चिपको आंदोलन के बारे में आपने सुना ही होगा। चिपको आंदोलन उत्तराखंड के चमोली जिले में साल 1973 में जंगलों को बचाने के लिए किया गया था। इस आंदोलन में अपने जंगलों को कटने से बचाने के लिए गांव के लोग पेड़ों से चिपक गए थे। इसी वजह से इस आंदोलन का नाम चिपको आंदोलन पड़ा था। इस आंदोलन में महिलाओं का भी खासा योगदान रहा। लेकिन क्या आप चिपको आंदोलन की सफलता के पीछे उस महिला को जानते हैं जिसकी वजह से यह आंदोलन संभव हो पाया था। वह महिला थीं गौरा देवी। गौरा देवी को ‘चिपको आंदोलन की जननी’ और ‘चिपको वुमन’ भी कहा जाता है। उत्तराखंड में इनके नाम पर ‘गौरा देवी कन्या धन योजना’ नामक योजना चलाई जाती है।
गौरा देवी का जन्म साल 1925 में उत्तराखंड के लाता गांव में हुआ था। मात्र 12 साल की उम्र में उनकी शादी रैंणी गांव के मेहरबान सिंह के साथ कर दी गई थी। जब गौरा देवी मात्र 22 साल की थीं जब उनके पति का निधन हो गया जिसके बाद गौरा देवी पर उनके ढाई साल के बेटे और बूढ़े सास-ससुर की ज़िम्मेदारी आ गई। गौरा देवी ने अपने दम पर अपने बेटे चन्द्र सिंह गौरा का पालन-पोषण किया। इसी के साथ-साथ वह गांव के कामों में अपना सहयोग देती रहीं। गौरा देवी अपने गांव के महिला मंगल दल की अध्यक्ष भी थींं।
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चिपको आंदोलन आंदोलन के तहत सबसे बड़े प्रदर्शनों में से एक प्रदर्शन 26 मार्च 1974 को उत्तराखंड के चमोली में हुआ था। इस आंदोलन का नेतृत्व चंडीप्रसाद भट्ट, गौरा देवी और भारत के प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा ने नेतृत्व किया था। मार्च 1974 में सरकार ने रैणी गांव के 2500 पेडों को काटने का आदेश दिया था जिसका ठेका साइमन गुड्स कंपनी को दिया गया था। 18 मार्च 1974 को साइमन कंपनी के ठेकेदार और मज़दूर जोशीमठ पहुंच गए जिसके बाद 24 मार्च को जिला प्रशासन ने चंडी प्रसाद भट्ट और अन्य साथियों को जोशीमठ-मलारी सड़क निर्माण के लिए अधिग्रहण की गयी ज़मीन के मुआवज़े के सिलसिले में बातचीत करने के लिए गोपेश्वर बुला लिया। साथ ही, यह घोषणा भी की कि गांव के किसानों को 14 साल से अटकी मुआवज़े की राशि 26 मार्च को चमोली तहसील में दी जाएगी। इसी के साथ सरकार ने बड़ी चालाकी से 25 मार्च को सभी मज़दूरों को रैणी जाने का परमिट दे दिया गया।मुआवजे की घोषणा की खबर सुनते ही गांव के सारे पुरुष 26 मार्च 1974 को चमोली चले गए। इसी दिन सरकार द्वारा जंगलों को कटाने के आदेश पर मजदूरों ने अपना रुख रैणी गांव की तरफ किया।
क्या आप चिपको आंदोलन की सफलता के पीछे उस महिला को जानते हैं जिसकी वजह से यह आंदोलन संभव हो पाया था। वह महिला थीं गौरा देवी। गौरा देवी को ‘चिपको आंदोलन की जननी’ और ‘चिपको वुमन’ भी कहा जाता है।
तब गौरा देवी इस आंदोलन का नेतृत्व करते हुए 27 महिलाओं को अपने साथ लेकर जंगल की ओर चल पड़ी। गौरा सहित अन्य 27 महिलाएं भी जंगलों की कटाई को रोकने के लिए पेड़ों से चिपक गई। उन्होंने सरकारी कर्मचारियों से पेड़ों को काटने से पहले आरी खुद के शरीर पर चलाने को कहा। गौरा देवी और महिलाओं के इस हिम्मती साहस के आगे सरकार को झुकना ही पड़ा और इस प्रकार यह आंदोलन 2400 पेड़ों की कटाई को रोकने में कामयाब हो गया।
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भले आज गौरा देवी हमारे बीच ना हो लेकिन पर्यावरण को बचाने में उनका योगदान अतुल्य है। इंडियाटाइम्स में छपी एक खबर के मुताबिक एक इंटरव्यू में गौरा देवी ने जंगल के प्रति अपने लगाव को दर्शाते हुए कहा था कि यह जंगल हमारा मायका है, इससे हमें जड़ी-बूटी, सब्जी-फल और लकड़ी मिलती हैं। अगर जंगल कटोगे तो बाढ़ आएगी, हमारे घर बह जाएंगे। जुलाई 1991 को गौरा देवी ने 66 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
इतिहास के पन्नों ने कई महिला क्रांतिकारियों को वह जगह नहीं दी है, जिसकी वह हकदार है। ठीक उसी प्रकार गौरा देवी को भी वह स्थान नहीं मिला है, जो उन्हें मिलना चाहिए। वही उन्हीं के साथी पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा को वह सम्मान और स्थान मिला है। कहीं ना कहीं इसके पीछे पितृसत्ता ही है जो आज भी महिलाओं की तुलना में पुरुषों को ही तवज्जो देती है।
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