इतिहास के पन्ने पलटें तो सामाजिक न्याय की लंबी लड़ाई लड़ने वालों में महात्मा बुद्ध, ईवी रामासामी पेरियार से लेकर आंबेडकर तक का नाम लिया जा सकता है। वहीं, जब सामाजिक न्याय के साथ नारीवाद की बात की जाए तो ज्योतिबा फुले का नाम सबसे पहले लिया जाना चाहिए। ज्योतिबा ही वह शख्स थे जिन्होंने सावित्रीबाई फुले को पढ़ने के लिए प्रेरित किया था।
महान क्रांतिकारी, लेखक, चिंतक, शिक्षाविद, नारीवादी और सामाजिक न्याय के पुरोधा ज्योतिबा फुले 19वीं सदी के महान समाज सुधारकों में शुमार हैं। उनके जीवन दर्शन में किसानों की चिंता, महिलाओं की शिक्षा और सामाजिक न्याय को पाने की ललक स्पष्ट दिखाई पड़ती है। अहम बात यह है कि उन्होंने समाज में व्याप्त बुराइयों को न केवल उजागर किया बल्कि उचित समाधान भी खोजा और काफी हद तक कामयाब हुए। इस लेख के शुरुआत में हम ज्योतिबा फुले के शुरुआती जीवन के बारे में पढ़ेंगे और उसके बाद समाज हित में किए गए काम पर नज़र डालेंगे।
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ज्योतिबा फुले: जीवन परिचय
ज्योतिबा फुले का पूरा नाम ज्योतिराव गोविन्दराव फुले और पिता का नाम गोविंद राव फुले था। उनका जन्म 1827 में महाराष्ट्र के सताराा ज़िले में हुआ। वह माली जाति से आते थे। उनका शुरुआती जीवन कम संघर्ष भरा नहीं रहा। सिर्फ एक साल की उम्र में ही उनकी माँ चल बसीं। महज़ 13 साल की उम्र में उनकी शादी सावित्रीबाई से कर दी गई। उस समय सावित्री मात्र नौ साल की थी। शादी के समय ज्योतिबा तीसरी कक्षा में थे। लोगों के कहने पर परिवार ने उनकी पढ़ाई बंद करा दी। लेकिन, 21 वर्ष की उम्र में उन्होंने अंग्रेजी की सातवीं कक्षा में दोबारा से दाखिला लिया।
महान क्रांतिकारी, लेखक, चिंतक, शिक्षाविद, नारीवादी और सामाजिक न्याय के पुरोधा ज्योतिबा फुले 19वीं सदी के महान समाज सुधारकों में शुमार हैं। उनके जीवन दर्शन में किसानों की चिंता, महिलाओं की शिक्षा और सामाजिक न्याय को पाने की ललक स्पष्ट दिखाई पड़ती है।
ज्योतिबा फुले के जीवन संघर्ष को तीन मुख्य बिंदुओं में समझना ज़रूरी है। सबसे पहले महिलाओं के अधिकारों के संबंध में उनके योगदान को समझते हैं। साल 1848 में उन्होंने सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर पहला स्कूल पुणे के भिड़ेवाडा में खोला था। यह अपने तरह का पहला स्कूल था जहां सभी जाति, वर्ग की लड़कियां शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं। खास बात यह थी कि उन दिनों पुणे में रूढ़िवादियों का खूब बोलबाला था। इस स्कूल में पढ़ाने का काम सावित्रीबाई ने किया जो देश की पहली शिक्षिका बनीं। इसी बीच ज्योतिबा के पिता ने उन्हें स्कूल बंद करने या ऐसा नहीं किया तो घर से निकलने का फ़रमान सुना दिया। इसके जवाब में ज्योतिबा ने इतना ही कहा कि स्कूल बंद नहीं हो सकता। साल 1851 में फिर से स्कूल खोला। शुरुआत में यहां 8 लड़कियां थी बाद में जिनकी संख्या बढ़कर 48 तक पहुंच गई। महात्मा फुले स्कूल खोलने के संबंध में लिखते हैं, ”सबसे पहले महिला स्कूल ने मेरा ध्यान खींचा। मेरे ख़्याल से महिलाओं के लिए स्कूल पुरुषों से ज़्यादा अहम थे।”
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फुले दंपत्ति बाल विवाह, भ्रूण हत्या जैसे अपराध के ख़िलाफ़ थे। साथ ही वह विधवा पुनर्विवाह के समर्थक। ज्योतिबा फुले ने विधवा महिलाओं के लिए एक आश्रय गृह भी खोला, ख़ासकर गर्भवती महिलाओं के लिए। साथ ही उन्होंने बच्चों के लिए अनाथ आश्रम भी खोले। कुछ समय बाद अन्य महिलाएं इस जगह पर गुपचुप तरीके से आने लगी और फुले दंपति का सहयोग करने लगीं। पुणे में कई जगहों पर इस तरह के निशुल्क आश्रय गृह के बारे में जानकारी संबंधी पर्चे भी लगवाए। इन पर्चों में लिखा था, “विधवाओं, यहां आओ और गुप्त और सुरक्षित रूप से बच्चे को जन्म दो। यह आपको तय करना है कि आप अपने बच्चे को यहां लाना चाहते हैं या नहीं। अनाथालय उन बच्चों की देखभाल करेगा।”
प्रतिकूल परिस्थितियों में इस तरह का साहसिक कार्य उनकी निडरता और संघर्ष का जीता जागता उदाहरण है। आप कल्पना करें कि इस तरह का कोई घर हम अगर हम आज के समय में अपने क्षेत्र में खोलने लगें तो कितने ही विरोधी खड़े मिलेंगे। भले ही इस घटना से पहले ही विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 में पारित हो गया हो, लेकिन सामाजिक स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई थी। आज के हालात देख लीजिए, लेकिन फुले दंपत्ति 1863 में इसकी शुरुआत कर चुके हैं। वे काफी सूझबूझ और दूरदर्शी व्यक्तित्व रहे हैं।
दूसरे बिंदु में उनके सत्यशोधक समाज के गठन और बहुजन समाज को जगाने की ‘तकनीक’ को समझें। 1873 में उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना की। इसकी स्थापना पूर्ण रूप से सत्य, विवेक और तार्किकता पर की गई। मुख्य उद्देश्य बहुजन समाज को जाति और धार्मिक परंपराओं से मुक्त कराना था। यह संगठन अपने उद्देश्य को पूर्ण करने में सफल रहा। इसकी आसपास के क्षेत्रों में विंग तैयार कर दी गई। संगठन के कार्यकर्ता अब लोगों को विवाह, शांति, अंतिम संस्कार के लिए वैकल्पिक अनुष्ठानों के बारे में बताने लगे। समतामूलक समाज ने पूरी तरह पुरोहितों के महत्व और मूल्यों को दरकिनार किया और नकार दिया।
उनका दृष्टिकोण काफी अलग था। मराठी भाषा में लिखी उनकी पुस्तक ‘गुलामगिरी’ काफी चर्चित रही। इसके अलावा उन्होंने किसान का कोड़ा, तृतीय रत्न, छत्रपति शिवाजी, राजा भोसले का पखड़ा और अछूतों की कैफियत जैसी पुस्तकें भी लिखीं। गुलामगिरी देश के बहुजनों पर सवर्णों द्वारा किए गए शोषण और अमेरिकी ब्लैक गुलामों पर किए गए अत्याचार और शोषण का जिक्र है। वहीं, किसान का कोड़ा बाजार व्यवस्था, जाति व्यवस्था, नौकरशाही, साहूकारों व प्राकृतिक आपदाओं से बढ़ी किसानों की दुर्दशा पर आधारित है।
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तीसरा बिंदु किसानों की चिंता और निदान के संबंध में हैं। उन्होंने ‘किसानों का कोड़ा’ नाम की एक किताब लिखी। यह किताब एक तरह से उस समय के किसानों की दुर्दशा का दस्तावेज है। इस किताब ने न केवल किसानों के सामने आनेवाली समस्याओं पर ध्यान खींचा बल्कि इसके लिए उपयुक्त सुझाव भी दिए। महात्मा फुले और किसान आंदोलन पुस्तक के लेखक और शिवाजी विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर डॉ. अशोक चौसालकर अपनी किताब में लिखते हैं कि यदि महात्मा फुले द्वारा सुझाए गए उपायों को लागू किया जाए तो किसानों की स्थिति बदल सकती है। गहनता से देखें तो उनका किसान दर्शन अद्भुत और अविश्वनीय रहा है। किसान का कोड़ा कहता है कि नौकरशाही, साहूकारों, बाज़ार व्यवस्था, जाति व्यवस्था, प्राकृतिक आपदाओं से किसानों की दुर्दशा बढ़ गई है।
किसानों को आ रही तमाम समस्याओं के निदान के लिए फुले ने व्यवसायों का प्रशिक्षण, बांधों का निर्माण, पहाड़ियों और पहाड़ों में झील और तालाब का बनाना, सभी नदियों और नालों में गाद का मुफ्त भंडारण जैसे कई सुझाव दिए थे। अहम बात यह है कि उनके सुझावों और संगठन के संघर्ष को ध्यान में रखते हुए महाराष्ट्र सरकार ने एग्रीकल्चर एक्ट पास भी किया।
वे घटनाएं जो फुले नहीं भूले
उनके जीवन में ऐसी कई घटनाएं घटी जिन्होंने उनके मन-मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ी। जब वह सिर्फ 21 वर्ष के थे, उन्हें एक ब्राह्मण दोस्त ने शादी में आने का न्यौता दिया। फुले शादी में चले गए। वहां मौजूद अन्य लोगों ने उन्हें पहचान लिया। इस घटना का ज़िक्र करते हुए ज्योतिबा फुले बताते हैं कि उनमें से किसी एक व्यक्ति ने उनसे कहा, “क्या सभी जाति प्रतिबंधों और रीति-रिवाजों को तोड़कर हमारा अपमान कर रहे हो? क्या तुम्हें लगता है कि तुम हमारे बराबर हो? ऐसा करने से पहले आपको सौ बार सोचना चाहिए था। पीछे-पीछे चलो हमारे।”
इसी तरह एक अन्य घटना है जिसमें दो लोग फुले को जान से मारने की मंशा से आते हैं, लेकिन उनकी बातें सुनकर हथियार डाल देने पर विवश हो जाते हैं। ‘महात्मा फुले की बायोग्राफी’ पुस्तक में लेखक धनंजय कीर इस घटना का जिक्र करते हुए लिखते हैं, “फुले दंपति दिन का काम पूरा करने के बाद आधी रात को आराम कर रहे थे। अचानक नींद टूटने पर मंद रोशनी में दो लोगों की छाया दिखी। ज्योतिबा फुले ने ज़ोर से पूछा कि तुम लोग कौन हो?
एक हत्यारे ने कहा, “हम तुम्हें ख़त्म करने आए हैं’, जबकि दूसरा हत्यारा चिल्लाया, “हमें तुम्हें यमलोक भेजने के लिए भेजा गया है।” यह सुनकर महात्मा फुले ने उनसे पूछा, “मैंने तुम्हारा क्या नुकसान किया है कि तुम मुझे मार रहे हो?” उन दोनों ने उत्तर दिया, “तुमने हमारा कोई नुकसान नहीं किया है लेकिन हमें तुम्हें मारने को भेजा गया है।” महात्मा फुले ने उनसे कहा, “मुझे मारने से क्या फ़ायदा होगा?” “अगर हम तुम्हें मार देंगे, तो हमें एक-एक हज़ार रुपये मिलेंगे,” उन्होंने कहा।
यह सुनकर महात्मा फुले ने कहा, “अरे वाह! मेरी मौत से आपको लाभ होने वाला है, इसलिए मेरा सिर काट लो। यह मेरा सौभाग्य है कि जिन ग़रीब लोगों की मैं सेवा कर खुद को भाग्यशाली और धन्य मानता था, वे मेरे गले में चाकू चलाएं। चलो।, मेरी जान सिर्फ़ दलितों के लिए है मेरी मौत ग़रीबों के हित में है।” इस घटना के बाद दोनों महात्मा फुले के सहयोगी बन गए। उनमें से एक का नाम रोडे और दूसरे का नाम था पंडित धोंडीराम नामदेव।
ज्योतिबा फुले को एक सभा में महात्मा का नाम दिया गया। डॉ. आंबेडकर ने अपने तीन गुरुओं में बुद्ध और कबीर के साथ ज्योतिबा फुले का भी नाम लिया है। इस लेख के अंत में महात्मा फुले की किताब ‘किसान का कोड़ा’ से दो पंक्तियां, जिनमें उनका जीवन दर्शन छिपा है:
“विद्या बिना मति गयी, मति बिना नीति गयी
नीति बिना गति गयी, गति बिना वित्त गया
वित्त बिना शूद्र गए
इतने अनर्थ एक अविद्या ने किए”
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तस्वीर साभार: NDTV
[संदर्भ: किसान का कोड़ा, धनंजय कीर की पुस्तक महात्मा फुले की बायोग्राफी, डॉ. अशोक चौसालकर की पुस्तक महात्मा फुले और किसान आंदोलन, डॉ. सदानंद मोरे की पुस्तक ‘द ग्रामर ऑफ रिबेलियन, बीबीसी]