और कहती है क्या वह कोई दान करने की चीज़ है। ऐसी प्रगतिशीत बातें बोलने के लिए उसी रूढ़िवादी रीति-रिवाज के सेटअप का प्रयोग किया गया है, जिसमें शादी के नाम पर लड़की को दूसरे घर सौंप दिया जाता है। विज्ञापन के अंत में हैप्पी एंडिग के तहत बेटे के हाथ को बढ़ाते हुए समानता और प्रगतिशीलता का संदेश भव्यता के साथ दिखाया गया है।
बाज़ार और विज्ञापन के क्षेत्र में प्रोग्रेसिव होकर भावनात्मक रूप से कुछ बातें समय-समय पर उठाई जाती रही हैं। कन्यादान की जगह कन्यामान कहकर धूम-धड़ाके वाली ‘इंडियन वेडिंग’ को ही प्रमोट किया जा रहा है। बाज़ारवाद ने भारतीय रीति-रिवाज को न केवल बढ़ावा दिया बल्कि रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक परपंराओं को विरासत कहकर और अधिक अपनाने पर ज़ोर दिया है।
पहचान पर वार करते रिवाज़
भारतीय समाज में पितृसत्तात्मक कंडिशनिंग के तहत बचपन से मासूम मन में रीति-रिवाज़, पंरपरा, त्योहार और शादी को स्थापित किया जाने लगता है। सामान्य व्यवहार के तहत ऐसी बातें की जाती हैं जिसमें मौजूद असमानता, जातिवाद और भेदभाव को रिवाज़ कहकर आसानी से पीढ़ी दर पीढ़ी अपनाया जाता है। वहीं, शादी एक ऐसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था है जिसके लिए माता-पिता बच्चे के जन्म से पूर्व उसकी शादी के बारे में सोचना शुरू कर देते हैं। बेटियों को बचपन से ‘पराया धन’ कहा जाने लगता है। उसकी शादी के लिए दहेज की व्यवस्था करनी शुरू कर दी जाती है। सामाजिक दिखावे का इतना दबाव बन जाता है कि परिवार कर्ज़ के बोझ तले दब जाता है। रस्मों के तहत एक इंसान को दान करने की व्यवस्था को निभाया जाता है।
भारतीय राजनीति में एक चीज बहुत चल रही है, इस शहर का नाम बदल दो, उस योजना का नाम बदल दो, ठीक उसी से प्रेरणा लेकर विज्ञापन जगत में कन्यादान को कन्यामान कहने को कहा गया है। शहर हूबहू वैसा ही रहता है बस नाम बदल जाता है।
सवाल यह है कि क्या एक कन्या कोई वस्तु है जिसका दान किया जाए? उसको जाति-धर्म, घर-परिवार के घेरे में रखकर किसी दूसरे परिवार को सौंप दिया जाए। सौंपते हुए लड़की को ससुराल के प्रति समर्पण करने की हिदाहत दी जाती है। हर परिस्थिति में पति के घर को ही अपना घर कहना और हर व्यवहार को पति का प्यार समझकर सहने जैसी बातें शादी के वचनों और मंत्रों में कही जाती हैं। इन सबके बीच लड़की की क्या पहचान है, क्या राय है यह कोई मायने नहीं रखती है। ब्राह्मणवादी पितृसत्ता तो इस बात की पैरवी भी करती है कि लड़की का असली घर उसकी ससुराल है और पति उसका मालिक है। एक महिला की स्वयं की पहचान पर बचपन से लेकर ताउम्र एक ओनरशिप के तहत पुरुष का हक माना जाता है। पिता बाद पति को उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंप दी जाती है। इन्हीं बातों की पैरवी मनुस्मृति में भी की गई है। महिला के आर्थिक रूप से सक्षम होने के बावजूद भी रक्षा और भय से उपजी चिंता को दूर करने के लिए विवाह की संस्था पर ज्यादा बल दिया जाता है।
और पढ़ें : नुसरत जहान के बच्चे के पिता का नाम जानने को बेचैन हमारा पितृसत्तात्मक समाज
पूंजी के खेल में प्रगतिशील रिवाज़
इक्कीसवीं सदी के पूंजीवादी भारतीय समाज में ‘पराया धन’ कहकर लड़कियों को कन्यादान करने की जगह कन्यामान कहने के लिए कहा जा रहा है। पूंजी के बल पर सहूलियत के साथ अपनाई गई यह प्रगतिशीलता रूढ़िवाद को रंगीन भले ही कर देती हो, लेकिन वास्तव में वह पीढ़ियों से चला आ रहा शोषण ही होता है। प्यार, रिवाज़ और संस्कृति बाज़ार के लिए खरीदारी और मुनाफे का एक ज़रिया बन गया है। पूंजीवाद ने रूढ़िवादी दकियानूसी रिवाजों को बाज़ार से जोड़ दिया है, जिसमें खरीदारी, उपहार और भव्यता आ गई है। प्यार के बाज़ार पर दक्षिणपंथ ज़रूर सवाल उठाता है लेकिन रिवाज़ और परपंरा के नाम पर वह बाज़र को बाहों में भी भरता है। सुविधाभोगी वर्ग के इस खेल में सामाजिक परिस्थितियां गर्त में जा रही हैं। वर्चस्व के खेल को भावनात्मक पहलू में डालकर बाज़ारवाद अपने मुनाफे की योजनाएं बना रहा है और समाज इस खेल में उसके रास्ते पर चलकर रिवाज़ों की बेड़ियों में बंधता जा रहा है।
सितारों का दोहरा चेहरा
फिल्मी सितारें हो या खिलाड़ी इनको सबसे ज्यादा विज्ञापन में देखा जाता है। जनता में इनकी लोकप्रियता अधिक होने के कारण विज्ञानप बनाने वाली कंपनियां इनको अधिक महत्व देती हैं। करोड़ो में सौदा करने वाले इन कलाकारों और खिलाड़ियों की रीढ़विहीनता के कारण आम नागरिक इनके मुनाफे के लिए अपनाई गई झूठी प्रगतिशीलता में फंसता है। संसाधनों से लैस ये सेलिब्रिटी न केवल पब्लिक को प्रभावित करते हैं बल्कि इंवेस्ट और फॉलो करने पर भी ज़ोर डालती। ये स्वयं के निजी जीवन में उन्हीं रूढ़िवाद रीति-रिवाजों को निभाते नजर आते हैं जिन पर पैसा कमाने के लिए सवाल करते हैं।
और पढ़ें : शादी के रूढ़िवादी और पितृसत्तामक ढांचे को बढ़ावा देते मैट्रिमोनियल विज्ञापन
हाल में यूनिसेफ की गुडविल एंबेस्डर रहने वाली अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाम कमाने वाली अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा ने एक इटैलियन लग्ज़री लेबल के मंगलसूत्र को लॉन्च किया है। मंगलसूत्र के कॉन्सेप्ट को भारतीय समाज में किस तरह से देखा जाता है और किस तरह से यह एक महिला के दायरे को सीमित करता है, यह नारीवाद अच्छे से समझता है।प्रियंका चोपड़ा समेत कई अभिनेत्रियां अपनी भव्य शादी के के बाद अपने नाम के पीछे अपने पति का नाम लगाना भी शुरू कर देती हैं। इस तरह के तमाम फिल्मी सितारें और खिलाड़ी हैं जो प्रगतिशीलता का चोला पहनकर एक ओर तो समाज की कुरीतियों पर बड़े मंचों पर भाषण देते, विज्ञापन करते नज़र आते हैं दूसरी ओर निजी जीवन में उन्हीं रीति-रिवाजों का पालन कर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर उनकी तस्वीर लगाकर जाहिर करते नज़र आते हैं।
वास्तव में विज्ञापन एक सशक्त माध्यम है जो समाज में स्थापित रूढ़िवादी वर्जनाओं को खत्म करने में मदद कर सकता है। विज्ञापनों के ज़रिये महिलाओं के अधिकारों को आसान भाषा में कहकर उनकी वर्तमान की स्थिति पर बात कहकर चीजों को बदलने की एक सकारात्मक शुरुआत की जा सकती है। कन्यामान की लाइन जितनी प्रोग्रेसिव सोच के साथ लिखी गई है उनको जाहिर करने के लिए उसी सोच की आवश्यकता है। शादी के पितृसत्तात्मक, जातिवादी ढांचे पर सवाल करने की ज़रूरत है। सजी-संवरी मंडप में दुल्हन बनी आलिया भट्ट कन्यादान पर तो सवाल करती हैं लेकिन शादी के उसी पितृसत्तात्मक ढांचे के तहत।
और पढ़ें : विज्ञापनों के ज़रिये लैंगिक भेदभाव को और मज़बूत किया जा रहा है : UNICEF