किसी भी सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन में साहित्यकारों की अहम भूमिका रही है, क्योंकि ये साहित्यकार ही हैं जो अपने साहित्य के माध्यम से किसी भी समाज की समस्या और आमजन की आवाज़ को ख़ास बनाते हैं। लेकिन क्या हो जब साहित्य लिखनेवाले ही हिंसा और सामाजिक कुरीति के पोषक बन जाए। मौजूदा समय में साहित्य और कला जैसे क्षेत्रों से जुड़े लोगों पर महिला हिंसा को लेकर गंभीर आरोप कहीं न कहीं इस बात की तस्दीक करते नज़र आते हैं। वह एक अलग दौर था जब साहित्यकार का साहित्य सामाजिक बदलावों का आधार हुआ करता था।
इस बात का जीवंत उदाहरण है नीलोत्पल मृणाल, जिन पर कथित रूप से दिल्ली में यूपीएससी की तैयारी कर रही एक महिला ने दस साल से लगातार शादी का झांसा देकर यौन शोषण करने का आरोप लगाया है। नीलोत्पल मौजूदा समय में साहित्य जगत का एक जाना-माना नाम हैं। साल 2016 में उनकी लिखी किताब ‘डार्क हार्स’ के लिए उन्हें साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार से सम्मानित भी किया जा चुका है।
इतना ही नहीं, उनकी युवा सोच वाले प्रोग्रेसिव लेखन को देखते हुए उन्हें हिंदी साहित्य जगत में ‘ताजा हवा के झोंके’ के नाम से जाना जाता है। कुल मिलाकर ये कहें कि नीलोत्पल मृणाल आज के समय में हिंदी साहित्य जगत का एक बड़ा नाम बन चुका है। सर्वाइवर ने दिल्ली के तिमारपुर थाने में नीलोत्पल के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज करवाई है। पिछले दस साल से दिल्ली में यूपीएससी की तैयारी कर रही सर्वाइवर ने अपने सोशल मीडिया हैंडल पर एफआईआर की कॉपी पोस्ट करते हुए लिखा कि नीलोत्पल ने शादी का वादा करके दस साल तक उनका मानसिक और शारीरिक शोषण किया। वह आए दिन उनके साथ गाली-गलौच और मारपीट करते थे। इसके बाद नीलोत्पल ने सर्वाइवर के साथ ज़बरन शारीरिक संबंध भी बनाया।
और पढ़ें : कैसे सर्वाइवर्स के न्याय पाने के संघर्ष को बढ़ाती है विक्टिम ब्लेमिंग की सोच
सर्वाइवर महिलाओं पर ट्रोल का हमला और विक्टिम ब्लेमिंग क्यों?
साहित्य जगत में नई पीढ़ी के एक चर्चित लेखक और साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार से सम्मानित लेखक नीलोत्पल मृणाल पर लगे ये आरोप निश्चित तौर पर शर्मनाक और निराशाजनक हैं और इससे से ज़्यादा निराश करने वाला है सोशल मीडिया पर सर्वाइवर को ट्रोल और उसकी विक्टिम ब्लेमिंग करना। पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में हमेशा से महिलाओं को हिंसा के ख़िलाफ़ चुप रहने की सीख दी जाती रही है, पर संविधान और शिक्षा के ज़रिए सालों बाद आज जब महिलाएं अपने साथ हो रही हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती हैं तो उनकी आवाज़ को दबाने के लिए समाज की एक बड़ी आबादी अपनी एड़ी-चोटी लगा देती है। ये वह आबादी है जो पितृसत्तात्मक सोच वाली है और हर हाल में महिलाओं की हिंसा के ख़िलाफ़ उठती आवाज़ों को बंद करने का काम करती है।
नीलोत्पल मृणाल के इस पूरे मामले में सर्वाइवर महिला को ट्रोल करने वालों की संख्या तो दिन-प्रतिदिन बढ़ती दिखाई पड़ रही है, लेकिन साहित्य जगत में पूरी तरह सन्नाटा छाया हुआ है। क्या यह एक तरह का मौन समर्थन है ?
सोशल मीडिया पर सर्वाइवर को ट्रोल करने के लिए अलग-अलग तर्क और आरोप-प्रत्यारोप ज़ारी है। इसमें ज़्यादातर ट्रोल करने वालों का सवाल है कि दस साल के बाद अब सर्वाइवर नीलोत्पल पर ये आरोप क्यों लगा रही है? यह कोई नया सवाल भी नहीं है। जब दुनियाभर में मीटू आंदोलन की शुरुआत हुई और महिलाओं के अपने साथ हुई हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना शुरू किया, तब भी सोशल मीडिया में एक बड़ी जमात ने इन्हीं सवालों के ज़रिए सर्वाइवर महिलाओं पर हमला करना शुरू किया था। ट्रोल करनेवाले इन लोगों को ज़वाब देते हुए तब प्रिया रमानी वि. एमजे अकबर के मामले में एडिशनल चीफ मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट रविन्द्र कुमार पांडेय ने 91 पन्नों के फैसले में साफ लिखा था कि महिलाओं के पास दशकों बाद भी अपनी शिकायत को स्वेच्छा से किसी भी प्लेटफ़ॉर्म पर रखने का का अधिकार है। ट्रोल बिरादरी को सर्वाइवर के इस कानूनी हक़ का सम्मान करना चाहिए।
पर ट्रोल करनेवालों से बिना डरे भारत में #MeToo आंदोलन के दौरान सर्वाइवर महिलाओं ने अपनी आवाज़ उठाना ज़ारी रखा और नतीजतन कला और साहित्य से जुड़े बड़े-बड़े चेहरों के नक़ाब उतरने लगे। आंदोलन के तहत अभिनेत्री तनुश्री दत्ता ने जाने-माने अभिनेता नाना पाटेकर पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया। उसके बाद लेखक चेतन भगत से लेकर मशहूर पत्रकार एमजे अकबर तक का नाम इस आंदोलन में आरोपियों के तौर पर सामने आया।
और पढ़ें : क्या होती है विक्टिम ब्लेमिंग?
वहीं, ट्रोल करने वाले और आरोपियों के पक्षधर अक्सर सर्वाइवर महिलाओं से ये सवाल कर उन्हें घेरते नज़र आते हैं कि बड़े चेहरों पर ही ऐसे आरोप क्यों? जब पुलिस स्टेशन में शिकायत कर दी तो फिर सोशल मीडिया की क्या ज़रूरत? यहां हमें ये समझना होगा कि भले ही संविधान की नज़र में सब बराबर है। लेकिन सच्चाई यही है कि धन-बल और संपर्कों से मज़बूत लोग हमेशा एक विशेषाधिकार के साथ रहते हैं क्योंकि क़ानून भी उन्हें पकड़ने या उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने में सौ बार सोचता है और इसकी वजह से किसी भी महिला के लिए यौन उत्पीड़न के ख़िलाफ़ मामला दर्ज करवाना या फिर न्याय तक पहुंच पाना मुश्किल हो जाता है।
कहीं न कहीं यही वजह है कि बलात्कार के संबंध में अक्सर यह कहा जाता है कि बलात्कारी एक बार सर्वाइवर के साथ बलात्कार करता है और पितृसत्तात्मक व्यवस्था सर्वाइवर को न्याय दिलाने के नाम पर कई बार उसके साथ हिंसा करती है। यह समाज की कड़वी सच्चाई है कि जब भी कोई महिला अपने साथ होनेवाली हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती है तो इसके बाद, सोशल मीडिया से लेकर न्याय मिलने की पूरी प्रक्रिया तक सर्वाइवर महिलाओं को बार-बार अपने साथ हुई हिंसा के ज़ख़्म कुरेदकर खुद को आरोप को साबित करना पड़ता है। इस तरह ये पूरी सामाजिक व्यवस्था उसका बार-बार यौन उत्पीड़न करती है। ऐसी परिस्थिति में जब पीड़ित महिलाएं सोशल मीडिया पर अपने साथ हुई हिंसा को साझा करती हैं तो उन्हें मिलने वाले समर्थन उन्हें ताक़त देते हैं जैसा कि नीलोत्पल मामले में भी हुआ है।
नीलोत्पल मृणाल के इस पूरे मामले में सर्वाइवर महिला को ट्रोल करने वालों की संख्या तो दिन-प्रतिदिन बढ़ती दिखाई पड़ रही है, लेकिन साहित्य जगत में पूरी तरह सन्नाटा छाया हुआ है। क्या युवा और स्थापित साहित्यकार सभी ने इस मामले में पूरी तरह चुप्पी साधी हुई है, जो अपने आप में कई बार संदेह प्रकट करता है कि इस चुप्पी का मतलब क्या है? क्या ये नीलोत्पल को मौन समर्थन है। ख़ैर, वजह चाहे जो भी हो लेकिन समाज के मुद्दों को उठाने वाले साहित्यकारों की ये चुप्पी निराश करने वाली है और एक अलग तरह के पितृसत्तात्मक विचारों से लैस ख़ेमेबाज़ी की तरफ़ संकेत करती है।
और पढ़ें : #MeToo से भारतीय महिलाएं तोड़ रही हैं यौन-उत्पीड़न पर अपनी चुप्पी