समाजकानून और नीति पुलिस हिरासत में जान गंवाते लोग और जांच में होती देरी

पुलिस हिरासत में जान गंवाते लोग और जांच में होती देरी

नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो के आंकड़ो से पता चलता है कि पिछले 20 सालों में देश में 1888 लोगों की मौत पुलिस हिरासत में हुई है। इतनी मौतों के केस में केवल 26 पुलिसकर्मी ही दोषी पाए गए।

कासगंज में एक लड़के की दो फीट ऊंची टोंटी से कथित रूप से फांसी लगाकर मौत, आगरा में सफाईकर्मी की कस्टडी में मौत, इन सब मौत की खबरों में एक तार जुड़ा हुआ है वह यह कि इनकी मौत कथित रूप से पुलिस की कस्टडी में हुई है। बीते साल के भीतर इस तरह की कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं जिसमें सीधे-सीधे पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठते हैं। अक्सर इस तरह की घटना के बाद पुलिस विभाग के अधिकारी एक ‘कमज़ोर पटकथा’ के तहत पूरी घटना का वर्णन करते नजर आते हैं। संविधान और लोगों के प्रति जवाबदेही की शपथ लेनेवाली पुलिस जनता सुरक्षा की जगह उसको प्रताड़ित करती नज़र आती है।

हमारे समाज में पुलिस की असंवेदनशीलता की खबरें लगातार बढ़ती जा रही हैं। इस तरह की घटनाओं में यह बात भी साफ देखने को मिला है कि गरीब और सामाजिक रूप से वंचित समुदाय के प्रति पुलिस का रवैया अधिक क्रूर और हिंसात्मक होता है। इस तरह कि स्थिति में वह पहले से ही उन्हें अपराधी मानकर चलती है। विशेष तौर पर कुछ धर्म और जाति के लोगों के लिए पहले से तय मानसिकता और पूर्वाग्रहों के आधार पर ही पुलिस सबूतों से परे अपनी कार्रवाई करती नज़र आती है।

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क्या कहते हैं आंकड़े

नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो के आंकड़ो से पता चलता है कि पिछले 20 सालों में देश में 1888 लोगों की मौत पुलिस हिरासत में हुई है। इतनी मौतों के केस में केवल 26 पुलिसकर्मी ही दोषी पाए गए। एनसीआरबी के द्वारा जारी 2020 के आंकड़ो के अनुसार पुलिस हिरासत में कुल 76 लोगों ने अपनी जान गंवाई। पुलिस की हिरासत में होनेवाली मौतों की संख्या 43 उन लोगों की हैं जिनको रिमांड में नहीं लिया गया था। वहीं, रिमांड में लिए गए लोगों के मरने की संख्या 33 है। 2020 के आंकड़े के अनुसार पुलिस हिरासत में आत्महत्या के 31 मामले सामने आए और अस्पताल में इलाज के दौरान मरने वालों की संख्या 34 है।

नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो के आंकड़ो से पता चलता है कि पिछले 20 सालों में देश में 1888 लोगों की मौत पुलिस हिरासत में हुई है। इतनी मौतों के केस में केवल 26 पुलिसकर्मी ही दोषी पाए गए।

एनसीआरबी की ही रिपोर्ट के अनुसार देश में पिछले 20 सालों में 1888 लोगों की पुलिस हिरासत में मौत हुई है। 1185 मौत के मामले उस श्रेणी के है जिसमें मरनेवालों को रिमांड में नहीं लिया गया था और 703 मौत रिमांड में लिए लोगों की पुलिस की हिरासत में मौत हुई। ऐसे मामलों में पुलिसकर्मियों के खिलाफ दर्ज मामलों में केवल 358 लोगों के खिलाफ चार्जशीट दायर हुईं और इसमें सजा केवल 26 पुलिसकर्मियों को दी गई। तमाम तरह के आंकड़ो के दर्ज होने के बाद इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि भारतीय सरकारी व्यवस्था के आंकड़े और जमीनी हकीकत में धरती-आसमान का अंतर होता है।

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उत्तर प्रदेश पुलिस के खिलाफ मामले बढ़े

बीते साल कासगंज थाने में अल्ताफ़ की मौत के मामले में घिरी उत्तर प्रदेश की पुलिस के लिए यह एक अकेला मामला नहीं है। इससे पहले आगरा या फिर गौरखपुर में कानपुर के व्यापारी की हत्या का मामला हो हर केस में उत्तर प्रदेश पुलिस प्रशासन पर ही सवाल उठ रहे हैं। बता दें कि कासगंज ज़िले में 9 नवम्बर 2021 के दिन 22 साल के अल्ताफ़ की मौत हो गई। अल्ताफ़ पर एक 16 साल की लड़की को भगाने का आरोप था। इस मामले में पुलिस ने उसे मौत से एक दिन पहले हिरासत में लिया था। उसके बाद जिले के पुलिस अधीक्षक (एसपी) ने एक वीडियो जारी करते हुए थाने के शौचालय में लगी पानी की टंकी से लटककर अल्ताफ़ के आत्महत्या करने की बात कही। हालांकि, इसके बाद से ही पुलिस की थ्योरी पर सवाल उठने लगे और इस मामले में एक अपडेट के बाद यह बात भी सामने आई है कि लड़की नाबालिग नहीं है।

द हिंदू के अनुसार उत्तर प्रदेश में पुलिस के खिलाफ दर्ज होते मामलो की संख्या लगातार बढ़ रही है। बीते साल यूपी में लगातार पुलिस हिंसा के मामले सामने आते रहे। आगरा में पुलिस हिरासत मे एक सफाई कर्मचारी की मौत का मामला सामना आया था। इस मामले में एक इंस्पेक्टर समेत पांच पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया गया था। सितंबर 2021 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उच्च न्यायालय नें जौनपुर में 24 वर्षीय कृष्ण यादव की कथित हिरासत में मौत की जांच केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को स्थानांतरित कर दी थी। इस मामले में सीबीआई ने पुलिस के खिलाफ हत्या और लूट का मामला दर्ज किया है।

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अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार उल्लघंन है पुलिस हिरासत में मौत

एनसीआरबी 2020 के आंकड़ों के ही अनुसार पिछले साल 20 मामले स्टेट पुलिस के खिलाफ मानवाधिकार उल्लंघन के तहत दर्ज किए गए। पुलिस हिरासत में होती कथित हत्या साफतौर पर अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार नियमों का उल्लघंन है। इसके तहत व्यक्ति के खिलाफ स्टेट का हिंसात्मक रवैया उसके अधिकारों का हनन है। इस विषय से संबधित कई शोध यह बताते हैं कि पुलिस का हिरासत मे लिए व्यक्ति पर पूछताछ के लिए हिंसा का प्रयोग करना, गिरफ्तारी के नियमों का पालन न करना, नियमों से परे थर्ड डिग्री का इस्तेमाल करने के दौरान पुलिस हिरासत में व्यक्तियों की मौत होती है। मौत के बाद सर्वाइवर के परिवारजनों को उसकी मृत शरीर को पाने और पोस्टमार्टम के लिए भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

पुलिस हिरासत में हुई मौतों के विवरण को सूचित करने के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सभी राज्य सरकारों को दिशानिर्देश दिए हुए हैं। 24 घंटे के भीतर आयोग को इसकी सूचना देना, पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट, मजिस्ट्रियल जांच रिपोर्ट और पोस्टमॉर्टम की वीडियोग्राफी रिपोर्ट देना है। हालांकि यह पाया गया है कि इन प्रक्रियाओं को पूरा करने में भी बहुत देरी होती है। लभगभ पूरे देश के राज्यों में पुलिस हिरासत में होने वाली मौत की जांच रिपोर्ट्स लंबित पड़ी हुई है।  

ह्यूमन राइट वॉच के अनुसार भारत में हिरासत में होने वाली मौतों के प्रति जवाबदेही न के बराबर है। आमतौर पर पुलिस कारवाई के दौरान गिरफ्तारी की प्रक्रियाओं का पालन न करना, शारीरिक यातनाओं का प्रयोग करना सामान्य होता जा रहा है। पुलिस के द्वारा गिरफ्तार व्यक्ति का चौबीस घंटे के भीतर चिकित्सकीय परीक्षण करावाना भी बेहद जरूरी होता है क्योंकि इसके बाद नयी चोट के निशान पुलिस हिंसा के खिलाफ सबूत के तौर पर इस्तेमाल किए जा सकते हैं। इस रिपोर्ट में जयराज और फेनिक्स के केस का ज्रिक भी किया गया। गौरतबल है कि तमिलनाडु में कोविड नियमों के उल्लघंन के लिए पिता-पुत्र की पुलिस हिरासत के दौरान जेल में हुई शारीरिक हिंसा के बाद दोनों की मौत हो गई थी।

द वायर में प्रकाशित ख़बर के अनुसार चीफ जस्टिस एनवी रमना ने कहा था कि देश के थानों में मानवाधिकारों को सबसे ज्यादा खतरा है। मानवाधिकारों और शारीरिक अखंडता के लिए पुलिस स्टेशन सबसे अधिक खतरनाक जगह है। हिरासत में यातना और अन्य पुलिस हिंसा की घटनाएं समाज में लगातार बनी हुई हैं।

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तस्वीर साभारः Live Law

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