इंटरसेक्शनलजेंडर अपडेटेड पितृसत्ता की समानता और स्वतंत्रता स्वादानुसार| नारीवादी चश्मा

अपडेटेड पितृसत्ता की समानता और स्वतंत्रता स्वादानुसार| नारीवादी चश्मा

‘महिलाएँ तो अब आज़ाद हो गयी है। अब कहाँ कोई भेदभाव है। हम तो अपने घर की महिलाओं को पूरी आज़ादी दिए हुए है। उन्हें इनकी पसंद का मोबाइल फ़ोन और स्कूटी तक दी हुई है।‘

आधुनिकता का दंभ भरते परिवारों में अक्सर ऐसी बातें सुनने को मिलती है। पर इस आधुनिकता की परत में कितनी जटिलताएँ है ये एक बड़ी चर्चा का मुद्दा है। जब भी समानता या स्वतंत्रता की बात महिलाओं के संदर्भ में करते है तो इन मूल्यों-विचारों को व्यवहार की बजाय संकेतों से आँकतें है। जैसे अगर किसी परिवार में बेटी के लिए स्कूटी ख़रीदी गयी तो उस परिवार को हम कहते है कि यहाँ बेटा-बेटी में कोई फ़र्क़ नहीं है। या फिर जब किसी परिवार में लड़कियों को मोबाइल फ़ोन दिया जाता है तो इसे भी लड़कियों के हिस्से की आज़ादी और समानता मानते है। पर अब सवाल ये है कि क्या कि मौजूदा परिवेश में महिलाओं के लिए समानता और स्वतंत्रता के लिए तय किए गये ये चिन्ह सच में पितृसत्ता के शिकंजे से उन्हें आज़ाद कर पाते है? तो ज़वाब मिलता है – नहीं।

तेंदुई गाँव की उस किशोरी बैठक में जब लैंगिक भेदभाव पर बात चली तो वहाँ मौजूद कई लड़कियों ने कहा कि उनके घर में किसी भी तरह का भेदभाव नहीं होता है। कुछ लड़कियों ने बताया कि उनके परिवार वालों ने उन्हें अपनी पसंद का फ़ोन ख़रीदवाया है तो एक-दो ने ज़वाब दिया कि परिवारवालों ने उनके आने-जाने की सुविधा के लिए स्कूटी ख़रीदकर दी है। इसके बाद जब बात चली उनकी उच्चतर शिक्षा, नौकरी और शादी की तो भेदभाव की परतें खुलने लगी।

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अगर लड़कियाँ अपनी मर्ज़ी की पढ़ाई करना चाहे, अपने पसंद के कॉलेज में जाना चाहे तो इसपर परिवार की पूरी पाबंदी होती है। बेटी किस कोर्स में एडमिशन लेगी। किस कॉलेज में पढ़ने जाएगी और कब तक पढ़ाई करेगी, ये सारे फ़ैसले पर परिवार ख़ासकर पुरुष सदस्यों का वर्चस्व आज भी क़ायम है। ठीक इसी तरह भले ही लड़कियों को स्कूटी उपलब्ध करवायी जाती है, लेकिन वो स्कूटी कहाँ तक जाएगी, कितने बजे जाएगी और कितने बजे वापस आएगी, इसपर पितृसत्ता का सर्विलांस होता है। ऐसे ही भले परिवार ने बेटी को मनपसंद फ़ोन तो दे दिया लेकिन उसपर वो किससे, कब और कितने बजे बात करेगी ये सब पितृसत्ता तय करती है।

बदलते समय के साथ पितृसत्ता ने अपने रंगों को बेहद संजीदगी से बदला है। इसने समानता और स्वतंत्रता के कुछ ऐसे मानक तय किए जो मौजूदा समय में महिलाओं को अपने स्वादानुसार आज़ादी और समानता का ढोंग करती है।

ध्यान रहे कि जब बात यहाँ पितृसत्ता की है तो इसका मतलब उस वैचारिकी से है जो महिला को पुरुष से कमतर मानती है और महिला को एक वस्तु की तरह अपने विचारों को आगे बढ़ाने के एजेंट के तौर पर बखूबी इस्तेमाल भी करती है। कभी ये इज़्ज़त के नामपर होगी, कभी समाज या बुरे जमाने के नामपर। कभी नानी-दादी की सीख पर तो कभी भाई-पिता की शान के नामपर। बदलते समय के साथ पितृसत्ता ने अपने रंगों को बेहद संजीदगी से बदला है। इसने समानता और स्वतंत्रता के कुछ ऐसे मानक तय किए जो मौजूदा समय में महिलाओं को अपने स्वादानुसार आज़ादी और समानता का ढोंग करती है, पर वास्तविक रूप से समानता और स्वतंत्रता के सारे अधिकारों को अपने पास समेटे हुए है।

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जब भी महिलाएँ अपने शर्त पर ज़िंदगी जीने की कोशिश करती है तो ये पितृसत्तात्मक समाज को खटकने लगती है। जब भी वे बराबरी की शिक्षा और रोज़गार के लिए कदम बढ़ाती है तो ये समाज को खटकने लगती है और जैसे ही वे अपने जीवनसाथी का चुनाव ख़ुद करती है तो पूरी पितृसत्तात्मक व्यवस्था की जड़े हिल जाती है।

आज जब हम महिलाओं के संदर्भ में समानता और स्वतंत्रता की बात कर रहे है तो हमें इस पितृसत्ता के तय किए गए ढोंगी मानकों की साज़िश की बजाय समानता और स्वतंत्रता के वास्तविक और व्यवहारिक मूल्यों को लागू करने की दिशा में कदम बढ़ाना होगा। किन्हीं चिन्हों के आधार पर खुश होने की बजाय हमें आकलन करना होगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हम आज भी पितृसत्ता की कठपुतली बने हुए है और अपने बुनियादी अधिकारों से कोसों दूर पितृसत्ता के दिए समानता और स्वतंत्रता के स्वादानुसार वाले मानको में ही मगन है। ज़ाहिर है कि जब तक हम इन मानकों की परतों को नहीं खोलेंगें हम कभी भी पितृसत्ता की जड़ता से निजात नहीं पायेंगें। इसलिए स्कूटी, मोबाइल और जैसे तमाम जुमलों की बजाय ख़ुद के व्यक्तित्व विकास और समान अवसरों को जीने की आज़ादी और समानता की पैरोकारी ही हमें पितृसत्ता के शिकंजे से छुड़ायेगा, वरना बदलते वक्त के साथ पितृसत्ता तकनीक की तरह अपने आप को अपडेट करना बखूबी जानती है।  

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तस्वीर साभार : feminisminindia.com

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