इंटरसेक्शनलयौनिकता महिलाओं की यौनिकता से जुड़े पूर्वाग्रहों को चुनौती देती कुछ फिल्में

महिलाओं की यौनिकता से जुड़े पूर्वाग्रहों को चुनौती देती कुछ फिल्में

सिनेमा ने समय-समय पर ‘अच्छी औरत’ और ‘बुरी औरत’ के बीच अंतर स्थापित करने के लिए यौनिकता को एक उपकरण के रूप में उपयोग किया है। जैसे, अगर कोई महिला किसी पुरुष से अपने प्यार का इज़हार करती है या उससे शारीरिक संबंध बनाने की इच्छा रखती है, तो वो सभ्य महिला नहीं कहलाती।

भारतीय फिल्मों में हमेशा से अभिनेत्रियों की भूमिका एक सीमित तरीके से दिखाया जाता रहा है। भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के शुरुआती दशकों में महिलाओं की भूमिका न के बराबर थी। पहले तो पुरुष ही महिलाओं की भूमिका निभा लिया करते थे। लेकिन आगे चल कर जब महिलाओं को फिल्मों में जगह मिलने लगी तो उनके किरदार अधिकतर पुरुष-केंद्रित दृष्टिकोण से लिखे जाते थे, जो पितृसत्ता को परोसने के लिए होते थे। समय के साथ कुछ बदलाव आया है और आज हम उन्हें सशक्त किरदारों में भी देखते हैं। लेकिन अभी भी कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनपर बहुत काम होना बाकी है। ऐसे ही मुद्दों में एक मुद्दा है महिलाओं की यौनिकता पर बातचीत। हालांकि स्थिति पहले से काफ़ी बेहतर हुई है। पहले जहां महिलाओं को मात्र ग्लैमर के लिए फिल्मों में रखा जाता था, आज उन्हें कहानी का हिस्सा बनाया जाता है। महिला-केंद्रित फिल्में बन रही हैं।

आज ओटीटी के आने से विविध कहानियां देखने को मिल रही हैं। लेकिन समाज में जिस तरह से यौनिकता पर बात नहीं होती, खास कर कि महिलाओं की यौनिकता पर, वहां सिनेमा ने भी पूर्वाग्रह स्थापित करने में कोई कमी नहीं छोड़ी है। आइटम नम्बर्स के माध्यम से महिलाओं को आब्जेक्टिफ़ाई करना या उन्हें किसी सामान की तरह परोसना कहीं से भी यौनिकता का सही मायना नहीं है। सिनेमा ने समय-समय पर ‘अच्छी औरत’ और ‘बुरी औरत’ के बीच अंतर स्थापित करने के लिए यौनिकता को एक उपकरण के रूप में उपयोग किया है। जैसे, अगर कोई महिला किसी पुरुष से अपने प्यार का इज़हार करती है या उससे शारीरिक संबंध बनाने की इच्छा रखती है, तो वो सभ्य महिला नहीं कहलाती। ऐसे पूर्वाग्रहों से दर्शकों के अचेतन में ये बात स्थापित होती है कि महिलाओं को यौन संबंध बनाने की इच्छा नहीं होती, और अगर होती है तो वो सामान्य नहीं है।

सिनेमा ने समय-समय पर ‘अच्छी औरत’ और ‘बुरी औरत’ के बीच अंतर स्थापित करने के लिए यौनिकता को एक उपकरण के रूप में उपयोग किया है। जैसे, अगर कोई महिला किसी पुरुष से अपने प्यार का इज़हार करती है या उससे शारीरिक संबंध बनाने की इच्छा रखती है, तो वो सभ्य महिला नहीं कहलाती।

ये कहना गलत नहीं होगा कि महिलाओं की यौनिकता पर बिल्कुल बात नहीं होती। आज के समय में ऐसी कई उल्लेखनीय फिल्में बन रहीं हैं जो ऐसे विषयों पर बात करने की दिशा चुन रहीं हैं। लेकिन ऐसी फिल्मों का योगदान किसी बड़ी बजट की फिल्म की चमक के सामने फीका पड़ जाता है। उदाहरण के तौर पर हाल ही में आई संदीप रेड्डी वांगा की अनिमल के हिंसा को दिखाते और जायज़ ठहराते फिल्म पर हर कोई बात कर रहा है। महिलाओं की यौनिकता कर बात की जाए तो बाकी फिल्मों के किए कराए पर पानी फेरती इस फिल्म में भरपूर मात्रा में इंटीमेट सीन डाले गए हैं। लेकिन ये स्थापित किया गया है कि महिलाओं की यौनिकता केवल किसी पुरुष से ‘स्वस्थ बच्चों’ को जन्म देने तक सीमित है। सेक्स और महिला कामुकता के वर्जित दृष्टिकोण को तोड़ते हुए, निम्नलिखित फिल्मों ने स्क्रीन पर अधिक गहन और सूक्ष्म चित्रण के लिए रास्ता दिखाने की कोशिश में मदद की है।

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

अस्तित्व (2000)

इस फिल्म में तब्बू ने अदिति का किरदार निभाया है जो कि एक गृहणी है और अपनी शादी में यौन रूप से असंतुष्ट है। एक पत्नी और माँ की भूमिका को चुनौती देती है ये पुरस्कार विजेता द्विभाषी फिल्म महिला के रिश्ते में एजेंसी का चित्रण करती है। चूंकि अदिति अपनी शादी के बाहर किसी पुरुष के साथ अंतरंग संबंध बनाती है, इसलिए इस अभूतपूर्व चित्रण ने एक महिला के अपने पति के प्रति अपेक्षित कर्तव्यों को अलग कर दिया और इसके बजाय बड़ी उम्र की महिलाओं और उनकी इच्छाओं के विवादास्पद विषय पर ध्यान केंद्रित किया, जिसे अक्सर भारतीय समाज में नापसंद किया जाता है।

इश्क़िया (2010)

एक डार्क कॉमेडी फिल्म जो एक धोखेबाज महिला की कहानी है जो अपने दिवंगत पति के दो दोस्तों को अपहरण की साजिश में मदद करने के लिए बहकाती है। कहानी अच्छे या बुरे से परे महिला किरदार की खोज करती है जहां उसकी कामुकता केंद्र स्तर पर है। वह यौन संबंध से झिझकती नहीं। वह ‘आदर्श’ भारतीय महिला के विपरीत है। उसे ‘मासूम विधवा’ के रूप में नहीं दिखाया गया। किरदार उसके चतुर गुणों के माध्यम से प्रलोभन को सत्ता के साधन के रूप में खोजती नजर आती है।

वन्स अगैन (2018)

एक भारतीय रोमांटिक ड्रामा फिल्म जो दो मध्यम आयु वर्ग के पात्रों, एक विधवा रेस्तरां मालकिन और एक अभिनेता पर आधारित है। यह रिश्ता एक आकस्मिक फोन कॉल से शुरू होता है और महिला के सामना की जाने वाली पेचीदगियों और बाधाओं पर प्रकाश डालता है। वह एक मां है, लेकिन एक विधवा है, जिसे समाज द्वारा यौनिकता से वंचित कर दिया गया है। महिलाओं को घरेलू बनाना इस विचार पर आधारित है कि उनकी पहचान का अस्तित्व बेटी, बहन, पत्नी या माँ या किसी पुरुष के संबंध से है। इस मामले में उसके मृत पति के संबंध में है। फिल्म इस विचार पर केंद्रित है कि ये ‘कर्तव्य’ उसकी यौन जरूरतों को नकारते हैं।

लिप्स्टिक अन्डर माई बुर्का (2016)  

यह फिल्म चार अलग-अलग महिलाओं की अनोखी कहानियों को संवेदनशीलता के साथ पेश करती है। स्त्री की इच्छा में सत्यनिष्ठा को कायम रखना और उसके साथ अवमानना का व्यवहार न करना। कहानियों में से एक रत्ना पाठक शाह का किरदार एक वृद्ध महिला है जो इरोटिका पढ़ती है और रोज़ी के चरित्र के माध्यम से जीवन जीती है। वह अपने से बहुत छोटे आदमी में रोमांटिक रुचि पैदा करती है। उम्रदराज़ महिला अपनी कामुकता को फिर से खोजती है और उन परिवारों की नज़रों में सम्मान खोने के डर से बंद दरवाजों के पीछे अपनी इच्छाओं को जीती है जो उसे पवित्रता के पायदान पर रखते हैं।

अजीब दास्तान्ज़ (2021)

एक हिंदी भाषा की एंथोलॉजी फिल्म जो चार अलग-अलग कथाओं की पड़ताल करती है। कोंकणा सेन शर्मा और अदिति राव हैदरी अभिनीत भाग ‘गीली पुच्ची’ ने समलैंगिक-दलित पहचान के बहुस्तरीय चित्रण के कारण बहुत ध्यान आकर्षित किया है। इसके साथ ही फातिमा सना शेख द्वारा अभिनीत लिपाक्षी वाला खंड एक समलैंगिक पुरुष से शादी करने वाली एक महिला की कहानी पर केंद्रित है जो खुद को यौन रूप से असंतुष्ट पाती है।

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

पार्च्ड (2015)

इस फिल्म का मूल्यांकन फिल्म की रिलीज से पहले लीक हुए लवमेकिंग सीन से किया गया। अभिनेताओं को सामने आकर इस बारे में बात करनी पड़ी कि कैसे फिल्म नग्न दृश्यों से कहीं अधिक है और बाल विवाह, पितृसत्ता और कामुकता के मुद्दों से निपटती है। यह महिलाओं के बीच संबंधों का भी पता लगाता है और पितृसत्तात्मक धारणा के विपरीत, महिलाएं महिलाओं का समर्थन करती हैं।

मार्गरीटा विद अ स्ट्रॉ एक युवा महिला लैला की कहानी के बारे में बात करती है, जो सेरेब्रल पाल्सी से पीड़ित है। लेकिन अपनी यौन इच्छाओं को तलाशने से नहीं कतराती है।

मार्गरीटा विद अ स्ट्रॉ (2015)

एक युवा महिला लैला की कहानी के बारे में बात करती है, जो सेरेब्रल पाल्सी से पीड़ित है। लेकिन अपनी यौन इच्छाओं को तलाशने से नहीं कतराती है। फिल्म में कल्कि कोचलिन और सयानी गुप्ता मुख्य भूमिका में हैं। कथित तौर पर फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने फिल्म के निर्माताओं से कुछ दृश्यों को संपादित करने के लिए कहा था। साथ ही, बेंगलुरु की अदालत ने फिल्म की स्क्रीनिंग पर प्रतिबंध लगा दिया था क्योंकि अधिकारियों ने फिल्म की सामग्री पर अपनी अस्वीकृति व्यक्त की थी। लैला पोर्न देखती है, अपनी हताशा शांत करने के लिए एक दोस्त का इस्तेमाल करती है और यहां तक कि एक महिला के साथ यौन संबंध भी बनाती है। भारतीय फिल्म में किसी महिला की कामुकता की खोज करना वर्जित है और इसलिए यह फिल्म विवादास्पद रही। 

सूपर डीलक्स (2019)

त्यागराजन कुमारराजा द्वारा निर्देशित, ‘सुपर डीलक्स’ 3 घंटे की एक अंडररेटेड डार्क कॉमेडी फिल्म है जो कामुकता और लिंग पहचान की गहराई का पता लगाती है। यह सही और गलत के बारे में समझ पर सवाल उठाती है।यह तमिल सिनेमा द्वारा किए गए सबसे साहसी प्रयासों में से एक है।

थैंक यू फॉर कमिंग (2023)

46वें टोरंटो इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल (टीआईएफएफ) में प्रीमियर के बाद, ‘थैंक यू फॉर कमिंग’ सिनेमाघरों में रिलीज ही चुकी है। फिल्म 5 सबसे अच्छे दोस्तों के इर्द-गिर्द घूमती है, जो एक पारिवारिक समारोह में मिलते हैं, और फिल्म एक झूठ के दिल छू लेने वाले परिणामों से प्रभावित होती है जो उनकी दोस्ती की गहराई का पता लगाती है। हालांकि ये फिल्म कई जगहों पर सही नहीं, लेकिन महिलाओं की यौनिकता पर अच्छे से बात करती है।

दा मिरर (2023)

कोंकणा सेन शर्मा द्वारा निर्देशित, दा मिरर, 30 की उम्र में एक डिजाइनर इशिता और उसके यौन सुखों की खोज के इर्द-गिर्द घूमती है। महिलाओं की यौनिकता पर बात करने के लिए यह कहानी सबसे अच्छी तरह से बनाई गई है क्योंकि यह न केवल कल्पनाओं, यौन सुख और इच्छाओं की दुनिया का पता लगाती है बल्कि जातिवाद, सामाजिक विभाजन और सामाजिक कलंक की बारीकियों का भी पता लगाती है। 

ये सभी फिल्में उन महिलाओं के अस्तित्व को दर्शाती हैं जो अपनी यौनिकता की पहचान करती हैं, समझती हैं और इसके लिए भारी आलोचना का सामना भी करती है। इन फिल्मों के प्रयास से अब महिलाओं की यौनिकता पर थोड़ी बात होने लगी है। लेकिन अभी भी सिनेमा को और विकसित होने की जरूरत है। महिलाओं की इच्छा और यौन अभिव्यक्ति की ऐसी श्रृंखला की खोज पहले से मौजूद चित्रणों को चुनौती देती है और इसे स्वीकार किया जाना चाहिए।

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