उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव अब आख़िरी चरण में है। सातवें चरण में वाराणसी, भदोही, ग़ाज़ीपुर, सोनभद्र जैसे कई ज़िलों में आज मतदान हो रहे है। चुनाव के परिणाम दस मार्च को आने को है, नए वादों-इरादों और मेनिफ़ेस्टो के साथ नयी सरकार बनेगी। लेकिन इस सातवें चरण के चुनाव और इसके परिणाम के बीच आठ मार्च को पूरी दुनिया में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाएगा।विकास के रास्ते पर दौड़ते भारत पर में आज भी जब बात आधी आबादी की आती है तो उनके हिस्से की लड़ाई आज भी पूरी जस की तस दिखाई पड़ती है। समय बदलता है, सरकारें बदलती है, वादें बदलते है और चेहरे बदलते है लेकिन नहीं बदलती है तो – आधी आबादी की सूरत।
खरगुपुर गाँव में रहने वाली बीस वर्षीय मौसमी पढ़ाई करने के बाद नौकरी करना चाहती है, लेकिन तथाकथित ऊँची जाति की महिलाओं के लिए बाहर जाकर नौकरी करना शोभनीय नहीं माना जाता है, इसलिए मौसमी को अपने हर छोटे-बड़े खर्चे के लिए अपने पति के सामने हाथ फैलाना पड़ता है, जिसके चलते कई बार उसे हिंसा का शिकार भी होना पड़ता है।
तेंदुई गाँव की मुसहर बस्ती में रहने वाली करिश्मा पढ़ना चाहती है, उसकी उम्र सत्रह साल है। लेकिन उसके समुदाय की कोई भी लड़की कभी पाँचवी के आगे नहीं पढ़ी, इसलिए करिश्मा को भी आगे पढ़ने से रोक दिया गया। करिश्मा को अब अपने मज़दूरी करने बाहर जाना पड़ता है, जिस दौरान उसे कई बार लोग गंदे कमेंट करते है और उसके साथ यौन-उत्पीड़न करने की कोशिश करते है। करिश्मा की आमदनी उसके घर में जलने वाले चूल्हे का आधार है।
‘अच्छी औरत’, ‘बुरी औरत’ और ‘बेचारी औरत’ जैसे अलग-अलग विशेषणों के आधार पर समाज ने बड़ी बारीकी से महिलाओं की स्थिति और उनके चयन को ख़ेमों में बाँटा है।
ये दो महिलाओं की स्थिति है, जिसमें जाति का संघर्ष दोनों जगह है। एक लिए शिक्षा मिलना आसान था पर नौकरी करना नहीं, वहीं दूसरी के लिए शिक्षा मिलना कठिन पर काम करना मुश्किल है। समाज के इसी ताने बाने की वजह से ज़रूरी है कि जब भी हम आधी आबादी की बात करते है तो उनकी ज़िंदगी को प्रभावित करने वाले हर पहलू को समझें। मनुष्य की सामाजिक स्थिति उसके ज़िंदगी के हर पहलू को प्रभावित करती है।ऐसे में वर्ग, जाति, धर्म, शारीरिक संरचना, भौगोलिक पृष्ठभूमि जैसे अलग-अलग खाँचों में बंटी आधी आबादी की चुनौतियों की पहचान किए बिना उनके विकास और नेतृत्व की दिशा आगे ला पाना असंभव है। वास्तविकता ये है कि हिंसा और भेदभाव की कोई जाति या धर्म नहीं है। महिलाएँ चाहे किसी भी धर्म, जाति या वर्ग से ताल्लुक़ रखें उनके संघर्ष हमेशा होते है और इन सभी संघर्षों की मूल जड़ है ‘पितृसत्ता’।
और पढ़ें : आखिर एक औरत अपने पति से ज्यादा क्यों नहीं कमा सकती?
वो पितृसत्ता जो महिलाओं को पुरुषों से कमतर आंकती है और उनके समाज में दोयम दर्जे का मानती है। इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था की जटिलता के बीच लेंगिक समानता का मुद्दा अपने आप में चुनौतीपूर्ण हो जाता है। बेशक भारतीय लोकतंत्र में आधी आबादी का मतदान सरकार बनाने या गिराने में बेहद अहम है, लेकिन इसके बावजूद आधी आबादी के ज़ारी संघर्ष हमेशा इसकी व्यवस्था और सरोकार पर सवाल खड़े करते है। महिलाओं के हक़, अधिकार और उनके हिस्से में समानता की बात करने, इसकी शुरुआत करने के नामपर महिला दिवस तो हर साल मनाया जाता है और आगे भी मनाया जाता रहेगा, लेकिन साल का एकदिन महिलाओं के नामपर चौपाल सजाना उनके नामपर मंच सजाकर बातें करना काफ़ी नहीं होता। सवाल शिक्षा का हो या रोज़गार, आज भी कहीं न कहीं महिलाओं का भूगोल रसोई और घर तक ही सीमित माना जाता है, जिसके चलते अभी भी उनके लिए विकास के अवसर दूर की कल्पना होते है। ‘अच्छी औरत’, ‘बुरी औरत’ और ‘बेचारी औरत’ जैसे अलग-अलग विशेषणों के आधार पर समाज ने बड़ी बारीकी से महिलाओं की स्थिति और उनके चयन को ख़ेमों में बाँटा है, जो महिला अपने अवसर को त्यागकर पितृसत्ता के इशारों पर चले को अच्छी कहलाती है और जो उसे चुनौती दे वो बुरी। और जिस महिला को पितृसत्तात्मक व्यवस्था की कठोर मार झेलनी पड़े वो बेचारी। पर कुल मिलाकर आधी आबादी के संघर्षों के रंग बदल रहे है पर मूल क़ायम है।
ऐसे में जब भी हम सतत विकास की बात करते है तो ज़रूरी है कि समस्याओं और व्यवस्था की जटिलताओं को तह जाएँ, क्योंकि जब बात आधी आबादी की हो तो उनके संघर्षों को किसी एक लेंस से नहीं देखा जा सकता है। कई बार आधुनिकता की सुनहरी चादर के पीछे संघर्षों की परत मोटी और जटिल होती है। इसलिए इस महिला दिवस, आधी आबादी को नारीवादी समावेशी नज़रिए दे देखने-समझने और इस पूरी वैचारिकी को सरोकार से जोड़ने की दिशा में कदम उठाइए।
और पढ़ें : लैंगिक समानता के बहाने क़ायम जेंडर रोल वाले विशेषाधिकार| नारीवादी चश्मा
तस्वीर साभार : magdalene.co