इतिहास पढ़ें, पेरियार के नारीवादी विचार

पढ़ें, पेरियार के नारीवादी विचार

विश्वविद्यालयों में पेरियार को एक नारीवादी के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए। लड़कियों, महिलाओं को खासकर बताया जाना चाहिए कि जिस वक्त में पूरा समाज उन्हें चार दीवारों में चाहता था, सती कर देना चाहता था तब पेरियार, फूले, बाबा साहब आंबेडकर उनकी मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे।

जब भी आप दक्षिण भारत के समाज सुधारकों, नेताओं के बारे में सोचेंगे तो नेताओं की इस सूची में पेरियार ज़रूर शामिल होंगे। पेरियार का पूरा नाम इरोड वेंकटप्पा रामासामी था जिन्हें पेरियार या थांथाई पेरियार भी कहा जाता है। पेरियार को सिर्फ दक्षिण की राजनीति तक सीमित करना उनकी उस सोच, विचारधारा को भी सीमित करना होगा। पेरियार समाज सुधारक, द्रविडियन मूवमेंट के सूत्रधार, राजनीतिक नेता तो थे ही, वह एक नारीवादी भी थे। वह उस दौर में नारीवादी थे जब महिलाओं के संघर्ष और उनकी शोषण से मुक्ति को लेकर बहुत कम ही नेता मौलिक रूप से प्रयासरत थे लेकिन पुरुष वर्चस्व के विरोधी नहीं थे। हमें यह भी स्वीकारना होगा कि भारत की मुख्यधारा का नारीवाद जो सवर्ण इलीट तबके द्वारा अब तक संभाला जा रहा है, जिस वजह से दलित नारीवाद अपने अस्तित्व में आया, उसने पेरियार को मुख्यधारा के नारीवादी आंदोलन में वह जगह कभी नहीं दी जो दी जानी चाहिए थी। पेरियार को सवर्णों ने सिर्फ ऐसे विद्रोही, कट्टर के रूप में जाना जिसने हिंदू धर्म के भगवानों की मूर्तियां तोड़ीं। सवर्ण महिलाएं, नारीवादी धर्म की तरफ़ आस्था में इतनी लीन हुईं कि जिस पेरियार ने हर तबके की औरतों की लड़ाई का पुरज़ोर सहयोग किया, उनके शोषक को पहचानने में अहम भूमिका निभाई उसी व्यक्ति को नकार दिया गया। इस लेख के ज़रिये हम पेरियार को स्वीकार करते हुए, उनकी नारीवादी छवि को, उनके योगदान को जानेंगे।

पेरियार ब्राह्मणवाद के धुर विरोधी थे मतलब ब्राह्मणवाद से जुड़ी हर व्यवस्था, तंत्र के विरोधी थे। जाति व्यवस्था और लैंगिक भेदभाव के खिलाफ वह उम्र भर लड़ते रहे। साल 1925 में यह देखते हुए कि कांग्रेस सिर्फ ब्राह्मणों के बारे में सोचती है उन्होंने पार्टी से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद तमिलनाडु में एस रामनाथन के बुलावे पर उन्होंने सेल्फ रेस्पेक्ट मूवमेंट यानि आत्मसम्मान आंदोलन की कमान संभाली। आंदोलन के शुरुआती दौर में इसके सिद्धांत ईश्वर, धर्म, कर्मकांडो और जाति को नकारना था लेकिन पेरियार ने आंदोलन से जुड़ने पर एक और सिद्धांत इसमें जोड़ा जो था पितृसत्तात्मकता का नकार क्योंकि आंदोलन जाति व्यवस्था की सभी संरचनाओं के विरुद्ध था इसीलिए पेरियार ने दो संरचनाओं में हिंदू धर्म और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को रखा, उसके खिलाफ़ लड़े।

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पेरियार और आत्मसम्मान आंदोलन

आत्मसम्मान आंदोलन के शुरू होने के बाद पेरियार का नारीवादी होना मुखर रूप से सामने आता है क्योंकि वह जगह-जगह सभाएं संबोधित कर रहे थे जिसमें महिलाएं भी बड़े पैमाने पर शामिल हो रही थीं। पेरियार ने यह भी स्पष्ट किया कि किसी भी आंदोलन में महिलाओं की भूमिका सबसे अहम है क्योंकि वे समाज का बराबर हिस्सा हैं, आंदोलन को आवाज़, विविधता और व्यापकता देती हैं। सिमोन द बोउवार जिस दौर में शादी को महिलाओं के लिए अन्यायी संस्था कह रही थीं, दरअसल उससे सालों पहले भारत में पेरियार विवाह की संस्था को ख़त्म करने की ही बात पर ज़ोर दे रहे थे क्योंकि महिलाओं के लिए विवाह दासता का प्रतीक था। लेकिन शायद पेरियार यह समझते थे कि भारतीय समाज में विवाह पद्धति खत्म करना एक मुश्किल काम है, इसीलिए उन्होंने आत्मसम्मान आंदोलन को चलाते हुए साल 1929 में आत्मसम्मान विवाह की अवधारणा विकसित की। इस विवाह के दो मूल सिद्धांत थे, पहला लैंगिक समानता और दूसरा अपने निर्णय स्वयं लेने का अधिकार। चूंकि पेरियार यह समझते थे कि भारत में पितृसत्ता की प्रकृति ब्राह्मणवादी है इसीलिए उन्होंने आत्मसम्मान विवाह को किसी पुरोहित, मंत्रोच्चार और रीति रिवाज़ों के बिना दो व्यक्तियों के बीच एक समझौते के रूप में विकसित किया। वह हिंदू धर्म में मंगलसूत्र के रिवाज़ को रस्सी मानते थे जो किसी गाय को बांधे रखती है, स्वतंत्रता नहीं देती। इसीलिए आत्मसम्मान विवाह एक ‘पवित्र बंधन’ न होकर आपसी सहमति पर खड़ा समझौता था जो जाति, वर्ग, धर्म से आज़ाद था जहां अभिभावकों की सहमति की कोई ज़रूरत नहीं थी और दोनों में से जब चाहे कोई एक पक्ष इस समझौते को ख़त्म कर सकता था।

पेरियार को सिर्फ दक्षिण की राजनीति तक सीमित करना उनकी उस सोच, विचारधारा को भी सीमित करना होगा। पेरियार समाज सुधारक, द्रविडियन मूवमेंट के सूत्रधार, राजनीतिक नेता तो थे ही, वह एक नारीवादी भी थे। वह उस दौर में नारीवादी थे जब महिलाओं के संघर्ष और उनकी शोषण से मुक्ति को लेकर बहुत कम ही नेता मौलिक रूप से प्रयासरत थे लेकिन पुरुष वर्चस्व के विरोधी नहीं थे।

पेरियार और महिलाओं के प्रजनन अधिकार

पेरियार ने विधवाओं के पुनर्विवाह पर ज़ोर दिया था। भारतीय समाज में अभी भी विवाह किसी भी परिवार की वंशावली बढ़ाने के एक साधन के रूप में ही देखा जाता है जहां महिला कितनी संतान पैदा करे, कितनी न करे और करे भी या नहीं जैसे निर्णय पुरुष लेते हैं। पेरियार महिलाओं को सेक्स और प्रजनन के मामले में असीमित और बिना शर्त स्वतंत्रता देने के पक्षधर थे। आज जब हम खुद को बहुत प्रगतिशील, आधुनिक समाज कहने से नहीं कतराते, तब भी महिलाओं के गर्भनिरोधक के इस्तेमाल पर चुप्पी बनी हुई है लेकिन पेरियार आज से दशकों पहले इसके पक्षधर थे और गर्भनिरोधको को महिलाओं को स्वतंत्रता और अधिकार देने के उपकरण मानते थे।

वह महिलाओं को संतानों के परिपेक्ष्य में संबोधित करते हुए कहते थे कि अगर इससे उनकी स्वतंत्रता में बाधा पड़ती हो तो महिलाओं को बच्चों को जन्म देना बंद कर देना चाहिए। वह अपनी बातों को बिना चाशनी में लपेटे यह कहते थे कि पितृसत्तात्मक पुरुषत्व जब तक है, तब तक महिलाएं स्वतंत्र नहीं हो सकतीं। हम यह भली भांति जानते हैं कि महिलाओं के होने को ‘चरित्र’ से जोड़ा जाता है, स्वतंत्र महिला इस समाज में चरित्रहीन कही जाती है। वहीं वह ‘चरित्र’ और ‘सतीत्व’ जैसी अवधारणाओं को, मानकों को खारिज करते हुए कहते थे कि या तो ये दोनों मानक पुरुषों के लिए भी हो वरना दोनों में से किसी के लिए न हो।

पेरियार मानते थे कि भारतीय समाज में महिलाओं का स्थान सबसे निम्न है उन्हें दास की तरह रखा जाता है जहां पुरुष उन्हें अपना नौकर, रसोइया, वंशावली बढ़ाने का साधन और अपनी यौनिक इच्छाएं पूरी करने के लिए इस्तेमाल करता है।

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पेरियार और महिला शिक्षा

पेरियार शिक्षा की अहमियत और किस तरह पालन पोषण के तरीके किसी जेंडर विशेष को उसकी अस्मिता देते हैं, बेहतर समझते थे इसीलिए वह महिलाओं के लिए प्राथमिक शिक्षा और प्राथमिक शिक्षक (बच्चे जिससे सीखते हैं) कहे जाने के हितैषी थे और अभिभावकों से यह अपील करते थे कि वे अपने बच्चों की परवरिश एकदम समान और एक रूप से करें, दोनों के नाम में ऐसी भिन्नता न हो जहां यह कहा जा सके कि यह विशेष नाम लड़कियों के होते हैं और यह विशेष नाम लड़कों के। ठीक ऐसे ही उनके पहनावे में कोई अंतर न हो, लड़कियों को कुश्ती, मुक्केबाज़ी जैसे खेलों में प्रशिक्षण दिलवाएं। हम अपनी एकेडमिक्स में तमाम पाश्चात्य नारीवादियों के लेखों से यह समझते हैं कि कैसे महिलाएं पुरुषों के लिए एक संपत्ति होती हैं जिसे वह जैसे चाहें इस्तेमाल कर सकें।

एकेडमिक्स की दौड़ से कई साल पहले पेरियार यही बात सभाओं में कह रहे थे, अपनी पत्रिकाओं में लिख रहे थे कि पुरुष महिलाओं को अपनी संपत्ति मानता है इसीलिए महिलाओं को शिक्षा से दूर रखा गया ताकि वे अपनी अहमियत न समझ सकें, अधिकार न समझ सकें और शोषण से मुक्ति न पा सकें। वह मानते थे कि भारतीय समाज में महिलाओं का स्थान सबसे निम्न है उन्हें दास की तरह रखा जाता है जहां पुरुष उन्हें अपना नौकर, रसोइया, वंशावली बढ़ाने का साधन और अपनी यौनिक इच्छाएं पूरी करने के लिए इस्तेमाल करता है। पेरियार ब्राह्मणवाद पर चोट करे बिना अपने विचार नहीं रखते थे इसीलिए वह यह भी कहते कि हिंदू धर्म में धन और ज्ञान की देवियों को पूजा जाता है फिर ये देवियां महिलाओं को शिक्षा और संपत्ति का अधिकार प्रदान क्यों नहीं करतीं?

पेरियार यह मानते थे कि महिलाओं को कोई न कोई पेशा जरूर अपनाना चाहिए यानी आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना चाहिए। वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनेंगी तब अपनी आजीविका खुद कमा पाएंगी और पुरुषों की दासी बनकर नहीं रह जाएंगी। पेरियार लेकिन महिला वर्ग में व्याप्त लेयर्स को समझते थे इसीलिए वे मध्यवर्गीय महिलाओं के प्रति भी अपने विचार ज़ाहिर करते हुए यह कहते हैं कि पति का लाड़, प्यार पाने वाली महिलाएं जिन्हें हर तरह से ऐश्वर्य मिलता है, स्त्रियोचित सौंदर्य और फैशन के आकर्षण में फंसी रह जाती हैं। वे अपनी अवस्था में संतुष्ट रहती हैं, खुद को सभ्य और आधुनिक समझती हैं लेकिन इस व्यवहार से वे दुनिया में सुधार लाने में सहायक नहीं होंगी। जबकि पुरुषों के साथ समान दर्जे का संबंध ही वास्तविक रूप से सभ्य होना है। इसीलिए पेरियार यह मानते हैं कि महिलाओं को साहसी होना होगा, अपने विचारों में भी बदलाव लाना होगा ताकि महिलाओं की पहचान ‘अमुक की पत्नी’ न होकर ‘अमुक का पति’ के तौर चिह्नित हो। महिलाओं को अपनी स्वतंत्रता ‘पुरुष वर्चस्व’ की रीति को समाप्त करके ही मिलेगी।

विश्वविद्यालयों में पेरियार को एक नारीवादी के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए। लड़कियों, महिलाओं को खासकर बताया जाना चाहिए कि जिस वक्त में पूरा समाज उन्हें चार दीवारों में चाहता था, सती कर देना चाहता था तब पेरियार, फूले, बाबा साहब आंबेडकर उनकी मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे।

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हम यह जानते हैं कि सेक्स वर्क में महिलाओं का शोषण किस हद तक होता है। हालांकि इस बीच कुछ विचार ऐसे भी मुख्यधारा में आए कि यह एक ‘चॉइस’ का मामला है लेकिन हमें ये देखना होगा कि इस चॉइस को बनाने में जो फैक्टर मौजूद होते हैं क्या उन फैक्टर की मौजूदगी सेक्सवर्स में शामिल औरतों के सामने थी जैसे कि कंसेंट, अपने शरीर संरचना की समझ? पेरियार सेक्सवर्क के पूरे स्ट्रक्चर को समझते हुए उसके खात्मे की बात करते हैं और मानते हैं कि बाल विवाह पर रोक, तलाक का अधिकार, पुनर्विवाह, अंतर्जातीय विवाह और अपनी पसंद अनुसार विवाह करने के प्रावधान करने से सेक्सवर्क नब्बे प्रतिशत समाप्त हो जाएगा। पेरियार ने लगभग महिलाओं से जुड़े हर मुद्दे पर अपने विचार रखे, लड़ाई लड़ी। जिस वक्त में विश्व में नारीवाद की दूसरी लहर के वक्त क्रांतिकारी शब्दों की, विचारों की रचना नहीं हुई थी, पेरियार उस वक्त भारत में पूरी संरचना तैयार कर रहे थे। पेरियार अपनी सोच में इतने आगे थे कि महिलाओं की अधिकार की बात जब पुरुष करें तब भी महिलाओं को सचेत होने को कह रहे थे। वह कहते हैं महिलाओं की मुक्ति के लिए पुरुष का तथाकथित ‘प्रयास’ वास्तव में महिलाओं की दासता को ही जारी रखता है और उसके निवारण के रास्ते में खलल डालता है। पुरुषों द्वारा यह दिखावा कि वे महिलाओं का सम्मान करते हैं और उनकी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते हैं; उन्हें धोखे में रखने के लिए महज़ एक चाल है।

क्या आपने कभी पूंजीपतियों को श्रमिकों का उद्धार करते देखा है? पेरियार की इस बात को पढ़ते हुए याद करिए भारत के #MeToo मूवमेंट को। इस आंदोलन में कई ऐसा पुरुष जो महिला अधिकारों की बात करते थे वही उनके शोषक निकले। महिलाएं ई वी रामासामी नायकर के प्रयासों से, महिलाओं के लिए मुक्ति संघर्ष से इतनी प्रभावित और सशक्त महसूस करने लगीं कि उन्हें “पेरियार” (तमिल में ‘महान/रेस्पेक्टेड’ का संबोधन) की उपाधि मद्रास में सन 1938 में आयोजित तमिलनाडु वीमन कॉन्फ्रेंस में अन्नै मीनमबल ने दी थी। विश्वविद्यालयों में पेरियार को एक नारीवादी के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए। लड़कियों, महिलाओं को खासकर बताया जाना चाहिए कि जिस वक्त में पूरा समाज उन्हें चार दीवारों में चाहता था, सती कर देना चाहता था तब पेरियार, फूले, बाबा साहब आंबेडकर उनकी मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे। यह संघर्ष सिर्फ़ दलित बहुजन आदिवासी समाज की औरतों के लिए नहीं था, इसमें पूरे महिला वर्ग चाहे वे किसी भी धर्म, जाति से हो, सबके लिए था। इसीलिए हम चाहे किसी भी धर्म, जाति और वर्ग से आएं हमारे लिए पेरियार समान रूप से महत्वपूर्ण होने चाहिए। पेरियार इस वक्त शारीरिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं लेकिन हमें यह स्वीकार करना उनका लेखन, विचार हमें शोषण से मुक्ति दिलाने में सबसे ज़्यादा सच्चे और सहायक हैं।

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संदर्भ : जाति व्यवस्था और पितृसत्ता, प्रमोद रंजन

तस्वीर साभार : HWN

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