‘आलोचना’ शब्द लुच् धातु से बना है। लुच् का अर्थ होता है देखना। यानि किसी वस्तु, व्यक्ति या रचना को देखकर और समझकर उसके गुण-दोषों की विवेचना करना ‘आलोचना’ कहलाता है। यह आलोचना की सामान्य परिभाषा है। लेकिन आलोचना के दायरे में अगर कोई स्त्री होती है तो यह परिभाषा बदल जाती है। ऐसा होने के पीछे भाषा से जुड़ा कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है, बल्कि पितृसत्तात्मक विचारधारा कारण है। पितृसत्ता एक सोच है, एक विचारधारा है। इसके तहत स्त्रियों को पुरुषों की तुलना में नीचा और कमज़ोर समझा जाता है। इस विचारधारा से ग्रस्त लोगों के लिए स्त्रियों से जुड़ी हर चीज घृणित और कमज़ोरी की निशानी है। उदाहरण के तौर पर पीरियड्स और चूड़ी को ही ले लीजिए।
यही वजह है कि पितृसत्तात्मक सोच से सड़ रहा समाज जब किसी स्त्री की आलोचना करता है तो उसकी बातों/विचारों की आलोचना नहीं करता बल्कि उसके देह, काम, रिश्ते को बहस में घसीट लाता है। इस सोच की ताजा शिकार बनीं कंगना रनौत। पिछले कुछ सालों से अपने काम से ज्यादा अपने बेतुके, नफरती बयानों के लिए चर्चा में रहनेवाली कंगना ने पद्म सम्मान मिलने के बाद एक न्यूज चैनल पर कहा, ”1947 में मिली आज़ादी भीख थी, देश को असली आजादी तो साल 2014 में मिली”
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जाहिर है कंगना का यह बयान न सिर्फ बेतुका बल्कि तथ्यविहीन भी है। सत्ताधारी भाजपा और उसे समर्थक ऐसे बयानों का इस्तेमाल गंभीर मुद्दों को भटकाने और आरएसएस की मनगढ़ंत कथा को मुख्यधारा का हिस्सा बनाने के लिए कर रहे हैं। खैर, कंगना के इस बयान पर हंगामा होना तो तय था, सो हुआ भी। लोगों ने सोशल मीडिया पर कंगना की क्लास लगा दी, कुछ ने तर्क-तथ्य का हवाला देते हुए कंगना की आलोचना की। वहीं, ज्यादातर लोगों ने स्वस्थ्य आलोचना की जगह अपनी कुंठा का प्रदर्शन किया।
21वीं सदी के दूसरे दशक में पहुंचकर भी मर्दों ने महिलाओं की योनि को युद्ध का मैदान समझने की अपनी जहालत से अब तक मुक्ति नहीं पाई है। पुरुष आज भी एक दूसरे की आलोचना या विरोध करने के लिए महिलाओं के परिधान और उनके जननांग का इस्तेमाल करते हैं। लगभग कोई भी गाली महिलाओं के अंग के इस्तेमाल के बिना पूरा नहीं होता।
भारत ही नहीं दुनियाभर में अधिकतर लोगों से स्त्रियों को लेकर कंस्ट्रक्टिव आलोचना करने की उम्मीद नहीं रहती है। कंगना के मामले में भी ऐसा ही हुआ। उनके बयान को तर्क और तथ्य से काटने की जगह लोगों ने उनके कम कपड़ों वाली तस्वीर साझा करते हुए भद्दी टिप्पणियां लिखीं। किसी ने उनके फिल्मों से किसिंग सीन को निकाल उसका कोलॉज बनाकर शेयर किया। ऐसा करने वालों में सिर्फ ट्रोल्स नहीं थे। समाज का वह तबका भी शामिल था जिसे बहुत पढ़ा-लिखा और ज़हीन समझा जाता है। क्या भारतीय कानून के तहत किसी को चूमना अपराध है? जाहिर है- नहीं। कोई सिर्फ दक्षिणपंथ का विरोध करने भर से प्रगतिशील नहीं हो सकता है, अगर उसकी जेंडर की शुरुआती समझ में गड़बड़ी हो।
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कंगना की किसी बात का विरोध करने के लिए उनके स्तनों के उभार पर टिप्पणी करने की क्या ज़रूरत है? वक्षस्थलों के उभार में विरोध कहां है? कंगना के वक्ष और टांगों और योनि में विरोध ढूंढ लेने वाला हमारा समाज यही दिखाता है कि जब किसी स्त्री को तर्क से मात नहीं दे पाते तो उसके लिंग के आधार पर उसे नीचा दिखाने की कोशिश करता है। यह स्त्रियों के शरीर को लेकर सहज ना होने की कुंठा है। खैर, ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब किसी महिला का विरोध करने के लिए लोगों ने उसकी देह, शादी, तलाक और उसकी प्रेगनेंसी को निशाना बनाया हो या रेप की धमकी दी हो। हमारा समाज बोलने वाली तमाम महिलाओं जैसे- स्वरा भास्कर, कविता कृष्णन, शहला राशिद, राणा अय्यूब, बरखा दत्त, मायावती, सोनिया गांधी, शाहीन बाग की प्रदर्शनकारी महिलाएं, किसान आंदोलन में शामिल महिलाएं आदि का ऐसे ही विरोध करता आया है।
अब जरा सोचकर देखिए कि अगर कंगना की जगह यह बयान किसी पुरुष ने दिया होता तो क्या तब भी ऐसे आलोचना होती। क्या कोई उस पुरुष के निप्पल की तस्वीर सोशल मीडिया पर डालता? क्या कोई उस पुरुष की अंडरवियर पहने तस्वीर डालकर विरोध दर्ज कराता? ऐसा होता हुआ कभी नहीं देखा गया है बल्कि तब भी स्त्रियों को ही निशाना बनाया जाता है। जैसे हाल में क्रिकेटर विराट कोहली के मामले में हुआ। भारत के टी-20 वर्ल्डकप से बाहर होने पर विराट और अनुष्का की 9 महीने की बेटी को बलात्कार की धमकी दी गई।
विराट से नाराज लोगों ने अपनी नाराज़गी में 9 माह की बच्ची को क्यों घसीटा? बलात्कार को विरोध का ज़रिया क्यों समझा? 21वीं सदी के दूसरे दशक में पहुंचकर भी मर्दों ने महिलाओं की योनि को युद्ध का मैदान समझने की अपनी जहालत से अब तक मुक्ति नहीं पाई है। पुरुष आज भी एक दूसरे की आलोचना या विरोध करने के लिए महिलाओं के परिधान और उनके जननांग का इस्तेमाल करते हैं। लगभग कोई भी गाली महिलाओं के अंग के इस्तेमाल के बिना पूरा नहीं होता।
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तस्वीर: श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए