समाज महँगी शादियों के बीच संपत्ति में बेटियों का अधिकार और चुनौतियाँ| नारीवादी चश्मा

महँगी शादियों के बीच संपत्ति में बेटियों का अधिकार और चुनौतियाँ| नारीवादी चश्मा

हमारे समाज में महँगी शादी के महिमामंडन और दहेज प्रथा के बदले स्वरूप ने बेटियों को सम्पत्ति में अधिकार देने तो क्या इस विचार को भी चर्चा से दूर रखा है।

कोरोनाकाल के बीच सख़्त पाबंदियों भरे दौर के थोड़ा थमने के बाद अब इस नवंबर के महीने से शादियों का सीजन शुरू हो चुका है। पिछले दो साल से रुकी शादियाँ, अब ज़ोर-शोर से मैरिज हाल, लॉन और घरों की रौनक़ बढ़ा रही है। सोशल मीडिया में महँगी शादियों वाले दूल्हा-दुल्हन और सजे-धजे रिश्तेदारों की तस्वीरें तैर रही है। क्या हल्दी और क्या मेहंदी हर रस्म में सजावट और इसकी भव्यता को बढ़ाने के लिए पैसे पानी की तरह बहाए जा रहे है। और हो भी क्यों न, शादी जीवन में एक़बार ही तो होती है। माँ-बाप, रिश्तेदार और समाज के सपने और आधी से अधिक ऊर्जा तो बच्चों को इन महँगी शादियों के लिए तैयार करने और इन शादियों की तैयारी में झोंकें जाते है।

शादी अपने समाज में जीवन का अहम हिस्सा माना जाता है इसलिए ये हर इंसान की ज़िंदगी का सबसे ज़्यादा यादगार दिन होता है। इस दिन को ख़ास बनाने, मनाने और दिखाने के लिए जितने भी पैसे खर्च किए जाते है उसका एक बड़ा हिस्सा हमेशा लड़की यानी कि दुल्हन के परिवार को उठाना पड़ता है, जिसे सरल और सटीक भाषा में दहेज प्रथा कहते है और आधुनिक भाषा में इसे ‘धूमधाम से बेटी की शादी’ कहते है।

एक संस्था में काम करने वाली वंदना (बदला हुआ नाम) गाँव के एक मध्यमवर्गीय परिवार से है। मज़दूर पिता ने बहुत मेहनत से अपनी बेटी को बीए तक पढ़ाया। फिर जब बात शादी की आयी तो पिता ने अपनी आधी से अधिक पूँजी शादी में झोंक दी। बेटी के लिए महँगें लहँगे से लेकर बारात के भव्य स्वागत तक, एक मज़दूर पिता ने अपनी हैसियत के हिसाब से किया। इसके कुछ ही दिन बाद उसके पिता की मौत हो गयी और शादी के दो महीने बाद ही अचानक किसी बीमारी से वंदना के पति की मौत हो गयी। दो-तीन महीने में ही ससुराल वालों ने वंदना से पल्ला झाड़ लिया और वंदना को वापस मायके आना पड़ा। यहाँ वंदना का मायके में रहना उसकी भाभी को तनिक भी रास नहीं आया और उसने वंदना को प्रताड़ित करना शुरू किया। वंदना के पास अपना कोई ठिकाना नहीं है, न कोई सम्पत्ति और न कोई सेविंग। संस्था में काम करके वो अपना खर्च निकालती है लेकिन घर आकर उसे अपने भाई के घर में रहने का भुगतान प्रताड़ित होकर करना पड़ता है।

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जब भी हम महिलाओं और किशोरियों के लिए सशक्त होने की बात करते है तो उसमें उनका आर्थिक रूप से सशक्त होना ज़रूरी मानते है। महिलाएँ जब तक आर्थिक रूप से स्वावलंबी नहीं होंगीं तब तक उनके सशक्त होने की कल्पना कोरी है। यहाँ हमें ये भी याद रखना चाहिए कि जब हम आर्थिक रूप से स्वावलंबी होने की बात कर रहे है तो इसका मतलब सिर्फ़ महिलाओं के पैसे कमाने से नहीं बल्कि उनके हिस्से संपत्ति होना भी है। क्योंकि वंदना भी नौकरी करके अपना पेट तो पाल रही है, लेकिन अपनी ज़मीन-संपत्ति और छत के अभाव में उसे लगातार हिंसा का सामना करना पड़ रहा है।

हमारे समाज में महँगी शादी के महिमामंडन और दहेज प्रथा के बदले स्वरूप ने बेटियों को सम्पत्ति में अधिकार देने तो क्या इस विचार को भी चर्चा से दूर रखा है।

ग़ौरतलब है कि भारत के संविधान ने महिलाओं को समानता का पूरा हक़ दिया है।  हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) नियम 2005 के अंतर्गत हिन्दू (एवम सिक्ख,बौद्ध और जैन) बेटियों का पारिवारिक सम्पत्ति पर उतना ही अधिकार है जितना बेटों का। इसके अलावा संयुक्त परिवार में भी सम्पत्ति पर बेटियों के बेटों के बराबर के अधिकार हैं।  साल 2005 के पूर्व शादीशुदा महिलाओं का अपने मायके में (कानूनी रूप से) निवास अधिकार भी नहीं था। क़ानून भी महिलाओं का असल घर ससुराल को ही मानता था। पर साल 2005 में इसको बदला गया और शादी के बाद भी बेटियों को मायके की संपत्ति पर बराबर के अधिकार दिए गए।  माँ  के घर वापस जाने का यह अधिकार विवाह में घरेलू हिंसा से शोषित औरतों के लिए राहत के  रूप में आया।

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बीना अग्रवाल (जिनके नेतृत्व में 2005 में क़ानून बदलने का अभियान चला) ने केरल में एक शोध किया जिसमें यह सामने आया कि सम्पत्तिहीन महिलाओं में 49 फ़ीसद महिलाएं  घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं और सम्पत्तिवान महिलाओं में ये आंकड़ा सिर्फ़ 6 फ़ीसद है। इससे यह साबित होता है कि संपत्ति पर अधिकार न केवल महिलाओं को एक अपमानजनक और हिंसात्मक  विवाह छोड़ने का विकल्प देता है पर उनपर होती हिंसा पर रोक भी लगाता है। 

पर सम्पत्ति के कुल हिस्से में से एक छोटा टुकड़ा दहेज और महँगी शादियों के नामपर खर्च करने के सदियों पुराने इस चलन में, बेटियों को महँगें लहँगे और दहेज की बजाय उन्हें सम्पत्ति में अधिकार देने का चलन कब सरोकार से जुड़ पाएगा ये अपने आपने आपमें एक बड़ा सवाल है। हमारे समाज में महँगी शादी के महिमामंडन और दहेज प्रथा के बदले स्वरूप ने बेटियों को सम्पत्ति में अधिकार देने तो क्या इस विचार को भी चर्चा से दूर रखा है, जिसकी वजह से आज भी महिलाएँ अपने हक़ की छत और सम्पत्ति के लिए पुरुषों पर आश्रित होने के लिए मजबूर है और ये मजबूरी ही उन्हें हिंसा सहने को प्रेरित करती है। लेकिन जब पुरुष का हाथ महिला के ऊपर से हट जाता है तो महिला पूरी तरह अकेली पड़ जाती है। इसलिए ज़रूरी है कि अगर हम असल मायने में अपनी बेटियों को एक बेहतर भविष्य देना चाहते है तो इसके लिए उनकी महँगी शादी के बजाय उन्हें सम्पत्ति में अधिकार है, जो उनकी मज़बूती का मूलाधार साबित होगा।    

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तस्वीर साभार : www.vox.com

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