बेग़म हमीदा हबीबुल्लाह वह नाम हैं जिन्होंने भारत की गुलामी के दौर से लेकर आज़ादी के संघर्ष तक को अपनी आंखों से देखा है। आज़ादी से पहले के भारत से लेकर आज़ाद भारत तक, हमीदा किसी पहचान की मोहताज नहीं रहीं। हमीदा लखनऊ में एक जानी-मानी शख्सियत थीं। एक समृद्ध परिवार की सुखी महिला होने के बावजूद हमीदा एक आम औरत की चुनौतियों को बखूबी जानती थीं। पूर्व राज्यसभा सदस्य और शिक्षाविद् बेग़म हमीदा हबीबुल्लाह का जन्म साल 1916 में 20 नवंबर को एक समृद्ध परिवार में हुआ था।
हमीदा के वालिद नवाब नज़ीर यार जंग बहादुर उस दौर में हैदराबाद के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश थे। बात अगर हमीदा की शिक्षा की करें तो उन्होंने ने विदेश जाकर लंदन के कॉलेज में दो सालों का शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम का अध्ययन किया था। इसके बाद साल 1938 में 22 साल की उम्र में उनका विवाह कमांडर मेजर जनरल और पुणे के खड़कवासाला के राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के संस्थापक इनायत हबीबुल्लाह से हो गया था।
अपने पति की रिटायरमेंट के बाद हमीदा साल 1965 में राजनीति की धरातल पर उतरीं। उनका राजनीतिक सफर उत्तर प्रदेश के बाराबंकी क्षेत्र के विधायक बनने से शुरू हुआ था। बाद में साल 1971 से साल 1973 तक उन्होंने उत्तर प्रदेश में बतौर सामाजिक और कल्याण मंत्री के पदभार को संभाला। इसके बाद साल 1976 से लेकर साल 1982 तक वह राज्यसभा सदस्य भी रहीं।
और पढ़ें : हंसा मेहता : लैंगिक संवेदनशीलता और महिला शिक्षा में जिसने निभाई एक अहम भूमिका| #IndianWomenInHistory

शिक्षा के क्षेत्र में बेग़म हबीबुल्लाह का योगदान
भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में जहां पुरुष वर्चस्व के बीच औरतें केवल घर की चारदीवारी में कर्तव्य के बंधन में बंधी रही हैं, उस पितृसत्तात्मक समाज में एक महिला का सामने आकर ना सिर्फ समाज के लिए काम करना बल्कि प्रथम पंक्ति में आकर नेतृत्व करना और अन्य औरतों को एक नयी राह दिखाना हमीदा की छवि को मज़बूत करता है। हमीदा के अनगिनत ऐसे काम हैं जो उन्हें बेहद खास बनाते हैं। उन्होंने भारतीय महिलाओं और खासकर अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए कई काम किए थे। बेगम हमीदा ने महिलाओं की शिक्षा पर जोर दिया और लखनऊ में कई कॉलेजों को खुलवाने में अहम भूमिका निभाई। भारत देश में एक मुस्लिम महिला होने की चुनौतियों के बावजूद हमीदा अपने अस्तित्व का लोहा मनवाने में निसंदेह कामयाब रहीं।
भारतीय समाज में जहां पुरुष वर्चस्व के बीच औरतें केवल घर की चारदीवारी में कर्तव्य के बंधन में बंधी रही हैं, उस पितृसत्तात्मक समाज में एक महिला का सामने आकर ना सिर्फ समाज के लिए काम करना बल्कि प्रथम पंक्ति में आकर नेतृत्व करना और अन्य औरतों को एक नयी राह दिखाना हमीदा की छवि को मज़बूत करता है।
आपको बता दें कि हमीदा भारतीय महिला क्रिकेट संघ की पहली अध्यक्ष भी थीं। उन्होंने महिलाओं को शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ाने और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के लिए कई कामों में प्रमुख भूमिका निभाई थी। वह लखनऊ के पहले ‘अंग्रेजी डिग्री कॉलेज’ जो लड़कियों के लिए था उसकी अध्यक्ष रहीं। इसके साथ ही उन्होंने ‘सेवा लखनऊ सेल्फ एंप्लॉयड वीमेंस एसोसिएशन’ की अध्यक्षता भी की। यह सगंठन महिलाओं को रोज़गार दिलाने में अहम भूमिका निभाता रहा है।
और पढ़ें : लीला रॉय: संविधान सभा में बंगाल की एकमात्र महिला| #IndianWomenInHistory
लखनऊ में कई कामों को अंजाम देने के बाद हमीदा साल 1987 में केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड, नई दिल्ली की कार्यकारी समिति की सदस्य भी रही थीं। साल 1974 से 80 तक हमीदा हबीबुल्लाह लखनऊ विश्वविद्यालय की कार्यकारी परिषद की सदस्य थीं। सरकारी संगठनों के साथ-साथ हमीदा गैर-सरकारी संगठन प्रज्वला कि सह-संस्थापक भी रही थीं।
हमीदा के प्रेरणादायी जीवन को देखते हुए उन्हें लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से नवाज़ा गया। इसके साथ ही उन्हें चिश्ती सद्भाव पुरस्कार से साल 2012 से सम्मानित किया गया था। हमीदा लखनऊ की खास शख्सियत और प्रगतिशील भारत की महिला के तौर पर एक प्रभावित चेहरा रही हैं जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। 13 मार्च 2018 को हमीदा हबीबुल्लाह ने लखनऊ में अपनी अंतिम सांसे लीं। आज हमीदा हमारे बीच भले ही ना हो लेकिन उनके के कामों को कभी भुलाया नहीं जा सकता।
और पढ़ें : कामिनी रॉय: भारत की पहली महिला ग्रैजुएट| #IndianWomenInHistory