मथुरा रेप केस के बारे में किसने नहीं सुना होगा। वह केस जिसके कारण भारत में बलात्कार से संबंधित कानूनों में बड़े बदलाव लाए। 1970 के दशक में मथुरा नाम की एक आदिवासी लड़की के साथ दो पुलिसकर्मियों द्वारा पुलिस चौकी में ही रेप किया गया। साल 1979 में इस केस पर फैसला सुनाते हुए न्यायधीश ने दोनों पुलिसकर्मियों को बरी कर दिया। भारतीय न्याय व्यवस्था के इस फै़सले के ख़िलाफ़ अनेक महिला संस्थाओं और आंदोलनकारियों द्वारा आवाज़ उठाई गई। इस आंदोलन के ज़रिये रेप संबंधित कानून में बदलाव लाने की कोशिश गई। उन्हीं आंदोलनकारियों में से एक थीं, सोनल शुक्ला। सोनल शुक्ला का जन्म साल 1941 में वाराणसी में हुआ। उनके व्यक्तित्व के निर्माण की नींव इनकी स्कूली शिक्षा के दौरान ही बन गई थी।
सोनल शुक्ला उर्फ़ ‘सोनल बेन’ ‘वाचा’ चैरिटेबल ट्रस्ट की सह-संस्थापक थी। वाचा का अर्थ है खुद की सशक्त अभिव्यक्ति। ‘वाचा’ एक गैर-लाभकारी संस्था है जो मुंबई की झुग्गियों में रहने वाली किशोरियों के लिए काम करती है। यह संस्था इन लड़कियों को लाइफ स्किल कोर्सेस का प्रशिक्षण देती है। साल 1980 में शुरू हुई यह संस्था पहले एक रिसोर्स सेंटर थी। यह सेंटर सोनल के घर में बना था जिसमें कोई भी औरत अगर स्त्री आंदोलन के बारे में जानना चाहती थी, आ सकती थी। यह सेंटर पहला ऐसा पुस्तकालय बन जिसमें केवल औरतें ही पढ़ सकती थीं। इनके पुस्तकालय में 3000 से भी अधिक किताबें थीं और कुछ तो ऐसी जो खोजने पर भी मुश्किल से मिलें। महिला आंदोलनकारियों की जिंदगियों पर यह सेंटर डॉक्यूमेंट्रेटी भी बनाता था। एक छोटे से कमरे से हुई इस संस्थान की शुरुआत आज कई लड़कियों को प्रशिक्षण दे रहा है।
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मथुरा गैंग रेप
मथुरा गैंग रेप पर आए कोर्ट के रूढ़िवादी फ़ैसले के बाद देशभर में महिला आंदोलनकारियों ने इसके ख़िलाफ़ मोर्चा उठाया। दो पुलिसकर्मियों ने मथुरा का रेप किया था। न्यायाधीश ने यह कहकर मुजरिमों को छोड़ दिया कि मथुरा को सेक्स की आदत थी। चूंकि उसके शरीर पर कोई विरोध के निशान नहीं थे, इसलिए इससे यह पता चलता है कि उसने किसी भी प्रकार का विरोध दर्ज़ नहीं किया। कोर्ट के इस निर्णय के बाद चारों ओर कंसेंट और रेप से जुड़े कानूनों पर सवाल उठने लगे।
पितृसत्तात्मक समाज की रूढ़िवादी कुरीतियों का विरोध करने के लिए सोनल अपनी लेखनी का भी इस्तेमाल करती थीं।
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर उपेंद्र बक्शी, रघुनाथ केलकर और लतिका सरकार ने पुणे की वक़ील वसुधा धागमवार के साथ मिलकर सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों को एक खुला ख़त लिखा। सोनल का इस केस में कहना था कि न्यायाधीश ने इस बात की संभावना ही नहीं जताई कि मथुरा या पुलिसकर्मियों के शरीर पर नाखूनों के निशान इसलिए नहीं है क्योंकि मथुरा को विरोध करने की हालत में छोड़ा ही नहीं गया था।
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फोरम अगेंस्ट रेप
फ़ैसले के बाद मुंबई में 49 औरतें इस मुद्दे पर विचार-विमर्श करने के लिए इकट्ठी हुईं। सोनल भी उन्हीं में से एक थीं। इसी समूह से मुंबई का पहला स्वतंत्र स्त्री समूह बना, ‘फोरम अगेंस्ट रेप।’ इस मंच का हिस्सा होने के नाते सोनल ने एक अहम भूमिका निभाई रेप के कानूनों के बदलाव में। यह संगठन आगे चलकर ‘फोरम अगेंस्ट ऑप्रेशन ऑफ वीमेन (महिलाओं के दमन के ख़िलाफ़ मंच) में तब्दील हो गया।
इसमें से सबसे ज़्यादा उल्लेखनीय योगदान है जब रेप से जुड़े कानूनों में परिवर्तन हुआ। इस संस्था ने घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ भी अभियान चलाया। इसी सिलसिले में सोनल ने अपने घर का एक कमरा, दो सालों के लिए घरेलू हिंसा और अन्य तरह की हिंसाओं की सर्वाइवर्स के लिए आश्रय के रूप में रखा । इस बाबत पूछने पर वह हमेशा कहती थी, “हमारी ज़रूरतें बहुत कम हैं, यानि हमें इतना बड़ा घर नहीं चाहिए, यह कमरा उन लोगों को दिया जा सकता है जिन्हें इसकी ज़्यादा ज़रूरत है।” इस मुहीम से औरतों के लिए शेल्टर हाउस होने की आवश्यकता को पहचाना गया। इन्होंने गर्भ में पल रहे बच्चे की लिंग जांच के ख़िलाफ़ भी अभियान शुरू किया और इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई।
लेखिका के रूप में सोनल
पितृसत्तात्मक समाज की रूढ़िवादी कुरीतियों का विरोध करने के लिए सोनल अपनी लेखनी का भी इस्तेमाल करती थीं। वह अंग्रेज़ी और गुजराती दोनों भाषाओं में दक्ष थी लेकिन इन्होंने गुजराती में लिखना चाहा। उनका मानना था कि भले ही इसके लिए उन्हें कम पैसा और ओहदा मिले लेकिन इस कदम से वह ज़्यादा लोगों तक अपनी बात पहुंचा सकती हैं। सोनल के व्यक्तित्व की तरह ही उनकी लेखन कला भी बहुत प्रभावशाली थी। उनके लेख लोगों को खटकते भी थे यानि वह अपना काम कर रहे थे। वह अपने नए विचारों और दृष्टिकोण से सबको प्रभावित करती थीं। हाल ही में बीते 9 सितंबर, 2021 को सोनल ने अपनी आखिरी सांसें लीं, लेकिन उनका काम, उनके योगदान हमेशा हमारे बीच मौजूद रहेंगे।
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तस्वीर साभार : Indian Express
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