डॉ. भीमराव आंबेडकर के संघर्ष को उनकी जीवनसंगिनी रमाबाई आंबेडकर के त्याग के बिना आंका नहीं जा सकता। डॉ. आंबेडकर द्वारा किए काम में रमाबाई के योगदान का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बाबा साहब ने रमाबाई को लिखे पत्र में जिक्र किया है, “रमा यदि तुम नहीं होती तो मैं यहां तक नहीं पहुंच पाता।” जिस समय डॉ. आंबेडकर लंदन में पढ़ाई कर रहे थे उसी समय रमाबाई तमाम संघर्षों के साथ पैसे कमाकर अपना और अपने चार बच्चों का पेट पालती। इसमें से भी वह कुछ पैसे जोड़तीं और डॉ. आंबेडकर के पास भेजतीं थी ताकि उन्हें पढ़ाई के दौरान कोई समस्या न आए। आज ही के दिन 27 मई 1935 को रमाबाई इस दुनिया को छोड़कर चली गई थीं। उचित इलाज न मिल पाने की वजह से वह मौत के छह महीने पहले तक बिस्तर पर ही रहीं।
यह सच है कि आंबेडकर और रमाबाई के जीवन में सुख कम और दुख और पीड़ा का समय ज्यादा रहा है। सोचकर ही दिल पसीज जाता है कि बाबा साहब के पुत्र राजरतन की मौत हो जाने पर उनके पास कफ़न खरीदने के पैसे नहीं थे। निश्चय ही बाबा साहब की यात्रा ज़मीन से उठकर आसमान में तारे के समान टिमटिमाने की है जिसके पीछे चट्टान बनकर रमाबाई खड़ी रहीं।
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आंबेडकर उनसे प्रेम भी बहुत करते थे। उनका मानना था कि पति और पत्नी का रिश्ता दोस्त के समान होना चाहिए। आंबेडकर रमाबाई को ‘रामू’ कहकर बुलाते थे और रमाबाई उन्हें ‘साहब’ कहती थीं। बाबा साहब बहुत कम समय अपनी पत्नी के साथ बिता पाते थे। पहले वह अपनी पढ़ाई पूरी करने में रात दिन एक कर रहे थे और उसके बाद सामाजिक राजनीतिक कार्यों में दाखिल होने के बाद परिवार के लिए बिलकुल भी समय नहीं मिल पाया। मात्र नौ वर्ष की उम्र में रमा की शादी 14 वर्षीय आंबेडकर से हो गई थी। यह शादी बंबई में हुई थी। शादी भी जल्दबाजी में करनी पड़ी थी। आंबेडकर के संघर्ष का एक हासिल यही है कि उन्होंने भले ही आनन-फानन में एक बाज़ार में शादी करनी पड़ी लेकिन वह ऐसा काम कर गए कि उनकी करोड़ों संतानें महलों में शादी करने के काबिल बन गई हैं।
डॉ. भीमराव आंबेडकर के संघर्ष को उनकी जीवनसंगिनी रमाबाई आंबेडकर के त्याग के बिना आंका नहीं जा सकता। डॉ. आंबेडकर द्वारा किए काम में रमाबाई के योगदान का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बाबा साहब ने रमाबाई को लिखे पत्र में जिक्र किया है, “रमा यदि तुम नहीं होती तो मैं यहां तक नहीं पहुंच पाता।”
रमाबाई और आंबेडकर के त्याग को हम उनकी एक जीवन घटना से समझ सकते हैं। बात उस समय की है जब उनका पुत्र राजरतन उचित इलाज न मिल पाने के चलते चल बसा था। बाबा साहब मुंबई की कोर्ट में वकालत कर रहे होते हैं तो उनका जो बेटा राजरतन बीमार हो जाता है। रमाबाई नानकचंद रत्तू को बाबा साहब को बुलाने के लिए भेजती हैं। बाबा साहब दौड़कर घर पहुंचते हैं और जैसे ही राजरतन को गोदी में लेते हैं वह दम तोड़ देता है। फॉर्वर्ड प्रेस वेबसाइट पर मौजूद निशा मेश्राम द्वारा लिखी गई लघु कथा ‘रमाबाई और आंबेडकर की कुर्बानी‘ का एक दृष्य कुछ यूं है:
रमाबाई बिलखते हुए कहती हैं, “बाबा साहब, बस करिए। आपके समाज सुधार की लालसा ने और ज्ञान पाने की लालसा ने मेरा पूरा घर उजाड़कर रख दिया है। मैंने एक-एक करके अपने 4 बच्चों को दफन कर दिया है। अब तो बस करिए।” इसके जवाब में बाबा साहब कहते हैं- “रमा, तुम तो मुझे रो करके बता पा रही है। मैं तो रो भी नहीं पा रहा हूं। मैं तो रोज ऐसे सैकड़ों बच्चों को मरते हुए देखता हूं। रमा, चुप हो जा। चुप हो जा।” रमाबाई कहती हैं- “बाबा साहब, मैंने आज तक आपकी हर बात को माना है और इस बात को भी मान लेती हूं और चुप हो जाती हूं। लेकिन, आप मुझे इतना बता दें कि आप बड़े फख्र से कहते थे कि तेरा बेटा राज रतन देश पर राज करेगा। लेकिन, अब यह इस दुनिया में नहीं रहा। आप बताएं, यह कैसे इस देश पर राज करेगा? बाबा साहब मुझे बता दें कि यह कैसे देश पर राज करेगा?” बाबा साहब बड़े ही कठोर ह्रदय से जवाब में कहते हैं – “रमा यह सच है कि तेरा यह पुत्र अब इस दुनिया में नहीं रहा। लेकिन मैं तुम्हें भरोसा दिलाता हूं और राजरतन के पार्थिव शरीर की सौगंध खाकर कहता हूं कि मैं अपने जीवन में ऐसा काम करके जाऊंगा कि हर रमा की कोख से पैदा हुआ राजरतन इस देश पर राज करेगा। मैं तुम्हें भरोसा दिलाता हूं।”
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इसी तरह आंबेडकर और रमाबाई के रिश्ते की गहराई को जानने के लिए साहब द्वारा लंदन में 30 दिसंबर 1930 को रमा को लिखा गया उनका पत्र पढ़ा जा सकता है। प्रो. यशवंत मनोहर की मराठी पुस्तक ‘रमाई’ में बाबा साहब आंबेडकर द्वारा रमाबाई आंबेडकर को लिखे गए एक पत्र का हिस्सा कुछ यूं जिसे फॉर्वर्ड प्रेस वेबसाइट में प्रकाशित किया गया है:
“रमा, तुम मेरी जिंदगी में न आती तो? तुम मन-साथी के रूप में न मिली होती तो? तो क्या होता? मात्र संसार सुख को ध्येय समझने वाली स्त्री मुझे छोड़ के चली गई होती। आधे पेट रहना, उपला चुनने जाना या गोबर ढूंढ कर उसका उपला थांपना या उपला थांपने के काम पर जाना किसे पसंद होगा? चूल्हे के लिए ईंधन जुटाकर लाना, मुम्बई में कौन पसंद करेगा? घर के चिथडे़ हुए कपडों को सीते रहना। इतना ही नहीं, एक माचिस में पूरा माह निकालना है। इतने ही तेल में और अनाज, नमक से महीने भर का काम चलाना चाहिए। मेरा ऐसा कहना। गरीबी के ये आदेश तुम्हें मीठे नहीं लगते तो? तो मेरा मन टुकड़े-टुकड़े हो गया होता। मेरी जिद में दरारें पड़ गई होतीं। मुझे ज्वार आ जाता और उसी समय तुरन्त भाटा भी आ जाता। मेरे सपनों का खेल पूरी तरह से तहस-नहस हो जाता। रमा, मेरे जीवन के सब सुर ही बेसुरे बन जाते। सब कुछ तोड़-मरोड़ के रह जाता। सब दुखमय हो जाता। मैं शायद बौना पौधा ही बना रहता। सम्भालना खुद को, जैसे सम्भालती हो मुझे। जल्द ही आने के लिए निकलूंगा। फिक्र नहीं करना। सब को कुशल कहना।”
तुम्हारा, भीमराव, लंदन 30 दिसंबर, 1930
बाबा साहब आंबेडकर के इस पत्र में एक पिता हैं, एक पति हैं जो अपनी पत्नी और बच्चों के लिए फिक्रमंद हैं। वहीं एक सामाजिक चिंतक भी है जिनके दिमाग में समाज सुधारने की ललक घर किए है। वह अद्भुत प्रेमी हैं। उन्हें बीवी-बच्चों से भी प्रेम है और समाज की चिंता भी है। इसलिए रमाबाई और बाबा साहब आंबेडकर के रिश्ते के इन पहलुओं पर भी लिखा जाना उतना ही ज़रूरी हो जाता है।
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तस्वीर साभार: Firstpost