रससुंदरी देवी बंगाली साहित्य की सबसे शुरुआती महिला लेखकों में से एक थीं। उनकी आत्मकथा अमर जीवन (माई लाइफ) को बंगाली भाषा में पहली प्रकाशित आत्मकथा के रूप में जाना जाता है। रससुंदरी देवी ऐसे समय में अपना जीवन जी रही थी जब भारत में समाज सुधारों ने उच्च वर्ग/जाति की महिलाओं के जीवन को मुश्किल से छुआ था। महिलाओं को सालों से ही उनके हक से वंचित रखा गया है, फिर चाहे समाज में महिलाओं की योगदान की बात हो या शिक्षा की।
महिलाओं के लिए उस वक्त शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती थी और एक पढ़ी-लिखी महिला समाज के लिए एक दुष्ट/शापित महिला का पर्याय थी। लेकिन रससुंदरी ने जीवनभर एक अनपढ़ महिला रहने से इनकार कर दिया था। उन्होंने खुद को पढ़ना और लिखना सिखाया और ख़ुद के लिए अपने पति और बच्चों से स्वतंत्र एक अलग पहचान बनाई। रससुंदरी ने 26 साल की उम्र में पढ़ना सीखा था। रसुंदरी देवी के जीवन के बारे में जानने का सबसे प्रामाणिक स्रोत उनकी आत्मकथा है जिसमें उन्होंने अपने जीवन की सभी प्रमुख घटनाओं को दर्ज किया है।
और पढ़ें : तोरू दत्तः विदेशी भाषाओं में लिखकर जिसने नाम कमाया| #IndianWomenInHistory
रससुंदरी देवी का जन्म 1809/1810 में पबना (पश्चिमी बांग्लादेश) के पोताजिया के छोटे से गाँव में एक ग्रामीण जमींदार परिवार में हुआ। जब देवी एक छोटी थीं तब ही उनके पिता ने दुनिया को अलविदा कह दिया था। उनका पालन- पोषण उनकी विधवा मां ने किया। उनका सारा बचपन अपनी मां के साये में गुज़ारा।
रससुंदरी ने कभी औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की क्योंकि लड़कियों को शिक्षित करना उस दौर में एक अपराध जैसा था। हालांकि, एक बच्चे के रूप में वह अपने माता-पिता के घर के बाहर ही कमरे में युवा लड़कों के साथ बैठती थीं जहां एक मिशनरी महिला पढ़ाने आती थी। वह बोर्ड पर लिखे अक्षरों को दोहराते हुए लड़कों को सुनती और सीखने की कोशिश करती। लेकिन दुर्भाग्य से, स्कूल जल्द ही जलकर खाक हो गया, जिससे साक्षरता तक उनकी जो भी कम पहुंच थी उसका अंत हो गया। उनकी याददाश्त काफी अच्छी थी क्योंकि वह बचपन में सीखे गए कई अक्षरों को अभी पहचानने में सक्षम थीं।
महिलाओं के लिए उस वक्त शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती थी और एक पढ़ी-लिखी महिला समाज के लिए एक दुष्ट/शापित महिला का पर्याय थी। लेकिन रससुंदरी ने जीवन भर एक अनपढ़ महिला रहने से इनकार कर दिया। उन्होंने खुद को पढ़ना और लिखना सिखाया और ख़ुद के लिए अपने पति और बच्चों से स्वतंत्र एक अलग पहचान बनाई। रससुंदरी ने 26 साल की उम्र में पढ़ना सीखा था।
रससुंदरी की शादी 12 साल की उम्र में नीलमणि रॉय नाम के एक व्यक्ति से हुई थी, जो फरीदपुर के राजबाड़ी में एक संपन्न घराने से ताल्लुक रखते थे। शादी के बाद रससुंदरी को वह दूर के रामदिया गाँव में ले गए जहाँ, जैसा कि उन्होंने अपनी आत्मकथा में उल्लेख किया है, लोग दयालु और देखभाल करने वाले थे। फिर भी अपनी प्यारी माँ से बिछड़ने का गम उन्हें काफी सता रहा था। अपने पति और अपने परिवार की तरह रससुंदरी भी धार्मिक थीं।
और पढ़ें : बेग़म हमीदा हबीबुल्लाह : शिक्षाविद् और एक प्रगतिशील सामाजिक कार्यकर्ता| #IndianWomenInHistory
रससुंदरी अपने घरेलू कर्तव्यों का पालन करती थी, लेकिन उन्हें कुछ ऐसा करने के लिए एक इच्छा महसूस हुई जिसे वह जानती थी कि उसके लिए मना किया गया था। वह थी साक्षरता हासिल करने की इच्छा। 14 साल की उम्र में, रससुंदरी देवी के पास पूरे घर की जिम्मेदारी संभालने के अलावा कोई विकल्प नहीं था क्योंकि उनकी सास की आंखों की रोशनी चली गई थी और वे बिस्तर पर पड़ी थीं। अब उन्हें घर के सारे काम साफ-सफाई से लेकर खाना बनाने तक, मेहमानों की देखभाल और सबकी सुख-सुविधाओं का देखभाल करने के लिए लोग मौजूद थे। परिवार बहुत बड़ा था। नौकर थे लेकिन उन्हें घर के भीतरी परिसर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी।
शादी के तकरीबन 6 साल बाद यानि 18 साल की उम्र में रससुंदरी देवी को माँ बनी। मां बनने के साथ ही उनका काम का बोझ बढ़ गया। उन्होंने 12 बच्चों को जन्म दिया, जिनमें से 7 की जल्दी मृत्यु हो गई। बिना किसी सहायता उन्होंने घर और अपने बच्चों को संभाला। लेकिन उनकी कुछ अलग करने की इच्छा दुबारा जागृत हो उठी। एक दिन, उनके पति ने बाहर जाने से पहले अपने ‘चैतन्य भागवत’ को रसोई में छोड़ दिया। रससुंदरी ने हिम्मत जुटाई, किताब से एक पन्ना अलग किया और रसोई में छिपा दिया। फिर उन्होंने अपने बच्चे के पास से ताड़ के पत्ते को चुरा लिया जिस पर वह लिखने का अभ्यास किया करती थीं। बचपन में सीखे हुए तमाम अक्षरों, पत्रों को याद करके उन्होंने उन किताबों पर लिखे शब्दों को देख-देखकर वह लगातार अभ्यास करने लगी। इस तरह से रससुंदरी ने 26 साल की उम्र खुद को पढ़ना-लिखना सिखाया। साबित कर दिया कि कुछ भी असंभव नहीं है।
और पढ़ें : कृपाबाई सत्यानन्दन : अंग्रेज़ी में उपन्यास लिखने वाली पहली भारतीय महिला
रससुंदरी 59 वर्ष की आयु में विधवा हो गई और अपने पति की मृत्यु के कुछ महीनों बाद, उन्होंने 1868 में अपनी आत्मकथा ‘अमर जीवन’ का पहला संस्करण समाप्त किया और प्रकाशित किया। एक अंतिम संस्करण 1897 में प्रकाशित हुआ था। अमर जीवन दो भागों में लिखा और प्रकाशित किया गया था। पहले में सोलह रचनाएं शामिल थीं। दूसरा भाग में पंद्रह रचनाएं शामिल थीं जो 1906 में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने प्रत्येक एक रचना की शुरुवात में दयामाधव, वैष्णव देवता को समर्पित एक भक्ति कविता लिखी है। अमर जीवन शुद्ध बांग्ला में लिखा गया था जो 19वीं सदी की एक महिला के साक्षरता के संघर्ष की जीवन कहानी बताता है। यह ग्रामीण बंगाल की बदलती दुनिया को चित्रित करता है और महिलाओं की स्थिति को दिखाता है।
रससुंदरी ने अपने जीवन की कहानी दो तरह से सुनाई है। एक ओर वह लिखती हैं कि ईश्वर की दया और उनके प्रति उपकार ने उन्हें साक्षरता प्राप्त करना संभव बना दिया है। दूसरी ओर, वह यह भी दिखाती है कि कैसे उसने पारिवारिक अस्वीकृति और सामाजिक बहिष्कार के डर के बावजूद पढ़ना सीखकर जीवन में अपने निर्णय खुद लिए हैं। वह भगवान की लीला की स्तुति करती हैं, लेकिन पढ़ने-सीखने के लिए किए गए सभी परिश्रम और आत्मनिर्णय को भी बताती हैं।
और पढ़ें : मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखे गए इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए क्लिक करें