क्योंकि किताबें करती हैं बातें आज की कल की, फूलों की, बमों की इसलिए किताबें तो पढ़नी ही चाहिए लेकिन सवाल है कि नारीवादी किताबें क्यों पढ़नी चाहिए? नारीवादी किताबें पढ़नी चाहिए ताकि जान सकें अतीत की लैंगिक नाइंसाफियों को, वर्तमान के बदलावों को और भविष्य के संभावित विद्रोहों को। एक ऐसी विचारधारा जो आज समाज के लिए आवश्यक हो चुकी है, उससे जुड़ी किताब आपको बदलते समाज के साथ तालमेल बैठाने में मदद कर सकती हैं। आज हम ऐसी ही पांच नारीवादी किताबों पर बात करेंगे जो महिलाओं के जीवन और समाज की सच्चाई को बेहद यथार्थवादी नज़रिए से अभिव्यक्त करती हैं।
1- जाति-व्यवस्था और पितृसत्ता (पेरियार ई. वी. रामासामी)
यह किताब राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। इसका संपादन प्रमोद रंजन ने किया है, जो फिलहाल असम विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक हैं। किताब में बीसवीं शताब्दी के महानतम चिन्तकों और विचारकों में से एक पेरियार के कई लेख संकलित हैं। पेरियार को वाल्तेयर की श्रेणी का दार्शनिक, चिंतक, लेखक और वक्ता माना जाता है। जाति और पितृसत्ता पेरियार के लेखन की केन्द्रीय धुरी रही है। उनकी दृढ़ मान्यता थी कि दोनों के विनाश के बिना किसी आधुनिक समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता है। पुरुषों द्वारा महिलाओं को गुलाम समझने की प्रवृत्ति पर पेरियार लिखते हैं, ‘पुरुष के लिए एक महिला उसकी रसोइया, उसके घर की नौकरानी, उसके परिवार या वंश को आगे बढ़ाने के लिए प्रजनन का साधन है और उसके सौन्दर्यबोध को संतुष्ट करने के लिए एक सुन्दर ढंग से सजी गुड़िया है।’
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2- नारीवादी निगाह से (निवेदिता मेनन)
निवेदिता मेनन द्वारा मूलरूप से अंग्रेजी में लिखी गई इस किताब को संशोधन-संवर्धन के साथ राजकमल प्रकाशन ने हिन्दी में प्रकाशित किया है। इसका अनुवाद नरेश गोस्वामी ने किया है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्याल की प्रोफेसर निवेदिता मेनन अपने अद्भुत लेखन और लेक्चर के लिए चर्चित हैं। किताब में जिस तरह निवेदिता ने नारीवाद के जटिल सिद्धान्तों का व्यावहारिक प्रयोग बताया है, वह लाजवाब कर देता है। किताब की भूमिका का अंतिम वाक्य एक सूत्र वाक्य सरीखे है, जिससे पूरी किताब का मिजाज समझा जा सकता है। भूमिका का अंतिम वाक्य है, “नारीवादी दृष्टिकोण चीजों को संतुलन प्रदान करने के बजाय उन्हें अस्थिर करके देखता है। हम इस तथ्य को जितना ज्यादा समझते जाते हैं, हमारे क्षितिज उतने ही बदलते जाते हैं” अपने सिद्धांत के मुताबिक, निवेदिता मेनन परिवार, देह, यौनिकता और यौन-इच्छा जैसे मुद्दों को समझाती हैं।
परिवार की संस्था के भीतर खड़ी पितृसत्ता की अकड़ को तथ्यों से तोड़ते हुए निवेदिता लिखती हैं, ‘पुरुष को इसका पता ही नहीं चल सकता कि बच्चा उसी का है या किसी और का। औरत को हमेशा पता होता है कि बच्चा उसी का है, लेकिन पुरुष डीएनए टेस्ट के बावजूद यह दावा नहीं कर सकता कि बच्चा उसी का है। डीएनए टेस्ट से केवल इतना पता चल सकता है कि बच्चा आपका है या नहीं, लेकिन अगर पुरुष के डीएनए का बच्चे के डीएनए से मिलान हो जाता है तो इससे केवल ‘सांख्यकीय दृष्टि से उच्च प्रायिकता’ का यह संकेत मिलता है कि अमुक बच्चा आपका है। जैसा कि कहा जाता है, ‘मातृत्व एक जीव-वैज्ञानिक तथ्य है, जबकि पितृत्व समाजशास्त्रीय कल्पना है।’ पितृसत्ता के लिए यह चीज एक स्थायी चिन्ता की बात होती है। यही चिन्ता स्त्रियों की यौनिकता पर पहरेदारी बिठाने की मानसिकता तैयार करती है।’
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3- बेड़ियाँ तोड़ती स्त्री (अरविन्द जैन)
इस किताब को महिला, बाल एवं कॉपीराइट कानून के विशेषज्ञ और चर्चित लेखक-कथाकार अरविन्द जैन ने लिखा है। किताब राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। किताब में स्त्री जीवन से जुड़े कानूनी पहलुओं का विस्तार से प्रामाणिक विवरण है। सम्पत्ति के उत्तराधिकार में औरत की हिस्सेदारी की बात हो या यौन शोषण से संबंधित कानूनी और अदालती मामलों का, किताब तमाम ऐसे मुद्दों पर मार्गदर्शक का काम करती है। समानता और न्याय की तलाश में निकली स्त्रियों का जिक्र करते हुए अरविन्द जैन लिखते हैं, ‘बदलते समय और समाज में अगर स्त्री ‘मुक्ति का सपना’ देख रही है, तो वह एक दिन साकार भी होगा। सभ्यता, संस्कृति, परंपरा और धर्मग्रन्थों ने बहुत पढ़ा लिए शील, संयम, मर्यादा नैतिकता, आदर्श और देह-शुचिता के पाठ। हिंसा, शोषण, दमन और उत्पीड़न के खिलाफ, स्त्री विरोध-प्रतिरोध (प्रतिशोध) के परिणाम भी हमारे समाने हैं। समानता और न्याय की तलाश में निकली स्त्री, अपना सबकुछ दांव पर लगा रही है। इसलिए भविष्य की स्त्री इंसाफ मांगेगी। सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक इंसाफ। देह और धरती ही नहीं, सब कुछ पर बराबर अधिकार। सम्पत्ति में भी और सत्ता में भी। ‘बेडरूम’ नहीं, ‘बोर्डरूम’ में भी बराबर भागीदारी मांगेगी।
4- आलोचना का स्त्री पक्ष (सुजाता)
आलोचना की कथित मुख्यधारा की चुनौती के रूप में चर्चित हो चुकी यह किताब सुजाता ने लिखी है। सुजाता पिछले एक दशक से दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन कर रही हैं। अपने एक साक्षात्कार में किताब की जरूरत को बताते हुए सुजाता कहती हैं, “ऐसा क्यों है कि मनोविश्लेषणवाद, मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद, उत्तर-आधुनिकतावाद, संरचनावाद जैसी तमाम वैचारिकियों के आधार पर साहित्य को परखा गया लेकिन स्त्रीवाद को नकार कर या ख़ारिज करके काम चला लिया गया। किताब का एक पूरा अध्याय स्त्रीवादी आलोचना की ज़रूरत पर ही केंद्रित है।” किताब तीन खंडों में बंटी हुई है। पहले खंड में स्त्रीवाद की अवधारणा, स्त्रीवादी आलोचना के इतिहास, भाषा और कर्तव्य पर लिखा है। दूसरे खंड में साहित्येतिहास लेखन के जेंडर आधारित पूर्वाग्रहों को बताया गया है। तीसरे खंड में वर्तमान हिंदी साहित्य की कुछ चर्चित कवयित्रियों के हवाले से स्त्री पक्ष को रखा गया है।
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5- नर-नारीश्वर (पेरुमाल मुरुगन)
नर-नारीश्वर पेरुमाल मुरुगन के एक चर्चित तमिल उपन्यास ‘मादोरुबागान’ का हिन्दी अनुवाद है। हिन्दी से पहले ‘मादोरुबागान’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘वन पार्ट वुमन’ नाम से पेंग्विन ने प्रकाशित किया था। हिन्दी अनुवाद मोहन वर्मा ने किया जिसे हार्पर हिन्दी ने प्रकाशित किया। इस किताब की सबसे अधिक चर्चा तब हुई जब हिंदूवादी और जातिवादी समूहों ने इसका विरोध शुरू किया। उनका आरोप था कि यह किताब ईश्वर विरोधी और अश्लील है। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने किताब की प्रतियां जलाईं। मामला कोर्ट तक गया। एक वक्त तो ऐसा भी आया जब पेरुमाल मुरुगन ने अपने मरने की घोषणा कर दी। खैर, यह किताब इन विवादों से इतर एक इश्क की कहानी है। प्रेम में हैं- काली और पोन्ना। दुःख है तो बस समाज द्वारा बांझ पुकारे जाने का।
हालांकि ये किरदार अपने समय से बहुत आगे चलते हैं। जब समाज काली को नपुंसक और पोन्ना को कुलक्षणी करार दे देता है, तब भी दोनों के रिश्ते में कड़वाहट नहीं आती। उल्टा प्रेम बढ़ता ही जाता है। हिन्दूवादी संगठनों का विरोध किताब के उस हिस्से से अधिक था जब पोन्ना एक प्राचीन हिंदू रथयात्रा उत्सव में पहुंचती है। इस उत्सव की खास बात यह होती है कि यहां एक रात के लिए कोई भी स्त्री और पुरुष आपसी सहमति से यौन संबंध बना सकते हैं। पेरुमाल का ये उपन्यास बहुत ही गहरा उतरकर मानव मन की पड़ताल करता है। साथ ही समाज की उस थोथी नैतिकता और दबंगई को भी उजागर करता है जो पति-पत्नी के संबंध को संकट में डाल देता है।
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