भारत में त्योहार का मौसम शुरू हो चुका है। नवरात्रि, दशहरा, दिवाली और छठ जैसे कई त्योहार एक के बाद एक इन दो से तीन महीनों में मनाए जाएंगे। वैसे अपने देश में लगभग हर महीने कोई न कोई पर्व-त्योहार मनाया ही जाता है। हर त्योहार की अपनी कहानी है और उसे मनाने का ख़ास तरीक़ा है। लेकिन इस त्योहार के मौसम में महिलाओं की भूमिका हर जगह ख़ास नहीं बल्कि एक समान ही दिखाई पड़ती है।
अब होली की गुझिया हो या दिवाली की पूजा। हर पर्व को मनाने के लिए उसकी पूरी तैयारी की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ महिलाओं के कंधों पर होती है। समाज के बनाए जेंडर के ढांचे के तहत महिलाएं हर रोज़ घर-परिवार के पूरे काम का बोझ उठाती हैं या यह कहूं कि उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर या कई बार तैयार किया जाता है। इसी बीच ये त्योहार महिलाओं के लिए हर बार अतिरिक्त काम ही लेकर आते हैं। कई बार जब इन त्योहारों में महिलाओं की भूमिका का आकंलन करती हूं तो इसे पितृसत्ता की सोची-समझी साज़िश ही पाती हूं। इन त्योहारों में पूजा, व्रत, त्योहार की तैयारी और पकवान बनाने की पूरी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ महिलाओं के हिस्से आती है। यह ज़िम्मेदारी महिलाओं के रोज़मर्रा के कामों में अलग से होती है, जो उनके ऊपर काम के बोझ को ज़ाहिर है दोगुना कर देती है। त्योहार के मौसम में महिलाओं पर दोहरे कामों का भार उन्हें औरों की तरह सुकून और आराम देने की बजाय थका देता है।
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अब होली की गुझिया हो या दिवाली की पूजा। हर पर्व को मनाने के लिए उसकी पूरी तैयारी की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ महिलाओं के कंधों पर होती है। समाज के बनाए जेंडर के ढांचे के तहत महिलाएं हर रोज़ घर-परिवार के पूरे काम का बोझ उठाती हैं।
देईपुर गांव की सितारा देवी त्योहार में महिलाओं पर बढ़ते काम के बोझ के बारे में बताती हैं कि गांव में आज भी किसी भी त्योहार में महिलाएं जहां रोज़ चार बजे सुबह उठती हैं, वहीं त्योहार के अतिरिक्त काम की वजह से रात तीन बजे से उठ ज़ाया करती हैं। आंख खुलते ही वे घर के काम के जुट जाती हैं और उसके बाद खेत का काम करने निकल जाती हैं। फिर सुबह से जानवरों को खाना पानी देना दूध दुहना। फिर पूजा-पाठ करना और फिर खाना बनाना। इसके बाद आधी रात तक घर का सारा काम समेटना। त्योहार के मौसम में रात में महिलाएं चार से पांच घंटा ही सो पाती हैं।
गांवों में महिलाएं आज भी खेत और घर के काम के साथ-साथ पालतू जानवरों की सेवा करती हैं। ऐसे में व्रत में रहते हुए भी उन्हें ये सारे काम करने पड़ते हैं। इतना ही नहीं, घर के बाक़ी सदस्यों के लिए त्योहार के अनुसार पकवान बनाने और घर के सजावट की ज़िम्मेदारी भी महिलाओं के ऊपर होती है। इन कठिन व्रतों के बाद गांव में कई बार महिलाएं बीमार भी पड़ जाती हैं जिसकी वजह है महिलाओं पर दोहरा काम का भार।
त्योहारों में पूजा, व्रत, त्योहार की तैयारी और पकवान बनाने की पूरी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ महिलाओं के हिस्से आती है।
पितृसत्ता की व्यवस्था में महिलाओं को धर्म और संस्कृति के मज़बूत वाहक के रूप में इस्तेमाल किया गया है। इसलिए बक़ायदा सारे व्रत-पूजन का ज़िम्मा सिर्फ़ महिलाओं को सौंपा गया है। वे न केवल अपनी सलामती बल्कि अपने पति, पुत्र और पूरे परिवार की सलामती के लिए ज़िम्मेदार मानी जाती है। ऐसे में जब कुछ महिलाएं इन दक़ियानूसी रीति-रिवाजों का विरोध करती है या फिर उनके पुरुष साथी पर्व-त्योहार में काम में बराबर की भागीदारी निभाते हैं तो ऐसे में अक्सर महिलाओं को धर्म का डर दिखाया जाता है।
कई बार पढ़ी-लिखी सशक्त महिलाएं इस डर के आगे बेख़ौफ़ अपने त्योहार को अपने अनुसार मनाती हैं। लेकिन अधिकतर महिलाएं इस डर के आगे घुटने टेकने को मजबूर होती हैं। कई बार किसी व्रत-पूजन में हुई चूक के बाद अगर घर में कोई छोटी-बड़ी घटना होती है तो इसके लिए सीधे से महिलाओं को ज़िम्मेदार भी बताया जाता है, जो महिलाओं में धर्म के डर मज़बूत करने का करता है।
पितृसत्ता की व्यवस्था में धर्म की अपनी राजनीति है, जो महिलाओं के ऊपर अपने वर्चस्व को बनाए रखने में सदियों से मज़बूत होकर काम कर रही है। लेकिन इस वर्चस्व के चलते न केवल महिलाओं की सामाजिक और मानसिक बल्कि उनके शारीरिक स्वास्थ्य पर भी गहरा असर पड़ता है। काम के बढ़ते बोझ उनके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालते हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि त्योहार में महिलाओं पर बढ़ने वाले अतिरिक्त बोझ को कम करने की दिशा में काम किया जाए, जिससे महिलाओं के लिए भी त्योहार ख़ुशियाँ और सुकून लेकर आए न कि काम के अधिक दबाव का डर।
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तस्वीर साभार : france24