इंटरसेक्शनलयौनिकता छत और बालकनी में महिलाओं को वक्त गुज़ारने की इजाज़त क्यों नहीं होती है| नारीवादी चश्मा

छत और बालकनी में महिलाओं को वक्त गुज़ारने की इजाज़त क्यों नहीं होती है| नारीवादी चश्मा

महिलाओं को छत और बालकनी में जाने और वक्त गुज़ारने की मनाही होती है, वहीं पुरुषों का वर्चस्व इन जगहों पर भरपूर देखने को मिलता है।

बचपन से ही पितृसत्ता, जेंडर के आधार पर बच्चों की कंडिशनिंग करती है, जिसमें लड़कों की कंडिशनिंग इस तरह की जाती है जिससे वे अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करके घर के मुखिया, परिवार का पेट पालने वाले और महिलाओं को अपने क़ाबू में रखने वाले बने। वहीं लड़कियों की कंडिशनिंग इस तरह की जाती है कि वो कम बोलने वाली, पुरुषों की बातें मानने वाली, ख़ुद की बजाय परिवार के बारे में सोचने वाली या यों कहूँ कि सब भुलाकर समाज की बतायी अच्छी औरत बने। इसके लिए लड़कियों की गतिशीलता और उनकी यौनिकता पर पितृसत्ता बचपन से ही अपना शिकंजा कसना शुरू कर देती है।

घर को बच्चे की पहली पाठशाला माना जाता है। ये घर ही है जो ज़िंदगी जीने और दुनिया को देखने का नज़रिया बच्चों को देता है। अब जब हम पितृसत्ता को सरोकार से जोड़ने वाले जेंडर को इस घर में तलाशने की कोशिश करते है तो न केवल परिवार में महिलाओं की भूमिकाओं के रूप में बल्कि घर की संरचना और इस संरचना के नियम में भी बहुत प्रभावी ढंग से जेंडर के अनुसार ज़िंदगी जीने का दबाव दिखायी पड़ता है। घर की इन्हीं संरचनाओं में बालकनी, छत और मेहमानों का कमरा अहम है। अधिकतर मिडिल क्लास फ़ैमली के घरों में कमरे भले ही कम हो लेकिन ये तीन जगहें ज़रूर होती है।

‘बालकनी’ वो जगह, जहां से हम अपनी गलियों में चल रही चहलक़दमी और सड़कों पर भागती जिंदगियों को देखते है, जहां हम सुबह-शाम की चाय अख़बार के साथ अपने फुर्सत के पल गुज़ारते है। ‘छत’ जहां हम अपने छोटे घर से भी खुला आसमान देखते है। अपने आसपास के घर-परिवार के संपर्क में आते है और ‘मेहमानों का कमरा’ जहां हमलोगों के घर आने वाले हर ख़ास इंसान का स्वागत किया जाता है, जो कभी-कभी परिचित और कभी-कभी अपरिचित होते है।

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पितृसत्ता ने अपने विचारों को समाज में रहने वाले लोगों और उनको जिंदगियों में अपनी पैठ क़ायम रखने के लिए अपनी भाषा पर भी ख़ास काम किया है, जिसका ज़िक्र यहाँ पर ज़रूरी हो जाता है। जिसके अनुसार, जो परिवार अमीर है उन्हें ‘बड़े घर’ और जो अमीर नहीं है वहाँ पितृसत्ता का वर्चस्व बनाए रखने के लिए ‘सभ्य घर’ का नाम दिया है। ध्यान रहे कि ये सिर्फ़ नाम नहीं बल्कि एक ओहदा जैसा है, जिसमें बने रहना मानो समाज के हर तथाकथित बड़े घर और मध्यमवर्गीय परिवार के लिए ज़रूरी है। अब चूँकि महिलाओं को पितृसत्ता ‘पूँजी’ के समान मानती है, इसलिए सभ्य और बड़े घर के मानकों में महिलाओं के ऊपर लगाए जाने वाले नियम और उस नियम के अनुसार महिलाओं का व्यवहार ही किसी भी घर को ‘सभ्य घर’ बनाते है।

महिलाओं को छत और बालकनी में जाने और वक्त गुज़ारने की मनाही होती है, वहीं पुरुषों का वर्चस्व इन जगहों पर भरपूर देखने को मिलता है।

इसीलिए कहा जाता है कि सभ्य या अच्छे घर की औरतें-लड़कियाँ बालकनी में आती है। वो छत पर नहीं जाती है और न ही मेहमानों के सामने जाती है। हाँ ये अलग बात है कि बालकनी में लगे पौधे और साफ़-सफ़ाई की ज़िम्मेदारी उन्हीं महिलाओं की होती है। मेहमानों के कमरे को ये महिलाएँ ही साफ़-सफ़ाई कर उसकी सजावट करके सुंदर बनाती है, लेकिन जैसे ही इन जगहों पर मौजूदगी की बात आती है तो उसकी इजाज़त महिलाओं को नहीं होती है। पर ऐसा क्यों होता ये अपने आप में सोचने वाली बात है-

बालकनी, छत या फिर मेहमानों का कमरा महिलाओं को गतिशीलता और नेतृत्व विकास का अवसर देती है। गतिशीलता – उनके विचारों को और अवसरों को। जब हम बालकनी या छत से आसपास, गाली-चौराहे में आती-जाती जिंदगियों को देखते है तो हम भी अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी से हटकर कुछ सोचने-समझने की चाहत करते है। हम अपने आसपास रहने वाले लोगों से बातें करते है, उनके बारे में जानने की कोशिश करते है, ज़ाहिर है जिसका प्रभाव हमारे अवसरों और जानकारियों पर पड़ता है। जब हम अपनी बालकनी या छत पर होते है तो पतंग उड़ाना, क्रिकेट खेलना, साइकिल चलाना जैसे अलग-अलग खेल भी देखते है, जो आमतौर पर समाज सिर्फ़ पुरुषों को खेलने की अनुमति देता है। ऐसे में जब हम महिलाएँ खुद ही इन जगहों से दूर कर दी जाती है तो इन खेलों को खेलना तो दूर इनमें एक़बार भी हाथ आज़माने की चाहत भी हम नहीं कर पाते है।

इतना ही नहीं, छत और बालकनी में वक्त गुज़राना, हमारा अपना समय होता है, वो समय जो हम अपने लिए निकालते है। अगर महिलाएँ सुबह की चाय बालकनी में दोपहर की धूप में छत पर जाने लगे तो ये उनका अपना वक्त होगा, जिसकी अनुमति समाज नहीं देता है। इसलिए इसे अच्छे घर की महिलाओं के मानक से दूर रखा गया है। फिर जब हम अपने घर में आए मेहमानों से मिलते है तो हमारी झिझक दूर होती है, हम अपनी बातों को साझा करना सीखते है। हमारी अपनी पहचान होती है। सरल शब्दों में समझें तो, बालकनी, छत और मेहमानो का कमरा महिलाओं के विचार-व्यवहार को गतिशीलता देता है और अपने लिए वक्त निकालने, ख़ुद के बारे में सोचने के साथ-साथ इन्हें सरोकार से जोड़ने की पहल करने का नेतृत्व भी देता है।

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पर एकतरफ जहां महिलाओं को छत और बालकनी में जाने और वक्त गुज़ारने की मनाही होती है, वहीं पुरुषों का वर्चस्व इन जगहों पर भरपूर देखने को मिलता है। क्योंकि अपने लिए वक्त निकालने, अपने सोच-विचार को दूसरों से साझा करने और अपने संपर्क बढ़ाने का विशेषाधिकार पितृसत्ता सिर्फ़ पुरुषों को देती है। वहीं दूसरी ओर, महिलाओं को इन विशेषाधिकारों से दूर रखना उनके विकास और आत्मविश्वास को प्रभावित करता है। बचपन से महिलाओं की गतिशीलता पर अपनी लगाम कसने में पितृसत्ता बहुत बारीकी से काम करती है, जिससे धीरे-धीरे महिलाएँ ख़ुद भी इन जगहों को लेकर असहज होने लगती है और घर की इन जगहों की अलावा हर दीवार के भीतर ज़िंदगी गुज़ारना उनके लिए सहज और सामान्य होता है।

ये सब हो सकता बेहद मामूली बातें लगे। लेकिन इनका प्रभाव हम अपनी जिंदगियों में साफ़ देख सकते है, जब हम किसी भी परिचित-अपरिचित लोगों के सामने अपनी बातें रखने में हिचकने लगते है। जब हमें सड़कों से चलने से डर लगता है या जब हम कभी भी जेंडर बाइनरी को चुनौती देना तो दूर इसके बारे में सोच भी नहीं पाते है। इसलिए ज़रूरी है कि हम अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी, अपने रिश्तों और घरों में मौजूद इन सामान्य से दिखने वाले पर प्रभावी पितृसत्तात्मक जेंडर आधारित विशेषाधिकार को चुनौती दें और महिलाओं की गतिशीलता और उनके नेतृत्व को आगे बढ़ाने के लिए स्पेस क्लेम करें।


तस्वीर साभार : asiaone

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