समाजकानून और नीति जानें, भारत में कब और कैसे मिला औरतों को अबॉर्शन का अधिकार

जानें, भारत में कब और कैसे मिला औरतों को अबॉर्शन का अधिकार

अबॉर्शन करवाना एक महिला का मूलभूत अधिकार है और यह नारीवादी आंदोलन की एक प्रमुख मांग रही है। अनचाहे और असुरक्षित अबॉर्शन और गर्भधारण दोनों ही महिलाओं के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहे हैं। पितृसत्तात्मक समाज में जहां महिलाओं का अपने शरीर और प्रजनन पर कोई अधिकार नहीं है ऐसे में अनचाहे गर्भधारण महिलाओं के शोषण का एक और ज़रिया बन चुके हैं। राजनीतिक और सामाजिक प्रक्रियाओं में प्रभावी रूप से भाग लेने में सक्षम होने के लिए, महिलाओं के पास अपने शरीर पर नियंत्रण होना चाहिए।

हमारे पितृसत्तात्मक समाज में औरतों की प्रजनन क्षमता को नियंत्रित करने के लिए हमेशा से उन पर दबाव डाला जाता रहा है। आसान शब्दों में कहे तो एक औरत कितने बच्चे पैदा करेगी, कब करेगी उसके अपने शरीर से जुड़े ये सारे फ़ैसले उसे करने का हक़ इस समाज में नहीं दिया गया है। भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के पास अविवाहित रहने का विकल्प नहीं है और शादी करने के बाद, वे यह नहीं चुन सकतीं कि वे गर्भवती कब होंगी और न ही उनके पास गर्भावस्था जारी रखने या न रखने का विकल्प उनका है। उनकी ज़िंदगी की डोर हमेशा पितृसत्तात्मक समाज के पास ही रही है।

अबॉर्शन करवाना एक महिला का मूलभूत अधिकार है और यह नारीवादी आंदोलन की एक प्रमुख मांग रही है। अनचाहे और असुरक्षित अबॉर्शन और गर्भधारण दोनों ही महिलाओं के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहे हैं। पितृसत्तात्मक समाज में जहां महिलाओं का अपने शरीर और प्रजनन पर कोई अधिकार नहीं है ऐसे में अनचाहे गर्भधारण महिलाओं के शोषण का एक और ज़रिया बन चुके हैं। राजनीतिक और सामाजिक प्रक्रियाओं में प्रभावी रूप से भाग लेने में सक्षम होने के लिए, महिलाओं के पास अपने शरीर पर नियंत्रण होना चाहिए।

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साल 1971 तक, भारत में अबॉर्शन सिर्फ माँ की जान बचाने के लिए वैध था। भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों ने भारत को अत्यधिक प्रतिबंधात्मक अबॉर्शन कानूनों वाले देशों की श्रेणी में रखा। 1971 तक, भारत में अबॉर्शन भारतीय दंड संहिता और आपराधिक प्रक्रिया संहिता द्वारा शासित थे। भारतीय दंड संहिता की धारा 312 में प्रावधान है: “जो भी कोई गर्भवती स्त्री का स्वेच्छा पूर्वक अबॉर्शन  करेगा, और यदि ऐसा अबॉर्शन उस स्त्री का जीवन बचाने के प्रयोजन से सद्भावपूर्वक कारित न किया गया हो, तो उसे किसी एक अवधि के लिए कारावास जिसे तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, या आर्थिक दण्ड, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।, और यदि वह स्त्री स्पन्दनगर्भा हो, तो उसे किसी एक अवधि के लिए कारावास की सजा जिसे सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, और साथ ही वह आर्थिक दण्ड के लिए भी उत्तरदायी होगा।”

धारा 312 केवल मां के जीवन की रक्षा के लिए गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति देती है। इस धारा के अनुसार अजन्मे बच्चे को केवल उसी स्थिति में ख़त्म किया जा सकता है जबकि उसकी माँ का जीवन संकट में हो। एक अध्ययन के अनुसार भारत में गर्भवती होनेवाली महिलाओं में लगभग हर सात में से एक महिला अपना अबॉर्शन कुछ अनुभवहीन हाथों जैसे झोलाछाप डॉक्टरों, अयोग्य नर्सों से करवाती थी। यह अबॉर्शन पांच रुपये से लेकर 300 में कराया जाता था। वे ऐसा इसलिए करती थी क्योंकि वे अबॉर्शन की कानूनी व्यवस्था से डरती थीं। 

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चिकित्सकों ने पाया कि गंभीर रूप से बीमार या मरनेवाली महिलाओं में अधिकांश आबादी उनकी थी जिन्होंने अकुशल चिकित्सकों द्वारा किए गए असुरक्षित अबॉर्शन का सहारा लिया था। उन्होंने महसूस किया कि अबॉर्शन की मांग करने वाली अधिकांश महिलाएं विवाहित थीं और अपने गर्भधारण को छिपाने के लिए किसी सामाजिक-सांस्कृतिक दबाव में भी नहीं थीं। ऐसे में अबॉर्शन को गैर-अपराधी बनाने से महिलाओं को कानूनी और सुरक्षित परिपेक्ष्य में अबॉर्शन सेवाओं की तलाश करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।

साल 1971 तक, भारत में अबॉर्शन सिर्फ माँ की जान बचाने के लिए वैध था। भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों ने भारत को अत्यधिक प्रतिबंधात्मक अबॉर्शन कानूनों वाले देशों की श्रेणी में रखा। 1971 तक, भारत में अबॉर्शन भारतीय दंड संहिता और आपराधिक प्रक्रिया संहिता द्वारा शासित थे।

25 अगस्त, 1964 को केंद्रीय परिवार नियोजन बोर्ड ने सिफारिश की कि स्वास्थ्य मंत्रालय अबॉर्शन पर कानून के प्रश्न का अध्ययन करने के लिए एक समिति बनाए। साल 1964 के अंत में इस सिफारिश को अपनाया गया, और विभिन्न भारतीय सार्वजनिक और निजी एजेंसियों के प्रतिनिधियों के साथ एक समिति का गठन किया गया था। यह समिति जिसे ‘शांतिलाल शाह समिति’ कहा जाता है उसने 30 दिसंबर, 1966 को अपनी रिपोर्ट जारी की। सरकार ने अबॉर्शन कानूनों को उदार बनाने का फैसला किया और मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट (1971 का एमटीपी अधिनियम) पारित किया। इस अधिनियम की शब्दावली विशेष रूप से डिजाइन की गई थी ताकि इससे संसद द्वारा कानून को अनुमोदित करना आसान हो सके।

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यह कानून महिलाओं को गैर-चिकित्सीय अबॉर्शन के खतरों से बचाने के लिए एक स्वास्थ्य उपाय के रूप में पारित किया गया था। शांतिलाल शाह समिति की रिपोर्ट के अनुसार, समिति की प्रमुख चिंता अवैध अबॉर्शन के खतरे थे। कुछ राज्य सरकारों ने यह भी कहा कि मौजूदा सरकार इस अधिनियम द्वारा जनसंख्या को कम करने का भी प्रयास कर रही थी क्योंकि गर्भनिरोधक उपकरण विफल होने पर लोग अब गर्भावस्था को समाप्त कर सकते थे। लेकिन शाह समिति ने इस बात को नकार दिया। स्पष्ट रूप से एमटीपी अधिनियम अबॉर्शन को गर्भवती महिला के मौलिक अधिकार के रूप में नहीं मानता है, लेकिन यह उन शर्तों के उदारीकरण तक सीमित है जिसके तहत महिलाओं को अबॉर्शन की सुविधा चिकित्सकों द्वारा प्रदान की जा सकती है।

मेडिकल टर्मिनेशन प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 ब्रिटिश लॉ ऑफ एबॉर्शन, 1968 पर आधारित था, लेकिन अबॉर्शन कानून को उदार बनाने का मुख्य विचार परिवार योजनाकार बोर्ड से आया, सरकार ने इसका खुलासा नहीं किया क्योंकि उन्हें लगा कि उन्हें विभिन्न धार्मिक नेताओं के विरोध का सामना करना पड़ेगा। 1971 के अधिनियम के अनुसार अबॉर्शन को वैध करने के तीन मुख्य उद्देश्य थे:

(i) जब माँ की जान को खतरा हो या महिला के शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को खतरा हो।

(ii) जब गर्भावस्था किसी मानसिक रूप से पीड़ित महिला के साथ बलात्कार या संभोग के कारण होती है। (मानवीय आधार)

(iii) जब यह जोखिम हो कि बच्चा बीमारियों या विकृतियों के साथ पैदा होगा।अधिनियम की प्रस्तावना में कहा गया है, “पंजीकृत चिकित्सा चिकित्सकों द्वारा कुछ गर्भधारण की समाप्ति और उससे जुड़े या उसके प्रासंगिक मामलों के लिए एक अधिनियम। इस अधिनियम में केवल 8 धाराएं हैं, जो कि अबॉर्शन के विभिन्न पहलुओं जैसे समय, स्थान और परिस्थितियों से संबंधित हैं जिसमें एक पंजीकृत चिकित्सक द्वारा गर्भावस्था को समाप्त किया जा सकता है। यह उन मामलों में अबॉर्शन को वैध बनाता है जहाँ गर्भ निरोधकों की विफलता होती है या जहां गर्भावस्था गर्भ के शारीरिक या मानसिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। साथ ही अबॉर्शन के लिए गर्भवती महिला की सहमति भी आवश्यक है। लेकिन अगर गर्भवती स्त्री नाबालिग या मानसिक रूप से बीमार है तब उसके अभिभावक की सहमति की आवश्यकता होती है।

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साल 2021 के संशोधन के अनुसार अबॉर्शन की ऊपरी सीमा 24 सप्ताह तक (इससे पहले ये सीमा 20 सप्ताह तक की थी) की है। यह ऊपरी सीमा रेप सर्वाइवर्स या ऐसे पर्याप्त जोखिम वाले गर्भ पर लागू होगा कि अगर बच्चा पैदा होता है, तो वह किसी गंभीर शारीरिक या मानसिक असामान्यता से पीड़ित होगा और कमज़ोर महिलाओं को ही उपलब्ध है।

एमटीपी एक्ट में महिला का विवाहित या अविवाहित होना मायने नहीं रखता। लेकिन हमारे पितृसत्तात्मक समाज में अविवाहित औरतों और लड़कियों के अबॉर्शन को आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता है। तथ्य यह है कि अविवाहित लड़कियों का अबॉर्शन अस्वीकार्य है, परिणामस्वरूप यह सुरक्षित अबॉर्शन में रुकावटें पैदा करता है और कभी-कभी अबॉर्शन के मूल उद्देश्य यानी अबॉर्शन कराने वाली महिला के स्वास्थ्य को दरकिनार देता है। कई बार इस अधिनियम की अबॉर्शन की ऊपरी सीमा रेप सर्वाइवर्स को मजबूरन इस अपराध से उपजे गर्भ को दुनिया में लाने को भी मजबूर कर देता है।

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तस्वीर साभार: Inside Philanthropy

स्रोत: Abortion: History and Law in India by Shantanu

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