संस्कृतिकिताबें उर्मिला पवार: जातिवादी पितृसत्तात्मक समाज से लड़कर बनाई अपनी पहचान

उर्मिला पवार: जातिवादी पितृसत्तात्मक समाज से लड़कर बनाई अपनी पहचान

जब उर्मिला पवार की आत्मकथात्मक रचना ऐदान पहली बार प्रकाशित हुई, तो इससे समाज में पुरुषों और महिलाओं के बीच समान रूप से बेचैनी की लहरें उठी। एक दलित महिला के रूप में, पवार ने अपने जीवन के अनुभवों के बारे में लिखा, उन्हें अंतरंग और स्पष्ट रूप से व्यक्त करने का साहस किया। यही वह बिंदु था जहां से जाति, समाज के खिलाफ दलित कथाएं दुनिया के लिए स्पष्ट हो गईं।

इतिहास गवाह है, शुरू से लेकर पितृसत्तात्मक व्यवस्था जहां भी रही है इस व्यवस्था को तोड़ने के लिए किसी न किसी महिला ने आवाज़ तो उठाई है। भारत में दलित महिलाओं के संघर्ष को अक्सर पितृसत्ता के खिलाफ लड़ाई के रूप में माना जाता है और जाति को एक अलग संस्था के रूप में देखा जाता है। हालांकि, सच्चाई यह है कि उनका संघर्ष हमेशा से ही ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के खिलाफ़ रहा है। आज हम आपको एक ऐसी ही, महिला की कहानी बताने जा रहे हैं जिन्होंने इस जातिवादी पितृसत्तात्मक समाज को चुनौती देते हुए समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाई। हम बात कर रहे हैं उर्मिला पवार की। उर्मिला पवार एक भारतीय लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भारत के दलित और नारीवादी आंदोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उर्मिला पवार का काम मूल रूप से मराठी भाषा में हुआ है।

शुरुआती जीवन और शिक्षा

उर्मिला पवार का जन्म 1945 में बॉम्बे प्रेसीडेंसी (अब महाराष्ट्र) में कोंकण के रत्नागिरी जिले के अडगांव गाँव में हुआ था। जब वह 12 साल की थीं, तब उन्होंने और उनके परिवार ने अपने समुदाय के अन्य सदस्यों के साथ बौद्ध धर्म अपना लिया था। उनके परिवार ने यह फैसला बीआर आंबेडकर के दलित समुदाय के लोगों से हिंदू धर्म को त्यागने के आह्वान के बाद लिया था। अपने स्कूल और अन्य स्थानों में बार-बार होने वाले भेदभाव और अपमान के कारण उर्मिला पवार, बचपन से ही अपनी जातिगत पहचान के बारे में परिचित थीं। उर्मिला पवार ने मराठी साहित्य में मास्टर ऑफ आर्ट्स किया है।

उर्मिला पवार एक भारतीय लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वह भारत में दलित और नारीवादी आंदोलनों में भूमिका निभानेवाली एक प्रमुख महिला हैं। उर्मिला पवार का काम मूल रूप से मराठी भाषा में लिखा हुआ है।

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जब उर्मिला पवार की आत्मकथा ‘आयदान’ पहली बार प्रकाशित हुई, तो इससे जातिवादी समाज में पुरुषों और महिलाओं के बीच समान रूप से बेचैनी की लहरें उठी। एक दलित महिला के रूप में, पवार ने अपने जीवन के अनुभवों के बारे में लिखा था। अपने अनुभवों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने का साहस किया था। हालांकि शांताबाई कांबले और अन्य दलित महिलाओं जैसे अग्रणी लेखिकाओं ने पहले ही अपने संघर्ष को शब्दों में बयां कर दिया था लेकिन यह पवार का काम था जो पाठकों की एक बड़ी संख्या तक पहुंचा।

उर्मिला पवार की आत्मकथा ‘आयदान’

अपनी पुस्तक में उन्होंने महावारी के एक उदाहरण का उल्लेख किया है जिसमें बताया गया है कि कैसे ‘पवित्रता’ और ‘अशुद्धता’ के विचार ने न केवल ब्राह्मणों को मनोवैज्ञानिक रूप से खंडित किया बल्कि एक निश्चित समय तक दलितों को भी शोषित किया। जब उन्हें एक लड़की के रूप में उनकी माँ द्वारा उनके महावारी के दौरान कुछ भी छूने से बचने के लिए एक कोने में बैठने के लिए कहा गया था, तो पवार यह सोचकर याद करती है, “जैसे कि मेरे साथ बाहर के अन्य लोगों द्वारा पर्याप्त भेदभाव नहीं किया गया था, अब (मेरा) परिवार भी मेरे लिए नियम निर्धारित कर रहा है।”

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तस्वीर साभार: Open Magazine

उर्मिला पवार की इस तीक्ष्ण समझ ने दिखाया कि कैसे उन्होंने एक महिला और एक दलित होने के दोहरे संघर्ष का पता लगाया और उसका अनुभव किया। उन्होंने भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले पर आधारित लघु कथाओं के दो संग्रह और एक नाटक, वाय मी सावित्रीबाई (हां! मैं सावित्रीबाई हूं) भी लिखा। इस नाटक में पवार ने अभिनय भी किया है। यह लगभग 25 वर्षों से चल रहा है। पवार दशकों से महाराष्ट्र में महिला आंदोलन के प्रमुख सदस्यों में से एक हैं। उनका सबसे बड़ा योगदान एक किताब है जिसे उन्होंने मिनाक्षी मून के साथ ‘आम्हीही इतिहास घडवला’ में सह-लेखन किया। इसे अंग्रेज़ी में अनुवादित और प्रकाशित ‘वी ऑल्सो मेड हिस्ट्री’ के नाम से प्रकाशित किया गया था। इस पुस्तक में दलित महिलाओं के आख्यान शामिल थे जिन्होंने बाबासाहेब आंबेडकर के जाति के खिलाफ आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया था।

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पवार ने पुरस्कार को अस्वीकार कर दिया। परिषद को लिखे एक पत्र में, उन्होंने लिखा था कि देवी सरस्वती की प्रार्थना के साथ कार्यक्रम शुरू करने का इरादा एक ही धर्म के प्रतीकों और रूपकों को प्रोजेक्ट करने के प्रयास का संकेत देता है। उन्होंने सवाल किया था कि मराठी साहित्य में ऐसे विचार क्यों मौजूद होने चाहिए।

पुरस्कार और प्रशंसा

पवार को महाराष्ट्र साहित्य परिषद (महाराष्ट्र साहित्य सम्मेलन), पुणे द्वारा ‘आयदान’ के लिए सर्वश्रेष्ठ प्रकाशित आत्मकथा, लक्ष्मीबाई तिलक पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। पवार ने इस पुरस्कार को अस्वीकार कर दिया था। परिषद को लिखे एक पत्र में लिखा था, “देवी सरस्वती की प्रार्थना के साथ कार्यक्रम शुरू करने का इरादा एक ही धर्म के प्रतीकों और रूपकों को प्रोजेक्ट करने के प्रयास का संकेत देता है। उन्होंने सवाल किया था कि मराठी साहित्य में ऐसे विचार क्यों मौजूद होने चाहिए।” पवार को साहित्य के क्षेत्र में उनके काम के लिए साल 2004 में संबोधि प्रतिष्ठान द्वारा ‘मातोश्री भीमाबाई आंबेडकर पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया था। एक लेखक के रूप में और दलित नारीवाद की सबसे मजबूत आवाजों में से एक पवार ने दलित महिलाओं के इतिहास और जाति के खिलाफ आंदोलन में उनके योगदान के लिए इतिहास में अपनी महत्वपूर्ण जगह बनाई है। इतना ही नहीं, उनकी पुस्तक ‘आयदान’ ने दलित महिलाओं के आख्यानों के इर्द-गिर्द एक नींव रखी।

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तस्वीर साभारः Wikipedia

स्रोत:

Wikipedia

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